राजस्थान: जयसमंद झील से जुड़े 2300 जनजाति परिवारों पर रोजगार संकट, क्यों पलायन को मजबूर हैं ये मछुआरे?

नावों और जालों की मरम्मत और रखरखाव के लिए कोई आधिकारिक सहायता नहीं है और गरीब मछुआरे सारा खर्च खुद वहन करने को मजबूर हैं।
अधिकांश जनजाति समुदाय से छोटे स्तर के मछलीमार हैं और केवल मत्स्याखेट आधारित आजीविका से ही उनका  साल भर का गुजारा नहीं होता।
अधिकांश जनजाति समुदाय से छोटे स्तर के मछलीमार हैं और केवल मत्स्याखेट आधारित आजीविका से ही उनका साल भर का गुजारा नहीं होता। Image- डॉ सुनील दुबे
Published on

उदयपुर - राजस्थान की विश्व प्रसिद्ध जयसमंद झील के जनजाति मछुआरों की आजीवका संकट में है. सैंकड़ों मछुआरे मत्स्याखेट छोड़कर वैकल्पिक रोजगार के साधन ढूंढने के लिए मजबूर हैं. जयसमंद में गहराते रोजगार संकट को देखते हुए जनजाति मछुआरों की युवा पीढ़ी पलायन करने के मजबूर हो रही है.

मत्स्य विभाग के अकुशल और मनमाने प्रबंधन के कारण कई परिवारों पर यह संकट आया है.

जयसमंद झील से लगे गाँवों में वर्तमान में 23 ग्रामवार मत्स्य उत्पादक सहकार समितियां हैं जिनसे सबद्ध 2500 मछुआरा परिवार सदस्य हैं. पूर्व में ये समितियां राजस संघ के अधीन थी लेकिन बाद में राज्य सरकार ने इन्हें मत्स्य विभाग के अधीन कर दिया. मछुआरों का कहना है कि मत्स्य विभाग के अधीन आने के बाद से समुदाय बदहाल हो गया है।

निदेशालय मत्स्य विभाग के द्वारा नियुक्त मत्स्य विकास अधिकारी द्वारा ना तो मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों का सुचारू समन्वयन हो रहा है और ना ही निदेशालय के अधीन होने के बाद विभिन्न सरकारी सुविधाओं का संतोषप्रद लाभ मिल रहा है।

मत्स्य विभाग द्वारा मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों के वार्षिक वित्तीय अंकेक्षण, वार्षिक रिपोर्ट और बैठकों के निमित कोई कार्यवाही नहीं की जाती। यहाँ तक कि कोरोना काल के दौरान भी मछुआरों परिवारों की सुध लेने के लिए निदेशालय मत्स्य विभाग कि तरफ से कोई भी नहीं था और ना ही इन्हें राशन, चिकित्सा, टीकाकरण जैसी कोई मदद दी गई।

मछुआरों की शिकायत है कि निदेशालय मत्स्य विभाग द्वारा मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों को सम्मिलित करके ना तो कोई निर्णय लिए जाते हैं और ना ही सहमति, बल्कि मनमाने ढंग से कार्य करने के कारण मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियां निष्क्रिय होकर ठप्प पड़ रही हैं और मछुआरे बेरोजगार हो रहे हैं।

इन परेशानियों को देखते हुये सभी मछुआरा परिवार जनजाति एवं अन्य छोटे मछुआरों के हित को ध्यान में रखते हुए जयसमंद झील से संबद्ध मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों का निदेशालय मत्स्य विभाग की बजाय पुनः जनजाति क्षेत्र विकास सहकारी संघ (राजस संघ) के अधीन प्रबंधन एवं संचालन कराने एवं मत्स्य उत्पादकों को अन्य सुविधाएँ व अधिकार दिलाने की मांग कर रहे हैं. द मूकनायक ने मत्स्य उत्पादक समितियों के कई मछुआरे सदस्यों और एक्सपर्ट्स से बात कर यहाँ व्याप्त समस्याओं को जानने का प्रयास किया.

जनजाति मछुआरों के कल्याण के लिए प्रयासरत सामाजिक कार्यकर्ता और विशेषज्ञ डॉ सुनील दुबे ने बताया कि दक्षिणी राजथान में तीन बड़े जलाशय हैं जहां स्थानीय समुदाय को मछली पकड़ने का अधिकार है और वे वर्तमान में मछली खरीद के लिए अधिकृत (नीलामी में खरीद के लिए ऊँची बोली देने वाले) ठेकेदार को मछली बेचने के लिए बाध्य हैं.

