नई दिल्ली। उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता विधेयक विधानसभा में बुधवार, 7 फ़रवरी को बहुमत से पारित हो गया है। विधानसभा में UCC बिल पास होने के बाद उत्तराखंड समान नागरिक संहिता बिल पास करने वाला देश का पहला राज्य बन गया है।
बता दें कि उत्तराखंड की बीजेपी सरकार ने मंगलवार, 6 फ़रवरी को राज्य की विधानसभा में समान नागरिक संहिता (UCC) विधेयक पेश किया था। समान नागरिक संहिता का मुद्दा भाजपा की पसंदीदा परियोजना में से एक है। 2024 में भारत में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर इसे राजनीति में धर्म के नजरिए से भी देखा जा रहा है।
इस बिल के कानून बनने से उत्तराखंड में रहने वाले सभी धर्मों के लोगों पर तलाक़ और शादी जैसे तमाम मामलों में एक ही तरह के क़ानून लागू होंगे। यह विधेयक आदिवासी समुदायों को छोड़कर सभी धर्मों के विवाह, तलाक, बच्चों की कस्टडी, गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार और यहां तक कि लिव-इन संबंधों को भी नियंत्रित करेगा।
समान नागरिक संहिता को लेकर सरकार का तर्क है कि यह बिल देश के सभी नागरिकों पर बिना किसी धार्मिक, लैंगिक और जातीय भेदभाव के लागू होगा और सबके लिए एक समान होगा। इसके साथ सरकार यह भी दावा करती रही है कि UCC विधेयक महिला अधिकारों पर केंद्रित है और इससे महिलाओं का सशक्तिकरण होगा।
लेकिन समानता और सशक्तिकरण की इस परिभाषा में UCC के इस विधेयक में LGBTQIA+ समुदाय को शामिल नहीं किया गया है। कथित तौर पर एकरूपता का दावा करने के बावजूद यह कानून समलैंगिकों और ट्रांस-महिलाओं सहित यौन अल्पसंख्यकों को नजरंदाज करता है। UCC के इस दस्तावेज़ में दी गई परिभाषाएँ सिसजेंडर पुरुषों और महिलाओं को संदर्भित करती हैं।
UCC के इस विधेयक में ट्रांसजेंडर का कोई जिक्र नहीं है। लिव-इन रिलेशनशिप की अवधारणा को पूरी तरह से विषमलैंगिक साझेदारी के संदर्भ में दर्शाया गया है, जिसमें समान-सेक्स संबंधों को शामिल नहीं किया गया है।
इस बारे में 'द मूकनायक' से बात करते हुए देहरादून में रहनेवाली 26 वर्षीय ट्रांस इंडिविजुअल रेक्सा दानू कहती हैं, "हमें यूसीसी में शामिल नहीं किया गया है। हम भी एक ह्यूमन बीइंग हैं, हमें भी जीने का हक़ है, समाज में रहने का हक़ है। ये कानून महिला-पुरुष के लिए है लेकिन ये ट्रांसजेंडर के लिए क्यों नहीं है? इसमें कहीं भी हमारा नाम मेंशन नहीं है।" रेक्सा यारियां नाम से एक कम्युनिटी बेस्ड आर्गेनाइजेशन चलाती हैं और LGBTQIA+ समुदाय के अधिकारों के लिए काम करती हैं।
