सेम सेक्स मैरिज पर दिए फैसले पर कायम हूं: CJI

नई दिल्ली के सोसाइटी फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स द्वारा आयोजित 'तीसरी तुलनात्मक संवैधानिक कानून चर्चा' में अपने संबोधन के दौरान मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने ये बात कही।
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, डीवाई चंद्रचूड़
सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, डीवाई चंद्रचूड़
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नई दिल्ली: देश के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने हाल में कहा कि समलैंगिक विवाह पर बीते दिनों दिया गया उनका फैसला अंतर्मन की आवाज से दिया गया था और वह अब भी उस पर कायम हैं। जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी लॉ सेंटर, वॉशिंगटन डीसी और नई दिल्ली के सोसाइटी फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स द्वारा आयोजित 'तीसरी तुलनात्मक संवैधानिक कानून चर्चा' में अपने संबोधन के दौरान मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ ने ये बात कही।

सीजेआई ने किया था समर्थन

सीजेआई ने कहा कि अक्सर संवैधानिक महत्व के मुद्दों पर दिए गए फैसले अंतर्मन की आवाज ही होते हैं और भले ही समलैंगिक विवाह के मुद्दे पर उनका फैसला अल्पमत में रहा लेकिन वह अब भी उस पर कायम हैं। बता दें कि बीते दिनों संविधान की पांच जजों की पीठ ने समलैंगिक विवाह को मान्य करने वाली याचिकाओं पर सुनवाई की थी। जिस पर सीजेआई ने अपने फैसले में समलैंगिक जोड़े को बच्चे गोद देने का समर्थन किया था। हालांकि पीठ के तीन जजों ने इसका विरोध किया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में समलैंगिक विवाह को कानूनी दर्जा नहीं दिया और संसद पर इस मुद्दे पर कानून बनाने का फैसला छोड़ दिया।

बता दें कि समलैंगिक विवाह पर फैसला देते हुए संविधान पीठ के सभी न्यायाधीश इस बात पर सहमत थे कि विवाह समानता लाने के लिए कानूनों में बदलाव विधायिका के कार्यक्षेत्र में दखल के बराबर होगा। हालांकि समान नागरिक अधिकार और गोद लेने के अधिकार के सवाल पर न्यायाधीशों में मतभेद थे। मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायाधीश एसके कौल समलैंगिक संबंधों को मान्यता देने के पक्ष में थे, लेकिन बाकी तीन न्यायाधीशों ने इसका विरोध किया।

17 अक्टूबर को दिए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने माना कि शादी करना मौलिक अधिकार नहीं है।

अदालत के फैसले से समलैंगिक लोगों को समानता के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ेगा

सुप्रीम कोर्ट का समान लिंग के व्यक्तियों के बीच शादी को कानूनी मान्यता देने से इनकार करना, देश के समलैंगिक समुदाय के लिए बड़ा कानूनी धक्का है। हाल के वर्षों में कानून में हुई प्रगति और व्यक्तिगत अधिकारों के गहरे होते अर्थ को देखते हुए, व्यापक रूप से यह उम्मीद थी कि पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ विशेष विवाह अधिनियम (कोई भी दो लोगों को शादी की इजाजत देने वाला कानून) की लिंग-निरपेक्ष व्याख्या करेगी, ताकि समान लिंग के लोगों को इसमें शामिल किया जा सके। समय के साथ, निजता, गरिमा और वैवाहिक पसंद के अधिकारों को समाहित करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 21 का आयाम विस्तृत किया गया है। लेकिन, सर्वोच्च अदालत ने एक अतिरिक्त कदम उठाने से खुद को रोक लिया है, जिसकी जरूरत वैसे विवाहों या विवाह जैसे कानूनी बंधनों (सिविल यूनियन) की इजाजत देने के लिए थी जो विपरीत-लिंगी नहीं हैं। सभी पांच न्यायाधीशों ने इस तरह का कानून बनाने का काम विधायिका पर छोड़ना चुना है।

भारत के प्रधान न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और जस्टिस संजय किशन कौल ने फैसला दिया है कि समलैंगिक जोड़ों को अपने मिलन (यूनियन) के लिए मान्यता हासिल करने का अधिकार है, लेकिन साथ ही विशेष विवाह अधिनियम के उस आशय के प्रावधानों में काट-छांट करने (रीड डाउन) से इनकार किया है। दूसरी तरफ, न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट्ट, हिमा कोहली और पी.एस. नरसिम्हा ने इस नजरिए को खारिज किया है और कहा है कि कोई भी ऐसी मान्यता विधायिका द्वारा बनाये गये कानून पर ही आधारित हो सकती है। यानी, अदालत ने सरकार के इस दृष्टिकोण को स्वीकार किया है कि समलैंगिक शादियों को कानूनी बनाने का कोई भी कदम विधायिका के अधिकार-क्षेत्र में आयेगा।

विवाह वास्तव में एक सामाजिक संस्था है, और एक वैध विवाह के लिए अपनी कानूनी जरूरतें और शर्तें हैं। विवाह के जरिए सामाजिक और कानूनी वैधता हासिल करने का अधिकार व्यक्तिगत पसंद का मामला है जिसे संविधान से संरक्षण प्राप्त है, लेकिन शीर्ष अदालत अब भी इसे विधायिका द्वारा बनाये गये कानूनों की सीमाओं के अधीन ही मानती है। बहुमत इस नजरिए के पक्ष में नहीं है कि समलैंगिक जोड़ों को बच्चे गोद लेने का अधिकार है, लेकिन इस बात पर अल्पमत से सहमत है कि परालिंगी (ट्रांस) व्यक्तियों के विपरीत-लिंगी वैवाहिक संबंध में प्रवेश करने पर कोई रोक नहीं है।

न्यायाधीशों के बीच इस बात पर कोई असहमति नहीं है कि ऐसे समलैंगिक जोड़ों को साथ रहने और उत्पीड़न व धमकियों से मुक्त होने का अधिकार है। यह देखते हुए कि भारतीय आबादी का बड़ा हिस्सा समलैंगिक शादियों को कानूनी बनाये जाने का धार्मिक और सांस्कृतिक आधार पर विरोध कर सकता है, संसद द्वारा ऐसी कोई पहल किये जाने की संभावना बहुत कम है। एलजीबीटीक्यूआईए+ समुदाय अब खुद को अदालत के इस निर्देश से दिलासा दे सकता है कि सरकार को समलैंगिक जोड़ों के अधिकारों व हकदारियों पर निर्णय के लिए एक कमेटी बनानी चाहिए। हालांकि, इस समुदाय को आगे काफी संघर्ष करना होगा जब तक कि समानता की बात मान नहीं ली जाती।

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