आम चुनाव 2024ः यूपी की लोकसभा सुरक्षित सीटों में है सत्ता के ताले की चाभी !

उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 17 सीटें ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। हालांकि, राज्य की करीब 40 सीटें ऐसी हैं, जहां की 25 फीसदी से ज्यादा आबादी अनुसूचित जाति की है।
NDA , INDIA व BSP की टक्कर.
NDA , INDIA व BSP की टक्कर.ग्राफ़िक: हस्साम ताजुब, द मूकनायक
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लखनऊ। पश्चिमी यूपी की नगीना लोकसभा सुरक्षित सीट से आजाद समाज पार्टी के अध्यक्ष व दलित नेता चंद्रशेखर आजाद के चुनावी ताल ठोकने के साथ ही जहां यह संसदीय क्षेत्र 'हॉट सीट' में शुमार हो गई है। वहीं बरबस ही चुनावी रसिकों का ध्यान प्रदेश की अन्य सुरक्षित लोकसभा सीटों (दलितों के लिए आरक्षित) के चुनावी गुणा गणित की ओर खिंचा चला गया है।

कहा जाता है कि सियासत में दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। इतिहास बताता है कि प्रदेश की सुरक्षित सीटों से निकला संदेश अन्य सीटों के परिणाम को भी प्रभावित करता है। सत्ता के शिखर तक पहुंचाने के लिए इन सीटी ने मजबूत सीढ़ियां तैयार करने का काम किया है। जिस दल ने इन सीटों का गणित समझ लिया, उसकी नैया पार हो गई। भाजपा ने इस फॉर्मूले को समझा और पिछले दो चुनावों में सबसे ज्यादा आरक्षित सीटों पर विजय पताका फहराई है।

इन जिलों में 25 फीसदी से अधिक दलित आबादी

उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में से 17 सीटें ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित हैं। हालांकि, राज्य की करीब 40 सीटें ऐसी हैं, जहां की 25 फीसदी से ज्यादा आबादी अनुसूचित जाति की है। इनमें वे सीटें भी शामिल हैं जो आरक्षित नहीं हैं, लेकिन उन पर जीत की चाबी दलितों के हाथ में है। सोनभद्र, सीतापुर, कौशांबी, हरदोई, उन्नाव, रायबरेली, औरया, झांसी, जालौन, बहराइच, चित्रकूट, महोबा, मीरजापुर, आजमगढ़, लखीमपुर खीरी, महामायानगर, फतेह पुर, ललितपुर, कानपुर देहात, अम्बेडकर नगर व बहराइच जिलों में दलित मतदाता निर्णायक भूमिका में हैं।

प्रदेश के बंटवारे से पहले यूपी में अनुसूचित वर्ग के लिए लोकसभा की (18) सीटों को आरक्षित किया गया था। उत्तराखंड बनने के बाद एक सीट कम हो गई और यूपी में कुल 17 सीटें बचीं। विभाजन के बाद वर्ष 2004 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा की मात्र तीन आरक्षित सीटों पर सफलता मिली। इसमें बसपा ने 5, कांग्रेस व अन्य ने 1- 1 सीट पर जीत हासिल की। वहीं सपा ने सबसे ज्यादा 7 सीटें जीत लीं। अहम बात यह है कि बंटवारे से ठीक पहले वर्ष 1999 में हुए लोकसभा चुनाव में भाजपा ने 7 आरक्षित सीटें जीती थीं। वहीं बसपा ने 5 सीटों पर जीत का परचम लहराया था। इन दोनों को ही वर्ष 2004 के चुनाव में तगड़ा झटका लगा। हालांकि सपा की दो सीटें बढ़ गई थीं।

पिछले चार लोकसभा चुनावों की बात करें, तो अब तक सबसे ज्यादा आरक्षित सीटें भाजपा ने जीती हैं। इन चार चुनावों को जोड़कर देखा जाए तो भाजपा ने कुल 37 सीटें जीतीं। बसपा ने 9, कांग्रेस ने 3, सपा ने 17 व दो अन्य ने इन सीटों पर जीत का परचम लहराया।

