गुजरात के पाटन जिले की सिद्धपुर तहसील में पड़ने वाले सिद्धराणा गांव में हम राकेश चंद्र प्रियदर्शी से मिले. बातचीत के सिलसिले में राकेश हमें छह साल पुरानी एक घटना बताते हैं. वे अपने घर पर ही थे. सुबह सात बजे कुछ लोग उनके घर के दरवाजे पर दस्तक देते हैं. राकेश ने दरवाजा खोला तो सामने गांव के ही कुछ लोग खड़े थे. उन्होंने राकेश को निमंत्रण देते हुए कहा, “शाम को महादेव की पूजा के लिए भंडारा है. तुम्हारे समाज के लोगों के लिए भी भंडारे में भोजन का प्रबंध किया गया है. वहां बैठने के लिए अलग व्यवस्था रहेगी.”
यह जानकारी इसलिए दी गई क्योंकि राकेश अनुसूचित जाति से आते हैं और निमंत्रण देने वाले सवर्ण, पिछड़ा वर्ग के लोग थे.
भंडारे की व्यवस्था में अलग से बैठने की बात सुनकर राकेश आने में असमर्थता जताते हैं. राकेश सरकारी टीचर हैं. राकेश के विरोध और उनके पद की प्रतिष्ठा को देखते हुए कथित उच्च जाति के लोगों ने उन्हें और उसके परिवार को अपने साथ भंडारे में बैठाने की बात कही. इस पर राकेश ने कहा, “अगर मैं आपके साथ बैठूंगा तो मेरा समाज मेरे साथ नहीं बैठेगा. आपको सबको एक साथ बैठाना होगा.”
इस पर निमंत्रण देने आए सारे लोग एकसुर से विरोध करते हैं. कोई सहमति नहीं बनती. अंत में राकेश और उनकी जाति के 125 लोगों ने कार्यक्रम में नहीं जाने की घोषणा कर दी.
राकेश हमें बताते हैं, “गुजरात में कभी हमारे समाज के लोगों को सार्वजनिक स्थान पर पानी पीने के लिए मार दिया जाता है तो कभी शादी समारोह में घुड़चढ़ी करने पर रोका दिया है. उस समय आए दिन ऐसी घटनाएं हो रही थीं. इससे आजिज़ आकर मेरे जिले के लगभग 400 लोगों ने 14 अप्रैल, 2023 को धर्म परिवर्तन कर लिया. सबने बौद्ध धर्म अपना लिया. उस समय पूरे गुजरात में हमारे समाज के लगभग 50 हजार लोगों ने बौद्ध धर्म अपनाया था.”
हाल ही में गुजरात सरकार के गृह विभाग ने एक आदेश जारी किया है. इस आदेश के मुताबिक़, धर्म परिवर्तन के लिए व्यक्ति को जिलाधिकारी को लिखित आवेदन कर अनुमति लेनी होगी. दलित समाज सेवक चंद्रमणि बताते हैं, “यह कोई नया आदेश नहीं है. इसके लिए साल 2003 में सरकार ने कानून बनाया गया था. इस नियम के अनुसार, जिलाधिकारी कार्यालय में आवेदन करने के बाद ही लोग धर्म परिवर्तन कर सकते हैं. 14 अप्रैल, 2023 को लगभग पचास हजार लोगों ने धर्म परिवर्तन कर बौद्ध धर्म को अपनाया था. यह सब लोग गुजरात के अलग-अलग जिलों से थे. जिन्होंने अपने जिलों में धर्म परिवर्तन के लिए आवेदन किया था.”
गुजरात में हो रहे जातीय भेदभाव की पुष्टि करते हुए राजकोट जिले के रहने वाले राकेश कहते हैं, “मैंने भी 14 अप्रैल 2023 को अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ बौद्ध धर्म अपनाया है. मेरे साथ मेरे भाई, उनकी पत्नी और दो बच्चों ने भी धर्म परिवर्तन किया है. मैंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि हमारी जाति के लोगों के साथ भेदभाव बढ़ा है. हमें शादियों में बरात निकालने से रोका जाता है. मूंछ रखने पर पिटाई कर दी जाती है.”
केंद्रीय गृह मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, गुजरात में 2009 से 2022 तक एससी के खिलाफ अत्याचार के कुल 17,022 मामले दर्ज किए गए. इन वर्षों में, सबसे अधिक मामले-1477-2017 में दर्ज किए गए, इसके बाद 2018 में 1,426 और 2019 में 1,416 मामले दर्ज किए गए. सबसे कम-1,008-मामले 2010 में दर्ज किए गए.
