हरियाणा। राज्य में 5 अक्टूबर को विधानसभा चुनाव होने हैं। ऐसे में प्रमुख राजनीतिक दलों ने अपने टिकट वितरण में रणनीतिक कदम उठाए हैं। जो उनकी जाति-आधारित प्राथमिकताओं को दिखाता है। भाजपा और कांग्रेस दोनों ने अपने उम्मीदवारों का चयन काफी सोच-समझकर किया है। जिससे कई जातियों को अपने पाले में लाया जा सकेगा। जो दोनों पार्टियों की रणनीतियों का साफ दर्शाता है।
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, हरियाणा में गैर-जाट राजनीति पर ध्यान केंद्रित करने के लिए जानी जाने वाली भाजपा ने जाट समुदाय को 15 टिकट दिए हैं, जो कुल 90 सीटों का 17% प्रतिनिधित्व करते हैं। पिछले सालों की तुलना में यह कम है। साल 2019 विधानसभा चुनाव की बात करें तो बीजेपी ने 19 जाट उम्मीदवारों मैदान में उतारा था, जबकि 2014 में 24 जाट समुदाय के सदस्यों को टिकट दिया था।
इसके विपरीत, कांग्रेस ने जाटों के प्रतिनिधित्व पर अधिक जोर दिया। कांग्रेस ने इस बार के हरियाणा विधानसभा चुनाव में जाटों को 28 टिकट दिए हैं, जो कुल सीटों का लगभग 31% है। जो राज्य के आबादी के लगभग 27 प्रतिशत हैं। ऐसे में कहा जा रहा है कि जाट समुदाय को नजरअंदाज करना या कम सीटें देना बीजेपी के कहीं भारी न पड़ जाए। रोहतक, सोनीपत और हिसार जैसे जाट-बहुल संसदीय क्षेत्रों में भाजपा की सफलता के बावजूद, इस बार जाटों के टिकट कम करने का उनका फैसला किसान आंदोलनों के कारण होने वाले विरोध से प्रभावित हो सकता है।
चूंकि जाट समुदाय में बहुत से ज़मीन के मालिक और किसान शामिल हैं, इसलिए भाजपा इस समुदाय को और अलग-थलग करने से बचना चाहती है। इसके बजाय, पार्टी अपने टिकट वितरण में ‘उच्च’ जाति और ओबीसी उम्मीदवारों पर ध्यान केंद्रित कर रही है।
उदाहरण के लिए, सोनीपत संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली गोहाना विधानसभा सीट पर, जहां जाटों की आबादी करीब 39% है। भाजपा ने जाट उम्मीदवार के बजाय ब्राह्मण अरविंद कुमार शर्मा को मैदान में उतारा है। यह कदम गैर-जाट वोटों को एकजुट करने की व्यापक रणनीति का हिस्सा है।
ओबीसी और ‘उच्च’ जाति समूहों पर भाजपा का जोर उनके टिकट आवंटन में स्पष्ट है। पार्टी ने ब्राह्मणों और पंजाबी खत्रियों को 11-11 टिकट दिए हैं, जो राज्य की आबादी का क्रमशः लगभग 8% और 9% हिस्सा हैं। यह दृष्टिकोण ब्राह्मणों और पंजाबी खत्रियों दोनों के लिए कुल सीटों का 24% प्रतिनिधित्व करता है।
इस बीच, कांग्रेस ने ब्राह्मणों को पांच टिकट (लगभग 6% सीटें) और पंजाबियों को छह टिकट (लगभग 7%) दिए हैं। पंजाबी खत्री वोटों पर भाजपा का ध्यान पूर्व मुख्यमंत्री खट्टर की पृष्ठभूमि से मेल खाता है। पार्टी द्वारा पंजाबियों को 11 टिकट देना पिछले विधानसभा चुनाव में दिए गए नौ टिकटों से अधिक है। 2014 के बाद से भाजपा ने जीटी करनाल रोड क्षेत्र में अच्छा प्रदर्शन किया है – जिसमें कुरुक्षेत्र, अंबाला, पंचकूला, करनाल और पानीपत शामिल हैं। जहां आबादी में पंजाबी, वैश्य और अन्य ओबीसी समूहों की एक महत्वपूर्ण संख्या शामिल है।
कुरुक्षेत्र संसदीय क्षेत्र के लाडवा सीट से मौजूदा मुख्यमंत्री सैनी, जो ओबीसी समुदाय के एक प्रमुख नेता हैं, उनको मैदान में उतारने की भाजपा की रणनीति ओबीसी समर्थन को मजबूत करने के उनके इरादे को और भी दर्शाती है। यह रणनीति कुरुक्षेत्र और अंबाला में विशेष रूप से प्रासंगिक है, जहां ओबीसी समुदाय महत्वपूर्ण है।
भाजपा और कांग्रेस दोनों ने हरियाणा में ओबीसी समुदाय पर खासा ध्यान केंद्रित किया है, जो कि कुल आबादी का 40% है। भाजपा ने यादव समुदाय को सात और गुर्जर समुदाय को छह टिकट दिए हैं, जबकि कांग्रेस पार्टी ने यादवों को छह और गुर्जरों को सात टिकट दिए हैं। इस रणनीतिक टिकट वितरण का उद्देश्य ओबीसी मतदाताओं को आकर्षित करना है।
