नई दिल्ली। आरक्षण के मुद्दे पर बिहार की नीतीश सरकार को पटना हाईकोर्ट से बड़ा झटका लगा है। बिहार सरकार द्वारा जातिगत जनगणना के आधार पर आरक्षण में बदलाव किया गया था। वहीं इस नए आरक्षण को लेकर लोगों ने पटना हाईकोर्ट में याचिका दाखिल कर दी। जिसके बाद हाईकोर्ट ने संविधान के नियमों और कानूनों का हवाला देते हुए लागू किया गया जनसंख्या आधारित आरक्षण रद्द कर दिया।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की महागठबंधन सरकार ने जातीय आधारित गणना की रिपोर्ट के आने के बाद आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया था। आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों (सवर्ण) को मिलने वाले 10 प्रतिशत आरक्षण को मिलाकर बिहार में नौकरी और दाखिले का कोटा बढ़ाकर 75 प्रतिशत पर पहुंच गया था।
वहीं जानकारों का कहना है कि यदि इस नए आरक्षण को लागू करने से पहले ही संविधान की नौंवी अनुसूची में दाल दिया जाता, तो इस कानून को न्यायपालिका में चुनौती नहीं दी जा सकती थी। तमिलनाडू सहित अन्य कई राज्यों में बढ़ा हुआ आरक्षण इसी की देन है।
दरअसल, बिहार के नए आरक्षण कानून को लेकर कई संगठनों ने पटना उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। याचिका दर्ज करने वाले एक संगठन के वकील गौरव कुमार ने बताया कि पटना उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की बेंच ने बिहार आरक्षण कानून को संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 के खिलाफ बताते हुए इसे रद्द कर दिया है। उन्होंने कहा कि याचिका में यह भी कहा गया था कि सीमा बढ़ाने का निर्णय हड़बड़ी में लिया गया। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भी कई मामलों में ऐसा निर्णय दिया गया है।
बिहार में पदों एवं सेवाओं की रिक्तियों में आरक्षण के प्रावधान में साल 2023 में परिवर्तन की गयी थी। इसके तहत आरक्षण के प्रावधान को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया गया था। इसमें आर्थिक तौर पर पिछड़े वर्ग के कोटे को अगर जोड़ दिया जाए तो यह प्रतिशत 75 तक पहुंच जाता है। बिहार विधानसभा में 9 नवंबर को इसे लेकर विधेयक लाया गया था जो दोनों ही सदनों में पारित हो गया था। राज्यपाल की मंजूरी के बाद यह कानून बन गया था।
याचिकाकर्ता के वकील दीन बाबू ने बताया कि पटना हाईकोर्ट ने आरक्षण का दायरा 50 प्रतिशत से 65 प्रतिशत बढ़ाने का फैसला रद्द कर दिया है। अदालत ने कहा कि जनसंख्या के आधार पर आरक्षण का दायरा नहीं बढ़ाया जा सकता। ऐसा करना संविधान के आर्टिकल 14 का उल्लंघन होगा। दीन बाबू ने बताया कि जातीय जनगणना के बाद आरक्षण को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया गया, जबकि सामान्य श्रेणी के लोगों पर केंद्र सरकार ने पहले ही 10 प्रतिशत का आरक्षण लागू किया है। इसके चलते राज्य में आरक्षण का दायरा 75 प्रतिशत हो गया, जबकि बचे हुए 25 प्रतिशत में सभी वर्ग के लोग सरकारी नौकरी के लिए आवेदन कर सकते हैं जो कि न्यायसंगत नहीं है।
बिहार में सरकार द्वारा 65 प्रतिशत आरक्षण देने की कोशिश को अदालत ने खारिज कर दिया है। जबकि तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण पिछले 35 सालों से लोगों को मिलता रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने साल 1992 में इंदिरा साहनी मामले में फैसला सुनाते हुए आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत तक ही सीमित रखने का फैसला लिया था। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद तमिलनाडु सरकार ने राज्य की विधानसभा में प्रस्ताव पारित कर इस मामले को संविधान की नौवीं अनसूची में डालने का प्रस्ताव केंद्र के पास भेजा था। तमिलनाडु की जयललिता सरकार के प्रस्ताव को स्वीकारते हुए केंद्र की नरसिंह राव सरकार ने तमिलनाडु के आरक्षण कानून को संविधान की नौवीं अनुसूची में भेज दिया। संविधान की नौवीं अनुसूची में जिस कानून को रखा जाता है उसकी समीक्षा का अधिकार न्यायपालिका को नहीं है।
