LGBTQ: भारत की पहली ट्रांसजेंडर जज कहती हैं कुर्सी का है सम्मान, मकान भी आसानी से नहीं मिलता

प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस की ट्रेनिंग में लैंगिक संवेदनशीलता का पाठ जोड़ना जरूरी- जोयिता मोंडल
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पश्चिम बंगाल। "छक्का... हिंजड़ा... किन्नर ! यही कहते हैं लोग हमें। अछूतों जैसा बर्ताव किया जाता है। 2014 में सुप्रीम कोर्ट के नालसा जजमेंट के बाद हमारी कम्युनिटी को तीसरे जेंडर का दर्जा भले ही मिल गया हो लेकिन हमारे लोगों के जीवन में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ है। आज अगर मुझे भी मकान बदलना हो तो नया घर ढूंढने में 2 महीने लग जाएंगे क्योंकि किन्नरों को ना कोई किराया पर मकान देता है ना बैंक लोन," यह मानना है जोयिता मोंडल का, जो भारत में किसी नेशनल लोक अदालत की पहली ट्रांसजेंडर जज हैं। जोयिता पर बनी एक शार्ट डॉक्युमेंट्री फ़िल्म "आई एम जोयिता" इन दिनों ओटीटी पर नेशनल ज्योग्राफिक चैनल में खूब सराही जा रही है जिसमें उनके जयंत मोंडल से लेकर जज जोयिता मोंडल तक बनने की संघर्ष यात्रा का बाखूबी चित्रण किया गया है।

द मूकनायक ने जोयिता से खास बातचीत की जिसपर इस संवेदनशील ट्रांसमहिला ने खुद के जीवन में आई कठिनाइयों के साथ, भारत की 50 लाख की आबादी वाली ट्रांस कम्युनिटी की पीड़ा, आशा और अपेक्षाओं पर खुल कर लंबी चर्चा की।

जोयन्त से जोयिता बनने की दास्तां

बाँसद्रोनी कोलकाता में एक मध्यम वर्गीय परिवार में जन्म लेने वाले जोयन्त को किशोरावस्था में आभास हुआ कि भले उसके जननांग पुरुषों जैसे थे लेकिन उसकी प्रकृति, इच्छा और अनिच्छा महिलाओं जैसे है। उसे लंबे बाल, नेल पॉलिश और मेकअप से लगाव था। डांस करना पसंद था। स्कूल में उसके अलग व्यवहार के कारण साथी उसका मज़ाक उड़ाते और यहाँ तक कि 11वी कक्षा में मेल क्लासमेट्स ने उसके साथ जबर्दस्ती अप्राकृतिक कृत्य किया। घरवालों को जब बात मालूम हुई उन्होंने भी साथ नहीं दिया और कहा कि इस प्रकार व्यवहार करोगे तो यही सब होगा। कॉलेज में एडमिशन लेने पर जब जोयिता ब्यूटी पार्लर जाकर अपनी ग्रूमिंग करवा कर आई तो माँ ने इतना पीटा कि वह कई दिनों तक उठ ही नहीं पाई। उसे इलेक्ट्रिक शॉक भी दिए गए।

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"घरवाले मुझे अपनाने को तैयार नहीं हुए तो मैंने 2009 में घर छोड़ दिया। घर से निकलकर मैं उत्तर दीनाजपुर पहुंची जहां बस स्टैंड पर कई रातें बिताई। मुझे यहां किन्नर समुदाय ने अपनाया, रहने की जगह दी और सबसे ऊपर प्यार दिया" जोयिता कहती हैं। सड़कों पर भीख मांगने, फुटपाथ पर सोने से लेकर शादी ब्याह में बधाई गान तक कई कष्ट झेलने के साथ जोयिता को अहसास हुआ कि उसे जीवन में कुछ बनना है। "मैंने अपनी पढ़ाई पूरी की, लॉ की डिग्री ली और एक स्वयं सेवी संस्थान का गठन किया जहां मैं अपने समुदाय की महिलाओं और लड़कियों को अगरबत्ती, ज्वेलरी डिजाइन और बैग मेकिंग का प्रशिक्षण देकर उन्हें आत्म निर्भर बनाने की कोशिश करती थी" जोयिता ने बताया। आज जोयिता की स्वयं सेवी संस्थान ' नोतुन अलो ' के अंतर्गत 1500 ट्रांसजेंडर व्यक्तियों का नेटवर्क है जो विभिन्न स्किल्स की ट्रेनिंग प्राप्त कर आत्मनिर्भरता की राह पर है। इसके साथ ही वह इस्लामपुर सब डिवीजन ईआरटी सेंटर से भी जुड़ी हैं जो एड्स के प्रति अवेयरनेस और काउंसिलिंग का कार्य करता है।