भाजपा के पास जगाधरी विधानसभा से कंवर पाल गुर्जर और 2019 के विधानसभा चुनाव में रणदीप सुरजेवाला को हराने वाले लीला राम गुर्जर जैसे प्रमुख गुर्जर उम्मीदवार हैं। कांग्रेस ने भी कालका विधानसभा से प्रदीप चौधरी और नारायणगढ़ विधानसभा सीट से शैली चौधरी जैसे प्रमुख गुर्जर नेताओं को मैदान में उतारा है।
समालखा निर्वाचन क्षेत्र में, जहां 20% के करीब गुर्जर आबादी है, दोनों पार्टियों ने गुर्जर उम्मीदवार उतारे हैं। भाजपा ने प्रमुख गुर्जर नेता और पूर्व मंत्री करतार सिंह भड़ाना के बेटे मनमोहन भड़ाना को चुना है, जबकि कांग्रेस ने भी गुर्जर समुदाय से ही धरम सिंह छोकर को चुना है। यह दोनों पार्टियों द्वारा रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण निर्वाचन क्षेत्रों में गुर्जर मतदाताओं के समर्थन का लाभ उठाने के प्रयासों को दर्शाता है।
हालांकि, टिकट वितरण से कई प्रमुख ओबीसी नेताओं को बाहर रखने से असंतोष पैदा हुआ है। 2019 के विधानसभा चुनाव में रादौर में कांग्रेस के बिशन लाल सैनी से हारने वाले भाजपा ओबीसी मोर्चा के अध्यक्ष करण देव कंबोज को इस बार टिकट नहीं दिया गया, जिसके परिणामस्वरूप उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दे दिया और कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की मौजूदगी में कांग्रेस में शामिल हो गए। यह कदम बड़े ओबीसी समुदायों को प्राथमिकता देने की भाजपा की मौजूदा रणनीति को रेखांकित करता है, जैसा कि कंबोज समुदाय को केवल एक टिकट आवंटित करने से स्पष्ट होता है, जबकि कांग्रेस ने कंबोज को दो टिकट दिए हैं।
भाजपा ने एक बार फिर फतेहाबाद और आदमपुर विधानसभा क्षेत्र से दो बिश्नोई उम्मीदवार दुरा राम और भव्य बिश्नोई को मैदान में उतारा है। वहीं, कांग्रेस ने केवल एक बिश्नोई उम्मीदवार चंद्र मोहन बिश्नोई को मैदान में उतारा है, जो पूर्व उपमुख्यमंत्री हैं और पंचकूला विधानसभा सीट से चुनाव लड़ रहे हैं।
इसके अलावा, भाजपा ने दो रोर उम्मीदवारों को मैदान में उतारा है – हरविंदर कल्याण घरौंडा विधानसभा से और सतपाल जांबा पुंडरी विधानसभा से। वहीं, कांग्रेस ने पुंडरी विधानसभा से सिर्फ़ एक रोर उम्मीदवार सुल्तान सिंह जडौला को मैदान में उतारा है, जहां रोर आबादी कुल मतदाताओं का लगभग 22% है।
1966 में गठन के बाद से हरियाणा का राजनीतिक परिदृश्य काफी हद तक जाति-आधारित आकार वेता रहा। शुरुआत में राज्य के नेतृत्व में विभिन्न समुदायों के नेता शामिल थे । ब्राह्मण समुदाय से भगवत दयाल शर्मा जो नवगठित राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने, अहीर समुदाय से राव बीरेंद्र सिंह और बिश्नोई समुदाय से भजन लाल।
हालांकि, इसके बाद के तीन दशकों में जाट नेताओं, जो राज्य की आबादी का लगभग 27% प्रतिनिधित्व करते हैं । उन्होंने राजनीतिक परिदृश्य पर अपना दबदबा बनाए रखा। बंसी लाल, देवी लाल, ओम प्रकाश चौटाला और भूपिंदर सिंह हुड्डा जैसे उल्लेखनीय जाट नेताओं ने इस अवधि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
इस दौरान, दो प्रमुख राजनीतिक दल, पहले लोक दल, फिर इंडियन नेशनल लोक दल (आईएनएलडी) और कांग्रेस पार्टी का नेतृत्व बड़े पैमाने पर जाट नेताओं द्वारा किया गया। दोनों दलों ने अन्य समुदायों के साथ गठबंधन बनाने की कोशिश की, जिसमें कांग्रेस ने अनुसूचित जातियों (एससी) के साथ गठबंधन बनाने में सफलता प्राप्त की, विशेष रूप से जाटव समुदाय, जो एससी के बीच एक प्रमुख जाति है। एससी राज्य की आबादी का लगभग 21% हिस्सा है।