एससी-एसटी अत्याचारों के लिए दो साल से नहीं हुई बैठक, सदन में भी उठा था मुद्दा
इसी साल फरवरी में गुजरात कांग्रेस अनुसूचित जाति विभाग के अध्यक्ष हितेंद्र पिथड़िया ने विधानसभा में सवाल उठाते हुए कहा था, “अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति समुदायों के लोगों के खिलाफ होने वाले अत्याचारों की जांच के लिए गुजरात सरकार द्वारा गठित सतर्कता और निगरानी समिति ने पिछले दो वर्षों में एक भी बैठक नहीं की है.”
गुजरात कांग्रेस अनुसूचित जाति विभाग के अध्यक्ष हितेंद्र पिथड़िया ने आरोप लगाया कि भाजपा के नेतृत्व वाली गुजरात सरकार दलितों और आदिवासियों के खिलाफ अपराधों के बारे में "गंभीर नहीं" है.
गुजरात में पिछले लंबे वक्त से भाजपा सत्ता पर काबिज है. कच्छ लोकसभा पर भी पिछले सात बार से (1996-2019 तक) भाजपा का उम्मीदवार ही जीतता आया है. पिछले चुनाव में यहां से भाजपा के विनोद चावड़ा को 3 लाख से ज्यादा वोटों से जीत हासिल की. इस बार भी भाजपा ने चावड़ा को ही टिकट दिया है. वहीं, कांग्रेस ने नितिशभाई लालन को प्रत्याशी घोषित किया है.
गुजरात केवल सामाजिक ही नहीं बल्कि अपनी भौगोलिक परस्थितियों के लिहाज से भी चुनौतियों से भरा हुआ है.
जातीय समीकरण के लिहाज से गुजरात की कच्छ लोकसभा देश की तीसरी सबसे बड़ी लोकसभा मानी जाती है. यह अनुसूचित जाति के लिए लोकसभा की आरक्षित सीट है. क्षेत्रफल के लिहाज से कच्छ देश का सबसे बड़ा जिला है. कच्छ जिले की करीब 75 फीसदी आबादी हिंदू है. जबकि 21 फीसदी मुसलमान यहां रहते हैं. हिंदू आबादी में पाटीदार समुदाय इस क्षेत्र में निर्णायक भूमिका है. यह लोकसभा क्षेत्र मुख्य रूप से कच्छ जिले में आता है जबकि राजकोट जिले के अंतर्गत भी इसके हिस्से आते हैं.
2011 की जनगणना के मुताबिक, यहां की आबादी 24,54,299 है. इसमें 59.9% ग्रामीण और 40.1% शहरी आबादी है. 2011 की जनगणना के मुताबिक, कच्छ में अनुसूचित जाति के 12.37 प्रतिशत और अनुसूचित जनजाति के1.05 प्रतिशत परिवार ही थे.
इस क्षेत्र में 2001-2011 में जनसंख्या वृद्धि दर 32.16% थी. जबकि लिंगानुपात प्रति 1000 पुरुषों पर 908 महिलाओं का था. 2011 में इस जिले में साक्षरता दर 71.58% था. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, कच्छ के शहरी इलाकों में लगभग 34.81% आबादी ही रहती थी. साल 2019 में यहां कुल 19,49,895 मतदाता थे.
कच्छ, गुजरात प्रान्त में 45,674 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला भारत का सबसे बड़ा जिला भी है. इस जिले का मुख्यालय भुज है. जखाऊ, कांडला और मुन्द्रा यहां की मुख्य बंदरगाहें हैं. इन बंदरगाहों पर पर्याप्त मात्रा में काम है. इसके बावजूद लोगों को दो वक्त की रोटी जुटाने के लिए मशक्क्त करनी पड़ती है.
गुजरात के गांधीधाम इलाके के कांडला पोर्ट के किनारे बस्ती में रहने वाले घनश्याम पोर्ट पर काम करते हैं. घनश्याम को हफ्ते में दो दिन काम से छुट्टी लेनी पड़ती है क्योंकि पानी इन्हीं दो दिन आता है. इतना ही नहीं पानी भरने के लिए भी उन्हें सुबह जल्दी उठकर लाइन में लगना होता है तब कहीं जाकर शाम तक उनका नंबर आता है. यहां मौजूद हर घर का हाल घनश्याम जैसा ही है.
घनश्याम जैसे लगभग पांच हजार से ज्यादा लोग इस परेशानी से सप्ताह में दो बार जूझते हैं. गुजरात के कच्छ से सटे सभी इलाकों में यही हाल है. समुद्री किनारा होने के कारण पीने वाले पानी की समस्या बहुत अधिक है.
