केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल समलैंगिक शादियों यानी सेम सेक्स मैरिज को मान्यता देने की मांग करने वाली अर्जी का विरोध किया है. केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में कहा है, कि समलैंगिक साथ में रहते हैं. लेकिन उसकी तुलना भारतीय परिवार से नहीं की जा सकती. यह पति-पत्नी और उनसे पैदा हुए बच्चों की कांसेप्ट से मेल नहीं खाती. केंद्र ने कहा कि इस मामले में मौलिक अधिकार का हनन नहीं होता है. विदेशों में इस मामलों पर दिए गए फैसले को यह मान्यता नहीं दी जा सकती. मानवीय संबंधों को मान्यता देना एक विधाई कार्य है और यह कभी भी न्यायिक फैसले का विषय नहीं हो सकता. कानून में उल्लेख के मुताबिक भी समलैंगिक शादी को मान्यता नहीं दी जा सकती. समलैंगिक विवाह में विवाद की स्थिति में पति और पत्नी को कैसे अलग-अलग माना जा सकेगा!
केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हलफनामे में कहा, ''समान-लिंग वाले व्यक्तियों द्वारा भागीदारों के रूप में एक साथ रहना, जिसे अब डिक्रिमिनलाइज़ किया गया है, भारतीय परिवार इकाई के साथ तुलनीय नहीं है और वे स्पष्ट रूप से अलग-अलग वर्ग हैं जिन्हें समान रूप से नहीं माना जा सकता है।''
हलफनामे में, केंद्र ने याचिका का विरोध किया है और कहा कि समलैंगिकों को कानूनी मान्यता देने वाली याचिकाओं को खारिज किया जाना चाहिए, क्योंकि इन याचिकाओं में कोई योग्यता नहीं है। सरकार ने LGBTQ विवाह को कानूनी मान्यता देने की मांग वाली याचिका के खिलाफ अपने रुख के रूप में कहा कि समान-लिंग संबंध और विषमलैंगिक संबंध स्पष्ट रूप से अलग-अलग वर्ग हैं, जिन्हें समान रूप से नहीं माना जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने 5 साल पहले निजता को मौलिक अधिकार माना था और उस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था, कि सेक्सुअल ओरियंटेशन निजता का अंग है. इस पर केंद्र ने कहा कि शादी को किसी भी व्यक्ति की निजता के क्षेत्र में सिर्फ एक कांसेप्ट के रूप में नहीं छोड़ा जा सकता. शादी 2 लोगों की निजी जिंदगी पर गहरा प्रभाव डालती है. लेकिन इसे सिर्फ व्यक्ति की निजता के दायरे में नहीं रखा जा सकता खासकर तब जब दो लोगों के बीच रिश्ते को औपचारिक बनाने के लिए कानूनी बातें शामिल हो.
हाल के महीनों में चार समलैंगिक जोड़ों ने अदालत से समलैंगिक विवाह को मान्यता देने की मांग की है, जिससे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार के साथ कानूनी टकराव की स्थिति पैदा हो गई है.
द मूकनायक ने इस बारे में रितु श्री से बात की. वह कहती हैं कि समान लिंग विवाह एक महत्वपूर्ण और आवश्यक बिंदु है। यह समलैंगिक जोड़ों की दृश्यता बढ़ाने और समाज से जुड़े पूर्वाग्रहों और कलंक को तोड़ने में मदद करेगा. इसके अलावा जब समान यौन संबंधों की अनुमति है और कानूनी है तो विवाह के साथ क्या समस्या है? जिससे चाहे प्यार करें और शादी करें, यह हर किसी का मौलिक अधिकार है. समान लिंग विवाह के अधिकार से इनकार करना प्रत्येक नागरिक को भारत के संविधान द्वारा प्रदत्त कानून के समक्ष समानता से वंचित करना है. जैसा कि बाबा साहब ने कहा था कि समानता एक कल्पना हो सकती है लेकिन फिर भी इसे एक शासक सिद्धांत के रूप में स्वीकार करना चाहिए.
"समान यौन साझेदारों को विवाह के अधिकारों का लाभ नहीं देना भेदभाव है और विशेष रूप से धारा 377 को 2018 में पहले से ही कम कर दिया गया है, "रितु ने कहा।
आगे वह बताती है "मुझे पूरी उम्मीद और विश्वास है कि जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट क्वीर समुदाय के पक्ष में आदेश देगा और समलैंगिक विवाह के अधिकार प्रदान करेगा क्योंकि अतीत में अदालतों ने समुदाय के पक्ष में निर्णय पारित किए हैं चाहे वह NALSA में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार हों या 377 का निर्णय या गोपनीयता निर्णय का अधिकार.
भारत में अब समलैंगिकता को अपराध नहीं माना जाता है. सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 को रद्द करते हुए समलैंगिकता को अपराध मानने से इनकार कर दिया था. हालांकि समलैंगिक शादियों को अभी कानूनी मान्यता नहीं मिली है लेकिन अब समलैंगिक लोग खुलकर समाज के सामने आ रहे हैं और शादियां कर रहे हैं.
समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिलनी बाकी है. संसद में समलैंगिक विवाहों को लेकर अभी तक कोई कानून पेश नहीं हुआ है. यह फैसला सुप्रीम कोर्ट ने सरकार पर छोड़ रखा है. भारत में समलैंगिकता साल 2018 से ही अपराध नहीं है. भारत में भारतीय जनता पार्टी (BJP) की सरकार है. आमतौर पर ऐसे आरोप लगते हैं कि यह सरकार परंपरावादी सरकार है और समलैंगिकों के हित में नहीं है. जानकार कहते हैं कि यह उम्मीद करना कि संसद से इसकी राह निकलेगी, बेमानी होगी.
सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट उज्ज्जव भरद्वाज कहते हैं कि भारत में भी समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता मिल सकती है लेकिन अभी तक संसद की ओर से कोई कानून नहीं बनाया गया है. कानून बनाने का अधिकार संसद को है, सुप्रीम कोर्ट को नहीं. सुप्रीम कोर्ट ने केवल समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर किया है. पारंपरिक लोग ऐसी शादियों का विरोध करते हैं हालांकि अब ऐसे रिश्तों को सामाजिक स्वीकृति मिल रही है.
मिडिया रिपोर्ट के अनुसार सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता पवन कुमार गे मैरिज पर कहते हैं कि समलैंगिक विवाहों को भारत में कानूनी मान्यता देना बेहद मुश्किल है. भारत में इसकी राह इसलिए जटिल है क्योंकि अगर गै मैरिज को वैध ठहराया जाता है तो हिंन्दू उत्तराधिकार अधिनियम (1955), हिंदू अल्पसंख्यक और संरक्षकता अधिनियम, (HMGA) 1956, और हिन्दू एडॉप्शन और भरणपोषण अधिनियम (1956) और हिंदू मैरिज एक्ट 1955 में कई अहम बदलाव करने पड़ेंगे. कुछ ऐसे ही परिवर्तन दूसरे धर्मों के व्यक्तिगत कानूनों में करने पड़ेंगे.
एडवोकेट पवन कहते हैं कि मुस्लिम लॉ में समलैंगिकता की कोई जगह नहीं है. ऐसे में इस फैसले से धार्मिक टकराव भी हो सकते हैं. सरकार इस दिशा में इसी वजह से कोई पहल नहीं कर रही है. समलैंगिक विवाह को मान्यता मिलती है तो सबसे पहले संपत्ति, एडॉप्टेशन, भरण-पोषण से लेकर वसीयत संबंधी कानूनों में भी बदलाव करना पड़ेगा. अचानक से इतने बड़े बदलाव के लिए तैयार हो पाना मुश्किल काम है.
यूपी के सिद्धार्थनगर में फैमिली लॉ से जुड़े मामलों को देखने वाले एडवोकेट अनुराग कहते हैं कि अगर समलैंगिक शादियों को कानूनी मान्यता देनी है तो सरकार को पहले संसद में एक के बाद एक कई फैसले लेने पड़ेंगे. पति, पत्नी और संतान को लेकर स्पष्ट परिभाषाओं की जरूरत पड़ेगी. समलैंगिक शादियों में कौन पति है, कौन पत्नी, इसे तय कर पाना भी मुश्किल होगा. सेक्सुअल ओरिएंटेशन पर विस्तृत बहस की जरूरत होगी. हिंदू पर्सनल लॉ से लेकर मुस्लिम और क्रिश्चियन लॉ तक पर इसका असर पड़ेगा. ऐसी शादियों को स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत रखा जा सकता है लेकिन इस एक्ट में भी बदलाव की जरूरत पड़ेगी.
ऐसी शादियों में तलाक होता है तो पति के कर्तव्यों को लेकर भी एक विस्तृत बहस की जरूरत पड़ेगी. पत्नी के भरण-पोषण से जुड़े मामलों का निपटारा कैसे होगा, यह भी एक यक्ष प्रश्न बना रहेगा. संपत्ति के अधिकार को लेकर भी बहस छिड़ेगी. समलैंगिक शादियों पर कोई फैसला लेने से पहले लॉ कमीशन के गठन की जरूरत पड़ेगी जो इस संवेदनशील मामले पर विस्तृत बहस कर सके.
मिडिया रिपोर्ट में कहा एसजी मेहता ने कहा कि जिस क्षण समलैंगिक विवाह को मान्यता दी जाएगी, गोद लेने पर सवाल उठेगा और इसलिए संसद को बच्चे के मनोविज्ञान के मुद्दे को देखना होगा। उसे जांचना होगा कि क्या इसे इस तरह से उठाया जा सकता है। मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समलैंगिक जोड़े के गोद लिए हुए बच्चे का समलैंगिक होना जरूरी नहीं है।
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि समलैंगिक विवाह से संबंधित मुद्दा अहम महत्व का है। इस पर पांच-न्यायाधीशों की पीठ की ओर से विचार किए जाने की आवश्यकता है। समलैंगिक विवाह पर पांच-न्यायाधीशों की पीठ के समक्ष सुनवाई का सीधा प्रसारण (लाइव-स्ट्रीम) किया जाएगा।
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