सोशल वर्क से मिली पहचान

"उत्तर दीनाजपुर बांग्लादेश बॉर्डर से सटा इलाका है। यहां ट्रक चालकों की संख्या ज्यादा है जो महीनों तक अपने परिजनों से दूर रहते हैं । भावनात्मक और शारीरिक जरूरतों को पूरा करने के लिए ट्रक चालक देह व्यापार में लिप्त महिलाओं से संपर्क में आते हैं और कई बार असुरक्षित सेक्स के कारण एड्स पीड़ित होकर ये अपनी पत्नियों को भी ये रोग ट्रांसमिट करते हैं। " जोयिता कहती हैं ऐसे में किन्नर समुदाय के सदस्य भी जो मजबूरी में देह व्यापार करते हैं, एचआईवी और एड्स संक्रमित हो जाते हैं जिनके रिहेबिलिटेशन के लिए प्रयास किये जा रहे हैं।

बतौर एक सोशल वर्कर पहचान स्थापित होने पर एक दिन अतिरिक्त जिला जज कार्यालय से फोन आया और लोक अदालत में जज बनाने का प्रस्ताव दिया। जोयिता कहती हैं कि अमूमन लोक अदालतों में एक जज, एक सोशल वर्कर और एक वकील की बेंच होती है लेकिन उसे जज बनाया गया जो पूरे ट्रांसजेंडर समाज के लिए बहुत गौरव की बात है। 6 जुलाई 2017 को नियुक्ति पत्र दिया गया और जोयिता ने 8 जुलाई को ज्वाइन कर लिया।

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"पहले पहले जब में कोर्ट में बैठती थी लोग आश्चर्य और कौतूहल भरी निगाहों से मुझे देखते थे लेकिन बाद में सब सामान्य हो गया। अदालत में अधिकतर मामले बैंक लोन नहीं चुकाने को लेकर आते हैं जिनका निपटारा मध्यस्थता से करने की कोशिश होती है।" लेकिन जोयिता कहती है , "मैं औरों को लोन दिलाने में मदद करती हूं मगर मेरी खुद की कम्युनिटी को कोई बैंक लोन नहीं देता क्योंकि वे मानते हैं हिंजरों को लोन देंगे तो वापस नहीं चुकाएंगे, क्या करें माइंडसेट ऐसा है।"

सामाजिक उपेक्षा का शिकार

जोयिता कहती हैं किन्नरों के प्रति लोगों का दृष्टिकोण बदला नहीं है। मकान मालिक किराया पर कमरा देने को तैयार भी होता है तो पड़ोसी नहीं मानते। किन्नर समुदाय के 99 प्रतिशत बच्चे स्कूल से ड्रॉपआउट होते हैं क्योंकि स्कूल में उन्हें ना तो टीचर समझता है, ना ही संगी साथी। " हमें थर्ड जेंडर के रूप में मान्यता दे दी लेकिन जब हम पब्लिक टॉइलट्स में जाते हैं वहां महिला और पुरुष- दो ही श्रेणी होती है और हम असमंजस में होते हैं कहां जाएं।

जोयिता जो सेक्स रिअसाइन्मेंट सर्जरी के बाद एक महिला बन चुकी हैं, बताती हैं कि ये प्रक्रिया भी 3 से 4 लाख रुपये की होती है जो सभी के बजट में नहीं होता है। इस सर्जरी को सभी के लिए मुहैया करवाने के लिये सरकारी प्रयास जरूरी है।