घनश्याम अपनी पीड़ा बताते हुए कहते हैं, “सरकार अच्छा काम कर रही है. जो वह कहती है वह करती नहीं है. इस क्षेत्र में बहुत सी समस्याएं हैं. इस पानी को ही देखो तीसरे दिन आता है. मोदी जी कहते हैं कि हर घर में पानी नल से आएगा लेकिन हमें पानी के लिए काफी मेहनत करनी पड़ती है. प्रधानमंत्री आवास योजना का लाभ भी नहीं मिला है. समस्याएं होने के कारण बच्चों को भी गांव भेज दिया है. काम की वजह से यहां रहना पड़ता है.”
बीते अक्टूबर 2022 में गुजरात को सौ फीसदी ‘हर घर जल’ राज्य घोषित किया जा चुका है. राज्य के गृह मंत्री हर्ष संघवी ने ट्वीट कर इसकी जानकारी दी थी. उन्होंने अपने आधिकारिक ट्विटर अकाउंट पर लिखा, “नववर्ष के पावन अवसर पर एक और उपलब्धि. गुजरात को 100% #HarGharJal राज्य घोषित किया गया.”
गृह मंत्री हर्ष सिंघवी ने एक अन्य ट्वीट में लिखा था, “पानी के क्षेत्र में गुजरात आत्मनिर्भर बन चुका है. पानी जीवन का आधार है, पानी की एक-एक बूंद की कीमत गुजरातियों से ज्यादा शायद ही कोई जानता होगा. महिलाओं के जीवन को परिवर्तित करने से लेकर, हर घर नल की जरूरतों को पूरा करके दिखाया है, मोदी सरकार ने.”
गौरतलब है कि जून 2021 में राष्ट्रीय जल जीवन मिशन के तहत गुजरात को केंद्र सरकार ने पहली किस्त के रूप में 852.65 करोड़ रुपये जारी किए थे. वर्ष 2021-22 के लिए केंद्र में जल जीवन मिशन के तहत 3411 करोड़ रुपये गुजरात को आवंटित हुए थे.
मार्च 2022 तक 10 लाख घरों को नल से जल योजना से जोड़ने की योजना थी. इस योजना के तहत 2019-20 में 390 करोड़ 2020-21 में 883 करोड़ रुपये आवंटित किए गए थे. वर्ष 2021-22 के लिए केंद्र ने गुजरात के लिए करीब 3411 रुपये का प्रावधान किया था, जिसकी पहली किस्त के रूप में 852.65 करोड़ रुपये आवंटित कर दिए गए थे.
कच्छ में बनने वाला नमक देश की करीब 75 फीसदी नमक की जरूरत को पूरा करता है. वहीं, इस नमक को तैयार करने वाले खेतों में काम करने वाले अगड़िया समुदाय के नमक मजदूरों के जीवन में बहुत अधिक तरक्की नहीं हो सकी है. नमक के खेतों में काम करने वाले मजदूर जिंदगी भर नमक बनाते हैं और अंत में मौत के बाद इन्हें नमक में ही दफन कर दिया जाता है.
नमक में जीवन भर काम करने वाले मजदूरों की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि नमक में लगातार काम करने के कारण इनकी टांगे असामान्य रूप से पतली हो जाती हैं. लगातार नमक में काम करने वाले इन मजदूरों के पैर की हड्डियां इस कदर सख्त हो जाती हैं कि मौत के बाद चिता की आग भी उन्हें जला नहीं पाती. चिता की आग बुझने के बाद इनके परिजन इनकी टांगों को इकट्ठा करते हैं और नमक की बनाई गई कब्र में दफन कर दिया जाता है.
कच्छ जिला मुख्यालय से 150 किलोमीटर दूर स्थित सूरजबारी अरब सागर से मात्र दस किलोमीटर की दूरी पर है. अगड़िया समुदाय के लोग यहां सदियों से रह रहे हैं और जीविका के रूप में उन्हें केवल नमक बनाना ही आता है. यहां का भूजल समुद्री जल के मुकाबले दस गुना अधिक नमकीन है. इस भूजल को नलकूपों से निकाला जाता है और उसके बाद उस पानी को 25X25 मीटर के छोटे-छोटे खेतों में भर दिया जाता है. जब सूरज की किरणों इस पानी पर पड़ती हैं तो यह धीरे-धीरे सफेद नमक में बदल जाता है.
