बिहार: आरक्षण कोटे पर मांझी और चिराग के बीच फंसा मैच, दलितों का रहनुमा बनने की होड़!

अनुसूचित जाति (एससी) में उपवर्गीकरण की अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बिहार में आरक्षण का मुद्दा ऐसा गरमाया हुआ है कि भाजपा के सहयोगी दल के नेताओं के बीच ही बहस छिड़ गई है. एक नेता सर्वोच्च न्यायलय के आदेश का स्वागत कर रहे हैं तो दूसरे को इसपर एतराज है.
लोजपा (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) के संस्थापक अध्यक्ष जीतनराम मांझी
लोजपा (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान और हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) के संस्थापक अध्यक्ष जीतनराम मांझीफोटो साभार- इंटरनेट
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नई दिल्ली: अनुसूचित जाति (एससी) आरक्षण के भीतर कोटे में कोटे को लेकर आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने पूरे देश में बहस छेड़ दी है। इसपर कई दलित नेताओं की सहमति है तो कई इस निर्णय को पुर्णतः गलत और भेदभावपूर्ण बता रहे हैं. ताजा मामले में बिहार के दो प्रमुख दलित नेताओं के बीच माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर दो अलग-अलग विचारधाराएं सामने आईं. करीब से इसे देखने पर पता चलता है कि यह सारा चक्कर दलित नेताओं द्वारा बिहार की 19.65 प्रतिशत दलित वोट बैंक को साधने की है। हर नेता इस निर्णय को अपने-अपने अनुसार इसकी लाभ और हानि पर बयान जारी कर दलितों के रहनुमा बनने की कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं.

लोजपा (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान, व हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा (सेकुलर) के संस्थापक अध्यक्ष जीतनराम मांझी और राजद के शिवचंद्र राम अपने-अपने तरीके से वोट की गोलबंदी में जुट गए हैं। हालांकि, इनमें कोर्ट के फैसले पर बीजेपी और जेडीयू ने खामोश है।

राजनीतिक जानकारों के अनुसार, दलित नेता स्वर्गीय रामविलास पासवान के जाने के बाद बिहार की दलित राजनीति में एक बड़ा गैप आ गया था। राज्य में दलित नेता तो हैं लेकिन उनमें दलित वोट ट्रांसफर कराने की क्षमता नहीं है। 90 के दशक में राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद यादव की अच्छी पकड़ थी। लेकिन बाद में मायावती की बसपा और स्वर्गीय रामविलास पासवान की लोजपा बनने के बाद दलित राजनीति को एक अलग राह मिली। बिहार में, जातीय जनगणना के अतिपिछड़ा-पिछड़ा के बाद तीसरा बड़ा वोट बैंक दलित यानि 19.65 प्रतिशत वोट का आधार बन गया है। अब इस आधार वोट को साधने के लिए दलित नेता जुट चुके हैं.

लोजपा (रामविलास) के अध्यक्ष चिराग पासवान SC-ST आरक्षण में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले का समर्थन नहीं करते दिख रहे हैं। सर्वोच्च न्यायालय के अनुसूचित जाति-जनजाति के आरक्षण में कोटे में कोटा और इसमें क्रीमी लेयर संबंधी निर्णय का समर्थन देने से साफ इंकार भी करते हैं। वे चाहते हैं कोर्ट को इस फैसले पर पुनर्विचार करना चाहिए ताकि एससी-एसटी वर्ग में भेदभाव पैदा नहीं हो और समाज को कमजोर न किया जा सके।

वहीं दूसरी ओर, केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी न्यायालय के फैसले को दलित के हित में बताते हैं। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि ये फैसला 10 साल पहले आना चाहिए था। आज आरक्षण से जुड़े फैसले को चुनौती देने वाले या पक्ष में नहीं रहने वाले वही लोग हैं, जिन्होंने 76 वर्ष तक इसका लाभ लिया है। उन्होंने कई सवाल चिराग पासवान की सोच के विरुद्ध खड़े किए। जैसे-

  • पिछले 76 साल से आरक्षण का फायदा चार ही जातियां क्यों उठा रही है?

  • भुइयां, मुसहर, मेहतर जैसी जातियों के कितने आईएएस-आईपीएस हैं?

  • मुसहर, भुइयां, मेहतर जैसी जातियों के कितने कितने चीफ इंजीनियर हैं?

  • मेहतर, भुइयां, नट जैसी जातियों की साक्षरता दर बहुत नीचे है, उसे आगे बढ़ाने की जरूरत है।

एक अन्य नेता, राजद अनुसूचित जाति प्रकोष्ठ के प्रदेश अध्यक्ष और पूर्व मंत्री शिवचंद्र राम कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर कुछ भी टिप्पणी गलत है। इसलिए उस फैसले पर मैं कुछ नहीं कहूंगा। मगर, एक राजनीतिज्ञ की हैसियत से मेरा मानना है कि आरक्षण का आकलन आर्थिक आधार पर नहीं होना चाहिए। संविधान निर्माताओं ने सामाजिक आधार पर आरक्षण की व्यवस्था की थी। राजनीति से प्रेरित लोग इसे दुर्भाग्य से आर्थिक आधार पर समीक्षा कर रहे हैं।

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