नई दिल्ली। प्यार की कोई सीमा नहीं होती है। कुछ समय पहले तक स्त्री-पुरुष, शादी और प्यार के बारे में ही जाना जाता था। लेकिन अब इससे भी आगे की सीमा तय की जा रही है। पहले से ही समाज में समलैंगिक रिश्ते थे लेकिन उस समय इन रिश्तों को उतनी आजादी नहीं थी। कुछ वर्षों में लोग अब खुलकर समलैंगिक रिश्तों के बारे में बोलने लगे हैं और सामने आने लगे हैं। खुलकर अपने रिश्ते का इजहार करते हैं। प्यार में किसी तरह की बंदिश नहीं होती। प्यार किसी से भी हो सकता है और कभी भी हो सकता है। हमारे यहां पारंपरिक तौर पर सिर्फ पुरुष-महिला के प्रेम की ही स्वीकार्यता रही है। अब इस तरह के रिश्तों को सामाजिक मान्यता मिलने लगी है। विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट की तरफ से समलैंगिक रिश्तों को अपराध करार देने वाली धारा के हटाए जाने के बाद माहौल पहले की तुलना में काफी ज्यादा सकारात्मक हुआ है।
'द जर्नल ऑफ सेक्स रिसर्च’ में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, सर्वे में अमेरिका में पहले बाइसेक्शुअल लोगों की संख्या 3.1% थी, जबकि यह आंकड़ा वर्तमान में 9.3% तक पहुंच गया है। सोशलिस्ट योगिता भयाना ने कहा कि 9% का आंकड़ा कोई आश्चर्यजनक नहीं है। ऐसा होना था, क्योंकि अवेयरनेस के जरिए लोग जो हैं वह अपनी बात बता रहे हैं। ऐसे लोग आगे आ रहे हैं और ऐसे रिश्ते पहले से चलते आ रहे हैं। यह जनसंख्या के अनुसार बढ़ रहे हैं। भले ही लीगल डिबेट जारी है, लेकिन हमारा समाज भी इसे अपना रहा है।
इसी तरह, भारत में भी इन रिश्तों में बढ़ोतरी हुई है। रिपोर्टों से पता चलता है कि 5 करोड़ से लेकर 20 करोड़ तक की एक महत्वपूर्ण आबादी खुद को समलैंगिक के रूप में पहचानती है। भारत में समलैंगिक, उभयलिंगी और ट्रांसजेंडर ( एलजीबीटी ) अधिकार 21वीं सदी के दौरान महत्वपूर्ण रूप से विकसित हुए हैं। भारतीय एलजीबीटी नागरिकों को अभी भी उन सामाजिक और कानूनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है जो गैर-एलजीबीटी लोगों को नहीं झेलनी पड़ती।
समलैंगिक यौन संबंध या समलैंगिक अभिव्यक्ति के ख़िलाफ़ कोई कानूनी प्रतिबंध नहीं हैं। समान लिंग वाले जोड़ों को कुछ समान सहवास अधिकार प्राप्त हैं, जिन्हें आम बोलचाल की भाषा में लिव-इन रिलेशनशिप के रूप में जाना जाता है। हालाँकि, भारत वर्तमान में समान कानून विवाह , समान-लिंग विवाह , नागरिक संघ या साझेदारी प्रमाणपत्र जारी करने का प्रावधान नहीं करता है।
सोशल मीडिया का आगमन इन जोड़ों के लिए एक वरदान साबित हुआ है, जिन्होंने इस मंच का उपयोग लोगों को यह दिखाने के लिए किया है कि जोड़े विषमलैंगिक संबंधों के बाहर भी अस्तित्व में रह सकते हैं। योगी और कबीर, दिवेश और अतुलन और मनीष और रितेश जैसे विचित्र प्रभावशाली लोगों ने इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अपने रिश्तों का प्रदर्शन किया है।
भारत में समलैंगिक सक्रियता का इतिहास
1990 के दशक की शुरुआत में, एड्स भेदभाव विरोधी आंदोलन (एबीवीए) ने एलजीबीटी अधिकारों की वकालत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, खासकर भारत में एचआईवी/एड्स से प्रभावित लोगों के खिलाफ भेदभाव के जवाब में। विशेष रूप से, एबीवीए ने 1992 में एक समलैंगिक क्रूज़िंग पार्क में गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था जिसे कुछ लोग देश में पहला समलैंगिक प्रदर्शन मानते हैं। 1994 में, अधिकारियों के विरोध का सामना करते हुए, एबीवीए ने धारा 377 - समलैंगिकता को अपराध मानने वाला कानून को रद्द करने की मांग की।
आंतरिक बहस के बावजूद, उन्होंने दिल्ली उच्च न्यायालय में कानूनी प्रतिनिधित्व के लिए एक वरिष्ठ वकील सोली सोराबजी को नियुक्त किया। दुर्भाग्य से उनकी याचिका खारिज कर दी गई। 2001 में, एचआईवी/एड्स और यौन स्वास्थ्य पर केंद्रित एक गैर-सरकारी संगठन, नाज़ फाउंडेशन ने धारा 377 की संवैधानिकता को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
2004 में कोर्ट ने नाज़ फाउंडेशन की याचिका खारिज कर दी। हालाँकि, 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने मामले की समीक्षा करने का निर्देश दिया। 2009 में, इसने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया - धारा 377 को असंवैधानिक घोषित कर दिया क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती थी।
2013 में, सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 पर दिल्ली उच्च न्यायालय के फैसले को "कानूनी रूप से अस्थिर" मानते हुए पलट दिया। अदालत ने सुझाव दिया कि इस मामले को संसद द्वारा संबोधित किया जाना चाहिए। 2014 में, सुप्रीम कोर्ट ने नाज़ फाउंडेशन की एक समीक्षा याचिका को खारिज कर दिया। 2018 में, धारा 377 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाली सुनवाई के बाद, 6 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने इस प्रावधान को अपराधमुक्त कर दिया - जिससे एक लंबी कानूनी लड़ाई का अंत हो गया।
समलैंगिकता शादी इन देशों में है मान्य
अमेरिका
नीदरलैंड
अर्जेंटीना
ब्राज़ील
कनाडा
फ्रांस
जर्मनी
इन देशों में अपराध नहीं है समलैंगिक रिश्ता
भारत
चीन
श्रीलंका
ब्रिटेन
नेपाल
रूस
समलैंगिकों को मिलती है मौत की सजा
पाकिस्तान
ईरान
युगांडा
यमन
सऊदी अरब
सोमालिया
LGBTQIA+ से जुड़ी कुछ खास बातें
बता दें कि, साल 1969 में जून के महीने में LGBTQIA+ समुदाय के लोगों ने उनके खिलाफ हो रहे अत्याचारों के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी। यह सब करना इतना आसान नहीं था। इसके लिए LGBT समुदाय के लोगों को काफी मारा गया था और उन्हें जेल में बंद कर दिया। उस जमाने में LGBT समुदाय के लोगों के पास कोई भी कानून मौजूद नहीं था। सबसे पहले इसकी शुरुआत अमेरिका में हुई इसके बाद यह परेड पूरे विश्व में होने लगा। इस परेड के जरिये वे दैहिक चेतना, खुद की पहचान और यौनिक मुक्ति का जश्न मनाया जाता है।
द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.