377 क़ानून तो बना लेकिन कितनी बदली QUEER कम्युनिटी की ज़िंदगी!

समलैंगिकता
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"हम दोनों ही एक दूसरे से बहुत प्यार करते हैं। लेकिन इस दुनिया को हमारे इस प्यार से कई तरह की दिक्कत है। यहां तक की हमारे परिवार को जिस दिन हमारे रिश्ते के बारे में पता चलेगा तो पता नहीं वह हमारे साथ क्या करेगें," यह कहना है गे कपल का, जो अपनी पहचान को इस समाज के सामने खुलकर नहीं रखना चाहते हैं। लेकिन इस साल हुई प्राइड मार्च में दोनों एक दूसरे का हाथ पकड़कर अपने प्यार का इजहार कर रहे थे।

कोरोना महामारी के बाद लगभग दो साल बाद इस बार जून महीने के पहले सप्ताह में दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राइड मार्च का आयोजन किया गया। जिसमें LGBTQ समुदाय के लोगों ने हिस्सा लेकर अपनी खुशी को जाहिर किया। इस प्राइड में कई लोगों ने हिस्सा लिया। द मूकनायक की टीम ने इस समुदाय के कुछ लोगों से बातचीत की। वह बताते हैं कि धारा 377 को निरस्त करने के बाद भी उनके जीवन में कोई खास बदलाव नहीं आया है।

आनंद भी दिल्ली की प्राइड मार्च में हिस्सा लेने आएं थे। उनका कहना है कि मैं बाय-सेक्सुएल हूं। मुझे इस बात पर गर्व है। मैं खुलकर इस बात को स्वीकार करता हूं। मैं दिल्ली यूनिर्वसिटी में पढ़ता हूं। धारा 377 की बात करते हुए वह कहते हैं कि भले ही सुप्रीम कोर्ट ने इस धारा को निरस्तर कर हमें बेडरुम के स्पेस को अपराधिक दायरे से बाहर कर दिया हो लेकिन जनता आज भी हमें स्वीकार नहीं कर रही है। वह कहते हैं, "मैं दिल्ली यूनिर्वसिटी में पढ़ता हूं। इसके बाद भी हमें हीन दृष्ठि से देखा जाता है। यहां तक कि लोग हमें चुप करवाने की कोशिश करते हैं और कहते हैं तुम लोग क्या ही अपनी बात रखोगे। सुप्रीम कोर्ट ने भले ही हमें अधिकार दे दिया हो। लेकिन हमें वह सुविधा नहीं मिल पाई है। जिसके हम हकदार हैं।"

कब आया था सुप्रीम कोर्ट का फैसला?

सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की बेंच ने छह सितंबर 2018 को समलैंगिकता पर अपना फैसला सुनाते हुए कहा था कि दो वयस्कों के बीच आपसी सहमति से बने संबंध गैर कानूनी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद भी लोगों को जीवन में राहत नहीं आई है।

दिल्ली के कबीर मान की ऐसी ही कहानी है। कबीर ने अपनी आपबीती बताते हुए कहा कि हमें प्यार का मतलब सिर्फ बदले में प्यार ही पता था। लेकिन ऐसा होता नहीं है। कबीर एक ट्रांस-मैन है। उन्होंने बताया कि प्यार और सिम्पैथी के नाम पर उनके साथ जो हुआ वह किसी के साथ न हो।

कबीर मान एक ट्रांसमैन हैं। तस्वीर: फ़ेसबुक
कबीर मान एक ट्रांसमैन हैं। तस्वीर: फ़ेसबुक

वह कहते हैं, "उनके घरवालों को उनकी सैक्सुएल आईडेंटी से कोई दिक्कत नहीं है। बल्कि उनके घरवालों ने तो उनकी इस पहचान को हंसते-हंसते स्वीकार कर लिया। इसलिए उन्होंने ऐसी उम्मीद अपनी गर्लफ्रेंड से भी की थी। जब आपको कोई इंसान यह भरोसा दिला दे कि वह आपको किसी भी कीमत पर स्वीकार कर सकता है तो आप उसके लिए क्या करेंगे? मैंने भी वही किया जो एक आम इंसान करता है। लेकिन मेरी गर्लफ्रेंड और उसकी कजिन ने मुझे परेशान किया व डरा कर लगभग 10 लाख रुपए ले लिए।"

इससे कबीर थोड़ा परेशान होते हैं और वे आगे कहते हैं, "यह सारे पैसे मैंने अपने ट्रीटमेंट के लिए रखे थे। इतना सब होने के बाद जब मैंने इस बात की शिकायत पुलिस थाने में करवानी चाही तो पुलिस ने भी मेरा साथ नहीं दिया। उल्टा मुझे ही डराने-धमकाने लगे। यहां तक कि मुझ पर तरह-तरह के प्रेशर डालने लगे।"

ट्रांसजेंडर और LGB के लिए है अलग नियम!

