नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने 17 अक्टूबर को समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया था। वहीं, अब इस फैसले के खिलाफ शीर्ष अदालत में एक पुनर्विचार याचिका दायर की गई है। इस याचिका में चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया की अगुआई वाली पांच जजों की संवैधानिक पीठ के फैसले को चुनौती दी गई है। इस याचिका में 17 अक्टूबर के उस फैसले की समीक्षा का अनुरोध किया गया है, जिसमें समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने से इनकार कर दिया गया था। उदित सूद नाम के एक व्यक्ति ने यह पुनर्विचार याचिका दायर की है।
पांच न्यायाधीशों वाली जिस संविधान पीठ ने मामले पर फैसला सुनाया था उसमें चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजय किशन कौल, जस्टिस हिमा कोहली, जस्टिस एम रविंद्र भट और जस्टिस पीएस नरसिम्हा शामिल थे.
सेम सेक्स मैरिज की मांग वाली कम से कम 18 याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में दायर की गई थी. शीर्ष अदालत ने मामले पर अप्रैल से सुनवाई शुरू की थी। संविधान पीठ की ओर से दस दिन की सुनवाई के बाद 11 मई को फैसला सुरक्षित रख लिया गया था। इसके बाद 17 अक्टूबर को फैसला सुनाया गया।
चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने कहा था कि समलैंगिक विवाह की कानूनी वैधता एक विधायी मामला है। ऐसी अनुमति केवल कानून को जरिये दी जा सकती है, जो बनाना कार्यपालिका का काम है. कोर्ट विधायी मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक जोड़ों को बच्चे गोद लेने आदि समेत कई तरह की छूट के लिए कानूनी प्रक्रिया तैयार करने का निर्देश केंद्र सरकार को दिया था। अब इसी फैसले पर पुनर्विचार की मांग की गई है।
भारत सरकार ने कोर्ट में समलैंगिक विवाह का विरोध किया था। सरकार की नजर में यह सेम सेक्स मैरिज का विचार पश्चिमी जगत का है और शहरों में रहने वाले अभिजात वर्ग (एलीट क्लास) की ओर से इसकी मांग की जा रही है। बता दें कि 2018 में सुप्रीम कोर्ट ने भारत में समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से अलग कर दिया था, तब से समुदाय की ओर से समलैंगिक विवाह पर कानूनी मान्यता की मांग जोर पकड़ रही है।
पुनर्विचार याचिका के मुताबिक, फैसले में विलक्षण समुदाय के साथ होने वाले भेदभाव को माना गया, लेकिन इस भेदभाव के असली कारण को नहीं हटाया गया है। विधायी विकल्प समलैंगिक जोड़ों को समान अधिकारों से वंचित करके उन्हें इंसानों से कमतर मानते हैं। सरकार का स्टैंड दिखाता है कि प्रतिवादी LGBTQ लोगों को एक समस्या मानते हैं। याचिका में आगे कहा गया है कि बहुमत के फैसले ने इस बात की अनदेखी की है कि शादी मूल रूप से सुलभ सामाजिक अनुबंध है. इस अनुबंध का अधिकार सहमति देने में सक्षम किसी भी व्यक्ति के लिए उपलब्ध है। किसी भी धर्म या बिना विश्वास वाले वयस्क इसमें शामिल हो सकते हैं। लोगों का कोई भी समूह दूसरे के लिए यह परिभाषित नहीं कर सकता कि 'विवाह' का क्या अर्थ है।
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