ये तीन जलाशय जयसमंद झील (सलूबर जिला), कडाना झील (डूंगरपुर जिला) और माह बांध (बांसवाड़ा जिला) है। मत्स्य विभाग द्वारा मनमाने ढंग से जयसमंद झील के साथ साथ माही और कडाना जलाशयों के लिए एक ही ठेकेदार को क्रय का ठेका दिया जाता है जबकि ये तीनों जलाशय अपने आप में बहुत बड़े बड़े हैं और इनके अलग अलग ठेके होने चाहिए।

ठेका नीलामी प्रक्रिया में, मछली प्रजातियों की दरें निर्धारित करने में मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों से कोई परामर्श या सहमति नहीं ली जाती। ठेकेदार से विभागीय अनुबंध होने के पश्चात् मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों को मात्र उसकी सूचना दी जाती है और मछलियाँ अनुबंधित ठेकेदार को तुलने का निर्देश दिया जाता है।

विगत वर्षों में निदेशालय मत्स्य विभाग द्वारा सरकार द्वारा मछुआरों के लिए प्रदत्त विभिन्न सरकारी योजनाओं जैसे मत्स्य बीज संग्रहण, मत्स्य प्रशिक्षण, आदर्श मछुआरा आवास निर्माण योजना, सेविंग कम रिलीफ योजना, निःशुल्क नाव-जाल वितरण, इत्यादि का समुचित लाभ नहीं दिलवाया गया है। डॉ दुबे कहते हैं यदि विभागीय जांच करवाई जाये तो कागजी आंकड़े और धरातलीय वस्तुस्थिति में अंतर का पता चल सकता है।

उपलब्ध सरकारी आंकड़ों के अनुसार राज्य में 33 हेचरी स्थापित हैं जहाँ मछली ब्रीडिंग, बीज उत्पादन, ब्रूड स्टॉक इत्यादि गतिविधियां की जाती हैं। राजस संघ द्वारा जयसमंद झील के बाँध के नीचे स्थापित एकमात्र हेचरी वर्तमान में दयनीय हालत में है और मत्स्य बीज उत्पादन अपर्याप्त होने के कारण मछुआरों को मत्स्य बीज इत्यादि के लिए सरकार का मुंह ही देखना पडता है। निदेशालय मत्स्य विभाग द्वारा मनमाने तरीके से अन्य राज्यों से मछली बीज मंगाकर झील में डाले जाते हैं।

मत्स्याखेट निषेध अवधि के दौरान मछुआरों को अपने गुजारे के लिए कोई वित्तीय सहायता नहीं मिल पाती जिससे दो वक्त का खाना भी मुश्किल से मिलता है.
मत्स्याखेट निषेध अवधि के दौरान मछुआरों को अपने गुजारे के लिए कोई वित्तीय सहायता नहीं मिल पाती जिससे दो वक्त का खाना भी मुश्किल से मिलता है.

कब कौनसी मत्स्य प्रजाति के बीज डाले , मछुआरों को जानकारी नहीं

मत्स्य उत्पादक सहकार समिति मिन्दूडा के व्यवस्थापक गोविन्द मीणा बताते हैं मत्स्य विभाग द्वारा जयसमंद झील में कौनसी मछली प्रजाति के कितने बीज डाले जाते हैं -इस बारे में मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों को ना तो सूचित किया जाता है और ना ही उनसे परामर्श किया जाता है।

ऐसे में जो मछुआरा पानी का कृषक माना जाता है, जिसकी आजीविका मछली पर निर्भर है उसी से बिना परामर्श किये मनमाने तरीके से कुछ चुनिन्दा मछली प्रजातियों के बीज मंगवाकर झील में डालकर निदेशालय मत्स्य विभाग द्वारा मछुआरों की आजीविका को दुष्कर बनाया जा रहा है। कुछ दशकों पहले जयसमंद झील में रोहू, कतला, मृगल, लांची, सिंघाडा, बाम, सांवल, इत्यादि मछलियाँ प्रचुर मात्र में पाई जाती थीं और उनकी देश भर में बहुत मांग होती थी. लेकिन अब यहाँ जैवविविधता भी खतरे में है.

मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों के साथ परामर्श करके, उनकी सलाह अनुसार जिन जिन मछली प्रजातियों के बीज आवश्यक हों वे झील में डाले जाने चाहिए ताकि मछुआरों को अधिकाधिक लाभ मिल सके और झील की प्राकृतिक जैवविविधता भी बनी रहे।

मेथुड़ी मत्स्य उत्पादक समिति से जुड़े केशुलाल बताते हैं कि मछुआरों को 'बचत सह राहत' योजना का लाभ नहीं मिल पा रहा है. यह योजना नियमानुसार क्रियान्वित नहीं की जा रही है और न ही मछुआरों को वर्षाकाल के दौरान मत्स्याखेट निषेध अवधि के दौरान राहत राशि प्रदान की जा रही है।