धारा 377 में मुख्य रुप से बात शारीरिक संबंधों पर की गई है। लेकिन इसके तरफ पहचान को जाहिर करना और अपने आप को स्वीकार करना भी अभी भी बहुत बड़ा चैलेंज है। सक्षम प्राकृतिक वेलफेयर सोसाइटी, जो एक एनजीओ है। यह LGBTQ समुदाय के लोगों को आर्थिक रूप में सक्षम बनाने में मदद करता है। ताकि लोगों को मैनस्ट्रीम में लाया जाए, जिससे उन्हें अच्छी नौकरी मिलने में आसानी हो। इस एनजीओ के अध्यक्ष धनंजय चौहान है, जिनका कहना है कि शहरों में भले ही बदलाव की एक बयार जरूर चली है। लेकिन गांव देहात में आज भी लोग अपनी पहचान को खुलकर नहीं बता पाते हैं। स्थिति यह है कि आज भी समलैंगिकता को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं।

वह कहते हैं, "हमें ट्रांसजेंडर और गे-लेस्बियन के अधिकारों में फर्क को थोड़ा बारीकी से समझने की जरूरत है। ट्रांसजेडर की लड़ाई उनकी पहचान की है। जबकि गे-लेस्बियन और बायसेक्सुएल की लड़ाई बेडरूम पार्टनर की है। इसी को मद्देनजर रखते हुए 13 दिसंबर 2013 को दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को निरस्त कर सुप्रीम कोर्ट ने समलैगिंकता को अपराध मना था। इसके बाद साल 15 अप्रैल 2014 को सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर को सारे अधिकार देते हुए उनको थर्ड जेंडर माना था। इसके बाद लगातार बढ़ती मांग के बीच धारा 377 को निरस्त किया गया। जो मुख्य रूप से LGB के अधिकारों की बात करता है।"

धनंजय कहते है कि कानून में इतना बदलाव आने के बाद भी कुछ चीजें ऐसी है जिन में बदलाव होने के जरूरत है। इस वक्त हिमाचल सरकार के संस्कृतिक मंत्रालय द्वारा एक कविता पाठ का आयोजन किया गया। इसमें LGBTQ के सदस्यों को भी मंच प्रदान किया गया। मंत्री, राजनेता आज भी सिर्फ ट्रांसजेंडर को ही तव्वजो देते हैं। लेकिन LGB का जिक्र भी नहीं करते। इसे बदलने की जरूरत है। सिर्फ कानून पास कर देने से कुछ नहीं होता है। बल्कि उस कानून को पालन करने से समाज आगे बढ़ता है।

धनंजय की बात काफी हद तक सच में दिखाई भी देतीं हैं। हम खबरों में अक्सर देखते हैं — पहला ट्रांसजेंर वह बना, या उसने वह नौकरी हासिल की। जबकि LGB की इतनी चर्चा नहीं होती है। या हम यूं कह सकते हैं कि हमने उस पर कभी खुलकर बात ही नहीं की है।

छत्तीसगढ़ में कांस्टेबल कोमल साहू उर्फ राम
छत्तीसगढ़ में कांस्टेबल कोमल साहू उर्फ राम

पिछले साल छत्तीसगढ़ की सरकार ने एक ऐसा काम किया जिसकी सराहना पूरे देश में हुई थी। साल 2021 में छत्तीसगढ़ पुलिस महकमे में 13 ट्रांसजेंडर की कांस्टेबल के तौर पर भर्ती हुई। इन 13 में से एक है कोमल साहू उर्फ राम। कोमल इस वक्त छत्तीसगढ़ के धमत्तरी के एक थाने में कांस्टेबल के पद पर तैनात है।

वह बताती है, "पिछले साल से हमारी जिदंगी में बदलाव आया है। नहीं तो हमारा भी वही हाल होता था, जो बाकी ट्रांसजेंडर का होता था। कानून बनने के बाद भी जब हमारी परीक्षा कांस्टेबल के लिए हो रही थी तो लोग हमारा मजाक उड़ा रहे थे। जिस वक्त हम दौड़ के लिए गए तो वहां मौजूद लोग कहते ये मामू, छक्के लोग कैसे दौड़ेगे ये लोग दौड़ेगे तो ताली कौन बजाएंगे।"

इन सब को याद कर कोमल का मन थोड़ा भारी हो जाता है। वे आगे कहती है, "हर जगह जागरुकता अभियान चलाए जाते हैं कि हमारे साथ किसी तरह की बतमीजी न हो। लेकिन यहां तो युवा ही हमारा मजाक उड़ाता है। जो देश का भविष्य है। वही देश के भविष्य को खत्म कर रहा है।"