वहीं, देहरादून में ही रहने वाली 24 वर्षीय ट्रांस एक्टिविस्ट ओशीन इस बारे में बात करते हुए कहती हैं, “इस पूरे बिल में ट्रांसजेंडर और LGBTQIA+ समुदाय का कहीं जिक्र तक नहीं है, यह बस पुरुष और महिलाओं तक सीमित है। दरअसल, सरकार हमें मेनस्ट्रीम में रहने ही नहीं देना चाहती है, वह हमें किसी चीज़ में शामिल नहीं करना चाहती है। हमें हमेशा से साइड और नजरंदाज किया गया है। इस UCC में यह जरूर कहा गया है लिव-इन रिलेशनशिप में रहने वाले या इसकी योजना बना रहे पार्टनर को जिला अधिकारियों के पास खुद को रजिस्टर कराना होगा। पार्टनर तो हमारे भी होते हैं, यानी सरकार हमें कानून में शामिल नहीं कर रही है लेकिन हमें कानून के खिलाफ कुछ करने पर 25 हजार रुपए का जुर्माना और सजा सुनाई जा सकती है।"
वह आगे जोड़ती हैं, "उत्तराखंड में वैसे भी ट्रांसजेंडर का बहुत बुरा हाल है। सरकार हमें अनदेखा कर और भी पीछे धकेल रही है। वह बताती हैं, ट्रांसजेंडर को हमेशा से और आज भी सड़कों और बसों में पैसे मांगने और ताली बजाने से जोड़कर ही देखा जाता है।"
ओशीन कहती हैं, "ट्रांसजेंडर लोग जो जन्म के समय से ही तरह-तरह की परेशानियों का सामना करते हैं, उन्हें कानून और अधिकारों से भी वंचित किया जाता है। ट्रांस समुदाय भी इस समाज का हिस्सा है लेकिन UCC ड्राफ्ट में हमें कहीं शामिल नहीं किया गया है।"
नाम नहीं बताने की शर्त पर दिल्ली के एक क्वीयर छात्र कहते हैं, "अगर इस कानून को यूनिफॉर्म सिविल कोड बिल कहा जा रहा है तो यह कहां से यूनिफॉर्म है, जब इसमें क्वीयर समुदाय को शामिल ही नहीं किया गया है? इसमें सिर्फ हेट्रोसेक्सुअल कपल की बात की गई है, इसमें सेम सेक्स कपल और ट्रांसजेंडर कपल कहीं शामिल नहीं हैं।"
तान्या एक ट्रांस महिला वकील हैं। यूनिफॉर्म सिविल कोड बिल पर हमसे बात करते हुए वे कहती हैं, "अगर आप कोई यूनिफॉर्म बिल ला रहे हैं और उसमें इतनी बड़ी कम्युनिटी को आप शामिल ही नहीं कर रहे हैं, ये तो बहुत बड़ी कमी है… बहुत बड़ी गलती है। इसमें शादी की बात हो या लिव-इन की बात हो वह सिर्फ महिला-पुरुष की है, सेम सेक्स की बात तो की ही नहीं गई है। ट्रांसजेंडर को भी एक्सक्लूड किया गया है। तान्या कहती हैं, इसमें LGBTQIA+ कम्यूनिटीज़ के वो सारे राइट्स होने चाहिए जो किसी भी हेट्रोसेक्सुअल पर्सन को है। इसमें LGBTQIA+ के भी वो सारे मुद्दे कवर होने चाहिए, जो किसी महिला-पुरुष के हैं…तभी जाकर ये यूनिफॉर्म सिविल कोड बिल कहलाएगा वरना यह बेकार है।"
आगे वह कहती हैं, "इस लॉ को राजनीति के तौर पर भी इस्तेमाल किया जा रहा है और अल्पसंख्यकों के पर्सनल लॉ को अटैक किया जा रहा है। साथ ही इसमें जो लिव-इन का कॉन्सेप्ट है जिसमें आपको अथॉरिटी से परमिशन लेना होगा… ये एक मनुवादी सोच है और यह औरत की मनुवादी छवि को आगे बढ़ाता है। इसका मतलब है कि उसकी अपनी कोई राय नहीं है, कोई राइट टू प्राइवेसी नहीं है। वह कहती हैं, 18 साल के बाद तो यह हमारा फैसला है कि हम किसके साथ रहना चाहते हैं और किसके साथ नहीं, फिर लिव-इन पर इतनी नजर क्यों रखी जा रही है?"
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