इस योजना के अंतर्गत मछली पकड़ने के काल के दौरान एक पंजीकृत मछुआरे से कुल 1500 रुपये के संग्रह का प्रावधान है और उसी राशि में बराबर की राशि क्रमशः राज्य सरकार और केंद्र सरकार द्वारा जोड़ी जाती है, जिससे कुल 4500 रुपये की राशि हो जाती है जो मत्स्याखेट निषेध काल के दौरान मछुआरे को तीन महीने 1500 रुपये प्रति माह के हिसाब से दी जाती है। निदेशालय मत्स्य विभाग द्वारा सेविंग कम-रिलीफ योजना का क्रियान्वयन नहीं किया जा रहा है और ना ही ऐसे कोई प्रयास किये जा रहे हैं कि मत्स्याखेट निषेध अवधि के दौरान मछुआरों को अपने गुजारे के लिए कोई वित्तीय सहायता मिले। योजना में दी जाने वाली राशि भी बढाने की आवश्यकता है।

मछुआरों को केंद्र और राज्य सरकारों की स्कीम की जानकारी समय पर नहीं मिल पाती जिससे वे कई लाभों से वंचित रह जाते हैं.
मछुआरों को केंद्र और राज्य सरकारों की स्कीम की जानकारी समय पर नहीं मिल पाती जिससे वे कई लाभों से वंचित रह जाते हैं.

गामडी गाँव के मछुआरे विरजिराम मीणा कहते हैं निदेशालय द्वारा नियुक्त मत्स्य विकास अधिकारी तथा मत्स्य उत्पादक सहकारी समिति के मछुआरा व्यवस्थापकों और सदस्यों के बीच संवाद शून्य के लगभग है। हम लोगों की इतनी समस्याए हैं लेकिन हमें सुनने वाला कोई नहीं.

मत्स्य विकास अधिकारी द्वारा मत्स्य उत्पादक सहकारी समिति के मछुआरा व्यवस्थापकों और सदस्यों के साथ नियमित बैठकें और सूचनाओं का आदान-प्रदान नहीं हो रहा है। निदेशालय द्वारा भी इस बारे में कोई निगरानी नहीं की जाती।

ऐसे में अधिकांश मछुआरों को केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा जारी अधिनियमों, नियमों एवं दिशानिर्देशों का पता नहीं है और ना ही मत्स्य विकास अधिकारी द्वारा केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा प्रदत्त योजनाओं और लाभों से सम्बंधित कोई दस्तावेज उपलब्ध करवाए गए हैं। कोविड 19 के दौरान भी मत्स्य विकास अधिकारी द्वारा संबंधित दिशानिर्देशों के बारे में कोई आधिकारिक सूचनाएँ, राहत उपायों और टीकाकरण के संबंध में कोई जानकारी नहीं दी गई और ना ही मछुआरों को सम्हाला गया।

व्यवस्थापक गोविन्द मीणा बताते हैं " जब तक राजस संघ के अधीन प्रबंधन होता था तब तक मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों के व्यवस्थापकों को भी कुछ मानदेय मिलता था। वह मानदेय मछलियों की प्रजातियों एवं आकार की श्रेणियों के अनुसार उनकी तुलाई के अनुसार कुछ प्रतिशत के आधार पर होता था, और चूँकि राजस संघ द्वारा जलाशय में विभिन्न मछली प्रजातियों के बीज भरपूर छोड़े जाते थे तो मछलियों की पैदावार भी भरपूर होती थी, और तुलाई के अनुसार व्यवस्थापकों को भी उचित मानदेय मिल जाता था। लेकिन निदेशालय मत्स्य विभाग के अंतर्गत आने के बाद मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों के व्यवस्थापकों को मिलने वाला मानदेय भी बंद हो गया है और ये भी दुर्दशा के शिकार हैं।"

घाटी मत्स्य उत्पादक समिति के सदस्य शंकर भील ने द मूकनायक को बताया कि अधिकांश जनजाति समुदाय से छोटे स्तर के मछलीमार हैं और केवल मत्स्याखेट आधारित आजीविका से ही उनका साल भर का गुजारा नहीं होता।

वर्षाकाल में मत्स्याखेट निषेध काल के दौरान तो मछुआरों के सामने हर साल आजीविका का संकट और परिवार को पालने की समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। ऐसे में उन्हें वैकल्पिक आजीविका के लिए इधर उधर भटकना पडता है। मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों में पंजीकृत सभी मछुआरों को बी.पी.एल. और ए.पी.एल. में न बाँट कर गरीबी रेखा से नीचे (बी.पी.एल.) में ही माना जाना चाहिए और उन्हें प्रदत्त सभी सरकारी सुविधाएँ दी जानी चाहिए।

भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय द्वारा ई-श्रम पोर्टल प्रारंभ किया गया है, जिसमें सभी असंगठित कामगारों (छोटे मछुआरों सहित) को सामाजिक सुरक्षा योजनाएं प्रदान करने हेतु उनका पंजीकरण किया जा रहा है।

डॉ सुनील दुबे कहते हैं निदेशालय मत्स्य विभाग द्वारा जयसमंद के मछुआरों को इसके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं कराई गई है और ना ही पंजीकरण करवाने की कोई सहायता, जिसके परिणामस्वरूप दक्षिणी राजस्थान के जनजाति मछुआरे भारत सरकार के ई-श्रम डाटाबेस में पंजीकृत होने से वंचित रह जायेंगे।

कैसे करें नावों-जालों की मरम्मत ?