ट्रांसजेंडर अधिकारों पर जोयिता का मानना है कि समय के साथ बड़े शहरों में लोगों के दृष्टिकोण में बदलाव आया है लेकिन ग्रामीण इलाकों में अभी भी ये उपेक्षित और तिरस्कृत होते हैं। " सरकार की कई कल्याणकारी स्कीम हैं जैसे इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी से मुफ्त शिक्षा प्राप्त की जा सकती है लेकिन समुदाय तक योजनाओं का प्रचार प्रसार नहीं हो पाता जिसके लिए ठोस कार्ययोजना बनानी होगी। इसी तरह भारतीय प्रशासनिक सेवा में आने वाले अधिकारियों के ट्रेनिंग प्रोग्राम में जेंडर सेंसिटिविटी अनिवार्य रूप से शामिल हो ताकि वे फील्ड में पोस्टिंग पाने के बाद संवेदनशीलता के साथ पेश आए। वे वकीलों, शिक्षकों को भी विभिन्न चरणों में ट्रेनिंग पर जोर देती हैं ताकि नोबल प्रॉफेशन से जुड़े ये लोग समाज में थर्ड जेंडर के लिए ग्राह्यता और स्थान बना सकें।

नौकरी में आरक्षण, संसद में प्रतिनिधित्व चाहिए

जोयिता कहती हैं भारत में ट्रांसजेंडर समुदाय की अनुमानित संख्या पचास लाख है लेकिन सभी बिखरे हुए हैं। "हमारी संख्या इतनी नहीं कि हम विधान सभा या लोक सभा में अपने प्रतिनिधि को भेज सके। हमारी समस्या को समझने या उसे विधायिका तक उठाने वाला ही जब तक ना हो, समुदाय का समुचित कल्याण नहीं हो सकेगा।" वे आगे कहती हैं कि राज्यों में ट्रांसपर्सन्स डेवलपमेंट बोर्ड बने हैं लेकिन वह भी महिला व बाल मंत्रालय के अधीन है। महिलाओं की समस्या अलग है और ट्रांसमहिला की अलग- हम तो अपनी आइडेंटिटी के लिए लड़ रह हैं। जोयिता के मुताबिक ट्रांसजेंडर को नौकरी में आरक्षण दिए जाने के बाद ही समुदाय के ज्यादा युवा सरकारी नौकरी प्राप्त कर वर्तमान दलदल से निकल सकते हैं। जोयिता कहती हैं, "देह व्यापार, ट्रेनों में सिग्नल पर भीख मांगना, शादी ब्याह की बधाई करना- इन सबसे मोचन तभी हो सकता है जब इन्हें शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़कर समाज में सम्मान से जीने और बराबरी का दर्जा दिया जाए। मुझे आज जो सम्मान मिलता है वो कुर्सी के कारण मिलता है।"

सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन सम लैंगिक विवाह की मान्यता को जोयिता अनिवार्य मानती है ताकि इस समुदाय को गोद लेने के कानूनी अधिकार और अन्य सभी अधिकार मिल सके जो एक सामान्य दंपति को संविधान देता है।

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ट्रांसजेंडर समुदाय के प्रति समाज का नजरिया बदलने में जोयिता प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका मानती हैं। "मैं जब जज बनी थी मैंने किसी को इसके बारे में नहीं बताया था लेकिन जब समाचार पत्रों में मेरी फोटो और खबर प्रकाशित हुई तो कई लोगों ने संपर्क किया और मुझे शुभकामनाएं दी।" जोयिता मानती हैं कि "आई एम जोयिता" की तरह और डॉक्यूमेंट्री फिल्में बननी चाहिए जिसमें किसी नामचीन अभिनेता अभिनेत्रियों की बजाय रीयल ट्रांसपर्सन को ही कास्ट करना चाहिए ताकि लोगों को मालूम हो हमारा कितना सघर्षमयी जीवन है। जज बनने के बाद जोयिता को उसका परिवार भी अपना चुका है। वो बताती हैं, "परिवार ने तो अपना लिया लेकिन मैं घरवालों के साथ नहीं रहती, उनसे मिलने आती जाती हूँ। मेरे जीवन का उद्देश्य ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए एक शेल्टर होम स्थापित करना है ताकि बेघर बेसहारा और परिवार से उपेक्षित होने पर मेरी तरह किसी को फुटपाथ पर नहीं सोना पड़े और भीख नहीं मांगना पड़े।"

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