गुजरात में इन मजदूरों के लिए काम करने वाले आगडिया हित मंच के मुताबिक़, “अगड़िया मजदूर हर 15वें दिन इन खेतों से 10 से 15 टन नमक बनाते हैं. इसके बाद इस नमक को ट्रकों और ट्रेनों में भरकर देशभर की नमक कंपनियों और रसायन फैक्टरियों को भेजा जाता है. प्रत्येक परिवार ऐसे 30 से 60 खेतों की देखभाल करता है.”
भीषण पर्यावरणीय परिस्थितियों के बावजूद एक मजदूर प्रति टन 70 रुपए ही कमा पाता है. इस इलाके में दिन का तापमान 40 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है और रात में यही तापमान गिरकर पांच डिग्री सेल्सियस पर आ जाता है. मानसून के चार महीनों के दौरान सूरजबारी जलमग्न हो जाता है और समुदाय के लोग बेरोजगार हो जाते हैं.
अगडिया हित मंच के अध्यक्ष हर्नेश पांड्या बताते हैं, “आठ महीना यह परिवार रण में रहता है. उसमें रहकर वह अपने खाना बनाने से लेकर रहने की व्यवस्था करते हैं. यह लड़ाई सिर्फ उनके दो वक्त की रोटी के लिए है. यह नमक इन मजदूरों की मेहनत नहीं उनके आंसुओं से तैयार होता है. जिसे पूरा देश खाता है. यह नमक बनाने के लिए कंडेसर पौंड में समुद्र का पानी इकट्ठा किया जाता है. सूरज की गर्मी और हवा से यह पानी सूखता है और जटिल हो जाता है. जहां पर नमक के कण बनते हैं. इस नमक को बनाने के लिए इन मजदूरों को सुबह शाम आठ घंटा काम करना पड़ता है. सुबह और शाम चार-चार घंटे दंताडा (पंजेनुमा औजार) चलाते हैं. ताकि नमक की परत न जमने पाए लेकिन नमक के दाने बने रहे. पूरे बदन को तोड़ देने वाली इस मेहनत के बाद नमक तैयार होता है.'
अगाड़िया हित मंच के अध्यक्ष हर्नेश पांड्या बताते हैं, “इन मजदूरों के लिए हमारी संस्था खाने, दवा सहित अन्य सामग्री के लिए व्यवस्था करती है. हाल ही में गुजरात के वन विभाग ने कच्छ के छोटे रण में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया है. इससे नमक में काम करने वाले 1,200 से अधिक अगाड़िया/नमक किसानों की आजीविका छिन गई है. यह सभी चुनवलिया कोली, सांधी, मियाना जैसे समुदायों का हिस्सा हैं. सभी गैर-अधिसूचित जनजातियां, ज्यादातर भूमिहीन हैं और अपनी रोटी के लिए पूरी तरह से नमक पर निर्भर हैं.”
छोटे रण में प्रवेश की अनुमति न देकर, वन विभाग ने इन समुदायों को हाशिये पर और संभवतः भुखमरी की ओर धकेल दिया है. गुजरात भारत के कुल नमक उत्पादन का 76% से अधिक उत्पादन करता है. अगरिया, गुजरात के पारंपरिक नमक किसान, लिटिल रण में नमक की खेती कर रहे हैं, जो कुल उपज का लगभग 20% योगदान देता है. उनके पास लिटिल रण में नमक की कटाई का 600 साल का इतिहास है.
अगाड़िया जाति के लोग सितंबर के महीने में अपने परिवार के साथ छोटे रण में चले जाते हैं और उनकी खेती का मौसम अप्रैल या मई तक जारी रहता है. लिटिल रण कच्छ, पाटन, मोरबी और सुरेंद्रनगर जिलों के बीच 5,000 वर्ग किमी का क्षेत्र है, जो साल के चार महीनों के लिए जलाशय और 8 महीनों के लिए कीचड़युक्त शुष्क रेगिस्तान में बदल जाता है. दिन के दौरान तापमान 50 डिग्री सेंटीग्रेड तक बढ़ जाता है, जबकि रात के दौरान यह 4 या 5 डिग्री तक गिर जाता है. वे हमारे भोजन में स्वाद जोड़ने के लिए चिलचिलाती गर्मी और कंपकंपाती ठंड में कड़ी मेहनत करते हैं. लिटिल रण को 1973 में जंगली गधा अभयारण्य घोषित किया गया था. यहां जंगली गधों को बहुत अच्छी तरह से संरक्षित किया गया है और पिछले 50 वर्षों में इनकी आबादी 6,000 से अधिक हो गई है.