2014 में भाजपा ने जीती थीं सभी 17 सीटें

आंकड़ें बताते हैं कि जब भी भाजपा ने सुरक्षित सीटों पर बढ़त हासिल की, केंद्र में सरकार बनी। यही कारण है कि इन सीटों पर भाजपा ने विशेष काम किया। इसी का परिणाम रहा कि वर्ष 2014 में भाजपा ने प्रदेश की सभी 17 आरक्षित सीटों पर जीत का परचम लहरा दिया। पिछले चुनाव में उसे दो सीटों का नुकसान उठाना पड़ा और बसपा ने नगीना और लालगंज सीट उससे छीन ली। इस चुनाव में फिर से भाजपा ने इन सीटों पर अपनी पूरी ताकत लगाई है।

सामान्य जातियों के वोट यहां होते हैं निर्णायक

वैसे इन आरक्षित सीटों पर राजनीतिक दलों की रणनीति सामान्य सीटों से अलग होती है, क्योंकि इन सीटों पर उम्मीदवार भले अनुसूचित जाति का होता है, लेकिन जीत-हार लगभग सभी जातियों के वोट से तय होती है।

इस बारे में द मूकनायक को वरिष्ठ पत्रकार अम्बरीश कुमार ने बताया कि आरक्षित सीटों पर सभी उम्मीदवार अनुसूचित जाति के होते हैं। इसके चलते अनुसूचित जातियों के वोट यहां बंट जाते हैं। ऐसे में दूसरी जातियों के वोट निर्णायक हो जाते हैं। पहले देखा गया है कि जिस पार्टी की लहर होती है, आरक्षित सीटों पर अन्य जातियों के वोट भी उसी पार्टी के खाते में चले जाते हैं।

ऐसी स्थिति में आरक्षित सीटों पर गैर-अनुसूचित जातियों के वोटों को लेकर राजनीतिक पार्टियों की रणनीति थोड़ी अलग होती है। वे उम्मीदवारों के चयन में इस बात का खास ख्याल रखते हैं कि अपनी जाति के अलावा उनकी दूसरी जातियों में कितनी पैठ है।

वरिष्ठ पत्रकार इम्तियाज अहमद कहते हैं, आरक्षित सीटों पर अगड़ी जाति के वोटों का रुझान ही उम्मीदवार की जीत-हार तय करता है. यह देखा गया है कि आरक्षित सीटों पर अगड़ी जाति के मतदाताओं के पास विकल्प कम होते हैं. उनके लिए उम्मीदवार से ज्यादा पार्टी अहम होती है, जबकि सामान्य सीटों पर ऐसा नहीं होता।

द मूकनायक को लखनऊ विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर रविकांत ने बताया कि आरक्षित सीटों पर जिस प्रत्याशी की तैयारी अच्छी और बुनियादी मुद्दों की पकड़ होती है उसके जीत के आसार अधिक होते है। हालांकि यह भी सच है आरक्षित सीट पर दलित मतदाता निर्णायक भूमिका में नहीं होते है।

इसलिए अनुसूचित जातियों पर फोकस

सामाजिक न्याय समिति की 2001 की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश में दलित आबादी करीब 29.04 प्रतिशत है। भले ही प्रदेश में आरक्षित लोकसभा सीटों की संख्या 17 हो, दलित वोट बैंक विभिन्न सीटों पर निर्णायक स्थिति में है। यही कारण है कि सभी दलों का फोकस दलित जातियों के वोट बैंक को साधने पर होता है। हाल में ही रालोद और भाजपा के गठबंधन में भी इसका उदाहरण देखने को मिला। रालोद के कोटे से विधानसभा की पुरकाजी आरक्षित सीट के विधायक अनिल कुमार को कैबिनेट मंत्री बनाया गया। इसके सहारे रालोद भी एससी वर्ग में एक संदेश देना चाहता है। समाजवादी पार्टी अपने पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक (पीडीए) कार्ड पर लगातार काम रही है, तो भाजपा इसका खास ख्याल रखा है। बसपा तो शुरू से ही इस वर्ग पर फोकस करती रही है।

यह हैं लोकसभा की सुरक्षित सीटें

नगीना, बुलंदशहर, हाथरस, आगरा, शाहजहांपुर, हरदोई, मिश्रिख, मोहनलालगंज, इटावा, जालौन, कौशांबी, बाराबंकी, बहराइच, बांसगांव, लालगंज, मछलीशहर और रॉबर्ट्सगंज मौजूदा वक्त में रिजर्व सीटें हैं। बीते लोकसभा चुनाव में बीएसपी ने लालगंज और नगीना पर जीत दर्ज की थी। बाकी पर भाजपा जीती थी।

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