संविधान की नौंवी अनुसूची में केंद्रीय और राज्य कानूनों की एक सूची है जिसे न्यायालयों में चुनौती नहीं दी जा सकती है जिसे संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा जोड़ा गया था। पहले संशोधन में अनुसूची में 13 कानूनों को जोड़ा गया था। बाद के विभिन्न संशोधनों सहित वर्तमान में संरक्षित कानूनों की संख्या 284 हो गई है। यह नए अनुच्छेद 31B के तहत बनाया गया था, जिसे अनुच्छेद 31A के साथ सरकार द्वारा कृषि सुधार से संबंधित कानूनों की रक्षा करने और ज़मींदारी प्रथा को समाप्त करने हेतु लाया गया था।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973): सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ मामले में निर्णय को बरकरार रखा तथा "भारतीय संविधान की मूल संरचना" की एक नई अवधारणा पेश की और कहा कि, "संविधान के सभी प्रावधानों में संशोधन किया जा सकता है लेकिन यह उन संशोधनों को संविधान के बुनियादी ढाँचे से हटा देगा, जिसमें मौलिक अधिकार शामिल हैं, न्यायालय द्वारा खारिज किये जाने के योग्य हैं।"
वामन राव बनाम भारत संघ (1981): इस महत्त्वपूर्ण निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि "वे संशोधन जो 24 अप्रैल, 1973 (जिस पर केशवानंद भारती मामले में निर्णय दिया गया था) से पहले संविधान में किये गए थे, वैध और संवैधानिक हैं, लेकिन जो निर्दिष्ट तिथि के बाद बनाए गए थे, उन्हें संवैधानिकता के आधार पर चुनौती दी जा सकती है।
आई आर कोल्हो बनाम तमिलनाडु राज्य (2007): यह माना गया था कि 24 अप्रैल, 1973 के बाद लागू होने पर अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत हर कानून का परीक्षण किया जाना चाहिये। इसके अतिरिक्त न्यायालय ने अपने पिछले निर्णयों को बरकरार रखा और घोषित किया कि किसी भी अधिनियम को चुनौती दी जा सकती है तथा यदि यह संविधान की मूल संरचना के अनुरूप नहीं है तो न्यायपालिका द्वारा जाँच के लिये खुला है। इसके अलावा यह भी कहा गया कि यदि नौवीं अनुसूची के तहत किसी कानून की संवैधानिक वैधता को पहले बरकरार रखा गया है, तो भविष्य में इसे फिर से चुनौती नहीं दी जा सकती है।
बिहार सरकार की मांग रही है कि बिहार के आरक्षण कानून को संविधान की 9वीं अनुसूची में डाल दिया जाए। हालांकि 9वीं अनुसूची की न्यायपालिका समीक्षा कर सकती है या नहीं इसे लेकर विधायिका और न्यायपालिका में टकराव रहा है।
बिहार सरकार द्वारा कराए गए जाति आधारित गणना के अनुसार राज्य की कुल आबादी में ओबीसी और ईबीसी की हिस्सेदारी 63 प्रतिशत है, जबकि एससी और एसटी की कुल आबादी 21 प्रतिशत से अधिक है। सरकार का मानना है कि आरक्षण को लेकर उच्चतम न्यायालय की 50 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन केंद्र द्वारा ईडब्ल्यूएस के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण लागू किये जाने के कारण पहले ही हो चुका है। इसलिए राज्य सरकार अपने आरक्षण कानूनों में संशोधन लेकर आई, जिसके तहत दलित, आदिवासी, अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) एवं ईबीसी (आर्थिक रूप से कमजोर) वर्ग के लिए कोटा 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 प्रतिशत कर दिया गया।
कानूनन देश में आरक्षण की सीमा 50 फीसदी से ज्यादा नहीं हो सकती है। अभी देश में 49.5 फीसदी आरक्षण है। ओबीसी को 27%, अनुसूचित जातियों (एससी) को 15% और अनुसूचित जनजातियों (एसटी) को 7.5% आरक्षण की व्यवस्था है। इनके अलावा आर्थिक रूप से कमजोर सामान्य वर्ग के लोगों को 10% आरक्षण दिया जाता है।
बिहार में आरक्षण की सीमा को 50 प्रतिशत से बढ़ाकर 65 फीसदी करने को नीतीश सरकार के फैसले को पटना हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया है। जिसके बाद से ही राज्य की सियासत गरमा गई है। वहीं अब इस मामले में राजद ने सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे को खटखटाने की बात की है। राजद के राज्यसभा सांसद मनोज झा ने इस मामले को लेकर कहा है कि कोर्ट का फैसला दुर्भाग्यपूर्ण है, औऱ वो और ज्यादा सबूत इकठ्ठा कर सुप्रीम कोर्ट में जाएंगे।
झा ने कहा कि बिहार में सीएम नीतीश और तेजस्वी यादव के कार्यकाल में जो आरक्षण के दायरे को बढ़ाया गया था, उस पर जो रोक लगी है, दुर्भाग्यपूर्ण है। ऐसे फैसले फासले बढ़ाते हैं। तमिलनाडु को बहुत वर्ष संघर्ष करना पड़ा था। हम भी करेंगे।
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