अगाड़िया हित मंच के मुताबिक, सरकार वन्य जीवन संरक्षण अधिनियम के प्रावधान के अनुसार अगाड़िया और अन्य समुदायों के अधिकारों का सर्वेक्षण और निपटान करने में विफल रही है, जिसके कारण उन्हें अभी भी "अवैध" अतिक्रमणकारी कहा जाता है. मजदूर और उनके परिवारों को समय-समय पर बेदखली के नोटिस दिए जाते हैं. ऐसी गैर-मान्यता प्राप्त स्थिति से समुदाय में बेदखली और आजीविका के नुकसान का खतरा पैदा होता है.
पिछले साल, अगाड़ियों को छोटे रण के कुछ हिस्सों से बेदखल कर दिया गया था. अभयारण्य विभाग ने घोषणा की कि केवल उन्हीं अगाड़ियाओं को अनुमति दी जाएगी जिनका नाम सर्वेक्षण और निपटान रिपोर्ट में शामिल है. इसका परिणाम यह हुआ कि 90% पारंपरिक अगाड़ियाओं का बहिष्कार हो गया. जिसके बाद अभयारण्य विभाग ने जमीन के कब्जे के दस्तावेजी सबूत मांगे थे. तथ्य यह है कि लिटिल रण हमेशा से एक सर्वेक्षण रहित भूमि रही है, और यहां तक कि सरकार के पास इस क्षेत्र का राजस्व रिकॉर्ड भी नहीं है, अगाड़ियाओं पर उनके स्वामित्व या भूमि के कब्जे के दस्तावेजी सबूत पेश करने के लिए दबाव डालते समय इसे नजरअंदाज कर दिया गया था.
अगाड़िया हित मंच के मुताबिक, कुछ महीने पहले 4 जिलों और 7 तालुकाओं के अगाड़िया एकजुट हुए और अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों और जिला और राज्य स्तर पर प्रशासन को कई बार गुहार लगाई. वे अपने विधायकों और संबंधित मंत्रियों से मिलने लगे. उन्होंने राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) और उच्च न्यायालय का भी दरवाजा खटखटाया, जहां लिटिल रण से संबंधित मामलों की सुनवाई की जा रही थी. बीते 4 सितंबर 2023 को राज्य द्वारा एक निर्णय लिया गया कि सभी पारंपरिक अगाड़ियाओं को साधारण पंजीकरण पर नमक कटाई जारी रखने की अनुमति दी जाएगी. जिसका सत्यापन ऑन-साइट सर्वेक्षण के दौरान किया जाएगा. यह भी निर्णय लिया गया कि ऑन-साइट सर्वेक्षण करके सर्वेक्षण और निपटान प्रक्रिया सूची को संशोधित किया जाएगा ताकि मौसमी उपयोगकर्ता अधिकारों को स्थायी आधार पर मान्यता दी जा सके.
अगाड़िया हित मंच के मुताबिक, “पंजीकरण प्रक्रिया सभी ब्लॉकों में की गई और सितंबर में कई अगाड़िया छोटे रण में चले गए. जिसके बाद बिना किसी कारण से उन्हें संतलपुर और अडेसर क्षेत्र के अगाड़ियाओं को लिटिल रण जाने से रोक दिया गया. उनसे कहा गया कि इसका निर्णय जल्द ही लिया जाएगा. वन विभाग के मुताबिक, सूची को सत्यापित करने और अंतिम रूप देने के लिए समय लगने की बात कही गई. हालांकि, वन विभाग ने अभी भी हमें रण क्षेत्रों में प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी है. जिसके कारण इन मजदूरों के पास आजीविका का कोई अन्य स्रोत नहीं है और आज घर पर ही बैठे हैं.
नारूभाई 6 पीढ़ियों से नमक की खेती कर रहे हैं. सरकार के इस दोहरे और चयनात्मक रवैये से निराश हैं. वह कहते हैं, “हम अपने विधायक और वन विभाग दोनों को बार-बार गुहार लगा रहे हैं. हालांकि, उन्होंने नमक खेतों को तैयार करने की भी अनुमति नहीं दी. जब पूरे लिटिल रण के लिए फैसला हो गया तो हमें समझ नहीं आता कि ऐसा भेदभाव सिर्फ हमारे साथ ही क्यों किया जाता है?”
नोट: यह रिपोर्ट 'एनएल-टीएनएम इलेक्शन फंड' के हिस्से के रूप में प्रकाशित की गई है. न्यूज़लॉन्ड्री और मूकनायक एक साझेदार के रूप में आप तक यह रिपोर्ट लाएं हैं. मूकनायक को समर्थन देने के लिए यहां क्लिक करें.
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