2014 के लोकसभा चुनावों ने हरियाणा की राजनीतिक महत्वपूर्ण बदलाव देखा गया। जिसने भाजपा को अभूतपूर्व सफलता दिलाई। भाजपा, जिसने 2009 के संसदीय चुनावों में कोई सीट नहीं जीती थी। उसने 2014 के आम चुनावों में हरियाणा की दस संसदीय सीटों में से सात पर कब्ज़ा कर लिया। 2014 के संसदीय चुनावों में भाजपा ने सोनीपत निर्वाचन क्षेत्र जैसी कुछ जाट-प्रधान सीटों पर जीत हासिल की। यह उछाल केवल मोदी की लोकप्रियता के कारण नहीं था, बल्कि भाजपा ने रणनीतिक रूप से विभिन्न समुदायों के साथ नए गठबंधन बनाए थे।
पार्टी का लक्ष्य ब्राह्मण, बनिया, पंजाबी अरोड़ा और खत्री सहित ‘उच्च’ जातियों के साथ-साथ अहीर/यादव, गुर्जर और सैनी जैसे अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और वाल्मीकि और धानक जैसी उपजातियों से समर्थन जुटाना था, ताकि चमार समुदाय के प्रभाव का मुकाबला किया जा सके, जो परंपरागत रूप से कांग्रेस पार्टी का समर्थन करता रहा है। 2014 के विधानसभा चुनावों में, जो संसदीय चुनावों के कुछ ही महीनों बाद हुए थे। भाजपा ने इस रणनीति का लाभ उठाते हुए 47 सीटें जीतीं, जो 2009 के विधानसभा चुनावों में मिली मात्र चार सीटों से काफी ज्यादा थीं।
मनोहर लाल खट्टर जो पंजाबी हैं। उनको मुख्यमंत्री बनाए जाने के साथ ही “35 बिरादरी बनाम एक जाट बिरादरी” की नई राजनीतिक कहानी सामने आई। अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए भाजपा ने प्रभावशाली ओबीसी नेताओं को भी अपने पाले में शामिल किया, जैसे कि राव इंद्रजीत सिंह, जो एक प्रमुख अहीर/यादव नेता और पूर्व कांग्रेस सदस्य हैं।
गैर-जाट राजनीति पर भाजपा का फोकस 2019 के संसदीय चुनावों में और भी स्पष्ट हो गया, जब पार्टी ने जाट बहुल रोहतक सीट से ब्राह्मण उम्मीदवार अरविंद कुमार शर्मा को मैदान में उतारा और कांग्रेस के कद्दावर नेता दीपेंद्र सिंह हुड्डा को चुनौती दी। भाजपा की रणनीति कामयाब रही और शर्मा ने सीट जीत ली। इसी तरह, 2019 के विधानसभा चुनावों में भाजपा 40 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी।
आगामी विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा एक बार फिर ओबीसी वोटों को एकजुट करने पर ध्यान केंद्रित कर रही है। चुनाव से कुछ महीने पहले ही पार्टी ने अपने मुख्यमंत्री को बदलकर नायब सिंह सैनी को नियुक्त किया, जो सैनी समुदाय से आते हैं, जिनकी आबादी लगभग 5% है। इस कदम को ओबीसी वोट को एकजुट करने और खट्टर के खिलाफ सत्ता विरोधी भावनाओं को संबोधित करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। गैर-जाट वोट को एकजुट करने के पार्टी के प्रयास हाल ही में हुए टिकट वितरण में भी दिखाई दिए। जिससे एक बात साफ नजर आती है कि राज्य के ताकतवर जाट समुदाय की टिकट वितरण में भागेदारी करना बीजेपी के लिए मुश्किल भरा कदम हो सकता है।
जाट समुदाय कई कारणों से भाजपा से नाराज़ हैं। जिसमें भारतीय सेना में भर्ती के लिए अग्निपथ योजना, किसानों का विरोध और भारतीय कुश्ती महासंघ (डब्ल्यूएफआई) के पूर्व प्रमुख बृज भूषण शरण सिंह के खिलाफ पहलवानों का विरोध-प्रदर्शन। जाट भाजपा से इसलिए भी नाराज़ हैं क्योंकि भगवा पार्टी ने मनोहर लाल खट्टर की जगह किसी जाट को मुख्यमंत्री नहीं बनाया। हरियाणा में 37 विधानसभा सीटें हैं, जहां जाट समुदाय उम्मीदवारों की किस्मत का फैसला करता है। इनमें से 22 सीटें जाटलैंड, 8 बागड़ी, 4 जीटी रोड बेल्ट और 3 ब्रज में हैं। जाट बहुल 37 सीटों में से 30 सीटें रोहतक और हिसार प्रशासनिक संभाग में हैं। इन सीटों पर हरियाणा विधानसभा की 40 प्रतिशत सीटें हैं, जिससे हरियाणा चुनावों में जाट समुदाय काफ़ी प्रभावशाली है।
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