वर्तमान में जयसमंद झील से लगे खेराड गाँव में एक मछली तुलाई केन्द्र है, जबकि झील के विस्तार और इसकी लगभग 88 की.मी. लंबी परिधि से लगे 23 मत्स्य उत्पादक सहकारी समितियों से जुड़े लगभग 2500 मछुआरा परिवारों की सुविधा के लिए झील के चारों दिशाओं में और मछली तुलाई केन्द्रों की सख्त जरूरत है.

वर्तमान में दूरस्थ इलाकों से मछुआरे खेराड तुलाई केन्द्र पर नहीं आते बल्कि ठेकेदार नाव से उन गाँवों तक जाकर मछली तोलकर लाता है जिसमें मछली की जो दर ठेके में दी गई उससे कम दर पर मछुआरों से मछली तुलाई जाती है, और निदेशालय मत्स्य विभाग द्वारा उस पर कोई निगरानी नहीं की जाती।

इसी तरह छोटे मछुआरों को सरकार द्वारा नावों और जालों का वितरण वर्तमान में अनियमित है और लंबे समय से हुआ भी नहीं है। नावों और जालों की मरम्मत और रखरखाव के लिए कोई आधिकारिक सहायता नहीं है और गरीब (बीपीएल श्रेणी सहित) मछुआरे सारा खर्च खुद वहन करने को मजबूर हैं। मछुआरे स्वयं के खर्चे पर अन्य राज्यों से नाव-जाल खरीद कर लाने को बाध्य हैं। स्थानीय स्तर पर नाव-जाल निर्माण और मरम्मत के कोई उपक्रम स्थापित नहीं हैं, यदि युवा मछुआरों को नाव-जाल निर्माण और मरम्मत के प्रशिक्षण दिलाये जाएँ और तत्पश्चात वित्तीय सहायता उपलब्ध कराई जाये तो नाव-जाल की सुविधा में बढ़ावा हो सकेगा।

समुदाय की समस्याओ पर चर्चा करते हुए मछुआरे
समुदाय की समस्याओ पर चर्चा करते हुए मछुआरे Image- डॉ सुनील दुबे

जयसमंद, कडाना और माही के मछुआरा समुदाय खरीद ठेकेदार पर निर्भर रह गए हैं और यदि वह ठेकेदार खरीद बंद कर देता है या अपना ठेका वापस ले लेता है (जैसा कि कोविड 19 लॉकडाउन के दौरान हुआ) तो विभाग के पास मछली खरीद और बाजार में बिक्री जारी रखने का कोई वैकल्पिक साधन नहीं है।

डॉ दुबे कहते हैं मछुआरों पर सरकार द्वारा नियत ठेकेदार को ही मछली तुलाने कि बाध्यता समाप्त हो और विकल्प के रूप में ठेकेदार की खरीद पर निर्भर रहने की बजाय स्वयं से भी बाजार में मछली बिक्री के लिए मछली मंडी की सुविधा दी जानी चाहिए। सलूम्बर तथा उदयपुर जिला मुख्यालय की कृषि मंडियों में और आसपास के कस्बों में भी मछुआरों के लिए मंडी की व्यवस्था हो जाए तो वे भी अनाज, सब्जी और फल की तरह मछली बेच सकेंगे जिससे इन्हें अपनी मेहनत का वाजिब दाम मिल सकेगा और परिवार के गुजर बसर की चिंता नहीं रहेगी.

अधिकांश जनजाति समुदाय से छोटे स्तर के मछलीमार हैं और केवल मत्स्याखेट आधारित आजीविका से ही उनका  साल भर का गुजारा नहीं होता।
दिल्‍ली: सैकड़ों सफाई कर्मचारियों की आजीविका दांव पर, जानिए क्या है कारण?
अधिकांश जनजाति समुदाय से छोटे स्तर के मछलीमार हैं और केवल मत्स्याखेट आधारित आजीविका से ही उनका  साल भर का गुजारा नहीं होता।
दलित-आदिवासी सरकारी कर्मचारियों को पदोन्नति नहीं देना चाहती MP सरकार, जानिए क्या है कारण?

द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.

The Mooknayak - आवाज़ आपकी
www.themooknayak.com