विद्या राजपूत, मितवा की फाउंडर
विद्या राजपूत, मितवा की फाउंडर

पता चलते ही परिवार ने भेज दिया पागलखाने

"आप भले ही कितने ही कानून क्यों न बना लो, जब तक जनता उसको स्वीकार नहीं करेगी तब तक कोई बदलाव नहीं होगा।" ये कहना है विद्या राजपूत का, जो छत्तीसगढ़ में काफी लंबे समय से LGBTQ के अधिकारों के लिए लड़ने वाली मितवा फांउडेशन की फांउडर हैं।

विद्या बताती है, "मैंने एक शेल्टर होम खोल रखा है, जिसमें मैं इस समुदाय को लोगों को शरण देती हूं, साथ ही उन्हें आर्थिक रुप से मजबूत बनाने के लिए स्किल पर काम कराती हूं। ताकि, लोग खुलकर अपनी पहचान के साथ जी सके। इतना कुछ करने के बाद भी कई बार माता-पिता अपने बच्चों को वापस लेने जाते हैं। मेरे पास कई ऐसे बच्चे आएं हैं, जो उस घुटन वाली जिदंगी को जी नहीं पाएं और अपनी पहचान के साथ जीना चाहते हैं।"

"पिछले सप्ताह ही एक गे शख्स मेरे शेल्टर होम में आया। मैंने उसे अपने यहां शरण दी। कुछ दिन बाद उसके घरवालों को उसके ठिकाने की जानकारी मिल गई और परिवार वाले उसे लेने आ गए। उसके परिजन उसे वापस ले जाकर आगरा के मेंटल अस्पताल में भर्ती करा दिए। ऐसी स्थिति में हम कैसे कह दें की चीजें बदल गई हैं," सवाल उठाते हुए वह कहती हैं।

LGBTQ समुदाय के लोगों पर लंबे समय तक शोध करने वाले शोधार्थी डिसेंट साहू का कहना है, "धारा 377 पर बहसों व गैर अपराधीकरण किए जाने के कारण एलजीबीटीक्यूआई+ समुदाय के सदस्य अपनी यौन रुझान को लेकर खुलकर बाहर आने लगे हैं। यौन व जेंडर भिन्नता को लेकर समुदाय के सदस्यों में खुद को असमान्य या कमतर समझने की प्रवृत्ति कम हुई है। कुछ हद तक व्यापक जनसमुदाय में जेंडर व यौन विविधता को लेकर स्वीकार्यता बढ़ी है, लोग इस समुदाय के द्वारा सामना किए जाने वाले समस्याओं को लेकर जागरूक हुए हैं। समलैंगिक संबंध के गैर अपराधीकरण करने के बाद भी विवाह और गोद लेने संबंधी अधिकार प्राप्त करने के लिए समुदाय के सदस्य संघर्षरत हैं। समुदाय के सदस्यों के समक्ष पारिवारिक स्वीकार्यता प्राप्त करना भी बड़ी चुनौती है जिसे कुछ सदस्य सबसे बड़ी चुनौती मानते हैं।"

जोया लोबो
जोया लोबो

देश पहली ट्रांस फोटो जर्नलिस्ट जोया लोबो का कहना है कि भले ही कानून बन गया है लेकिन आज भी हमारे समझ के लोगों को कई तरह से प्रताड़ित किया जाता है। वह कहती हैं, "मैं देश की पहली फोटो जर्नलिस्ट हूं जो लोग मुझे जानते हैं। जो थोड़ी रिस्पेक्ट देते हैं। लेकिन, जब मैं मुंबई लोकल ट्रेन में जाती हूं तो लोग आज भी मेरा मजाक उड़ाते हैं। कानून जरूर बना दिया गया है। लेकिन आज भी हमारे समझ के लोगों को समाज ने स्वीकार नहीं किया है।"

धारा 377

IPC की धारा 377 पर 6 सितंबर 2018 को सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की पीठ ने अपने फैसले को सुनते हुए कहा कि, दो वयस्क की आपसी सहमति से बनाए गए सम्बंध गैरकानूनी नहीं हैं। लेकिन बच्चों और जानवरों के साथ संबंध बनाना गैरकानूनी है।

15 अप्रैल 2014 का सुप्रीम कोर्ट का फैसला

सुप्रीम कोर्ट ने 15 अप्रैल 2014 को ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए ट्रांसजेंडर को लिंग के आधार पर थर्ड जेंडर का दर्जा दिया। इसके साथ ही किन्नरों को थर्ड जेंडर का अधिकार देने वाला भारत पहला देश बन गया था। 

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