"चुनाव के समय मजदूर जाति, धर्म व वर्गों में बंटता नजर आता है। वह अपनी मांगों को लेकर मुखर नहीं है, इसलिए राजनीतिक पार्टियों का ध्यान भी मजदूरों व उनके मुद्दों की ओर नहीं जाता।"
उत्तर प्रदेश के असंगठित क्षेत्रों में 6.66 करोड़ श्रमिकों के सामने काम न मिलने की चुनौती।
लखनऊ। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कांग्रेस पर निशाना साधते हुए लोकसभा में बीते सोमवार को कहा कि "जाओ तुम उत्तर प्रदेश के हो, जाओ तुम बिहार के हो, वहां कोरोना फैलाओ…" प्रधानमंत्री के अनुसार कोरोना संक्रमण के दौरान लगाए गए प्रथम लॉकडाउन में कांग्रेस व आप पार्टी के लोगों ने उत्तर प्रदेश व बिहार के मजदूरों को घर वापस जाने के लिए भड़काया। इस बयान का दोनों ही पार्टियों ने कड़ी आपत्ति जताई।
प्रधानमंत्री के बयान के बाद एक बार फिर से चर्चा के केन्द्र में आए मजदूरों के हाल जानने और श्रमिकों के संदर्भ में विधानसभा चुनाव की नब्ज टटोलने के लिए द मूकनायक टीम ने लखनऊ शहर के विभिन्न लेबर अडडों का भ्रमण कर मजदूरों व श्रमिक संगठन के प्रतिनिधियों से बातचीत की।
"लेबर अड्डे पर खड़े होते हुए पांच साल हो गए हैं। पहले तो महीने में 20 दिन दिहाड़ी जरूर मिल जाती थी। अब 10 दिन मिल जाए तो बड़े भाग्य।" लखनऊ के पॉश इलाके में इंदिरा नगर के सेक्टर-सी लेबर अड्डे पर काम की तलाश में खड़े होने वाले विजय कुमार द मूकनायक से मायूसी होकर कहते हैं।
उनके कामकाज के बारे में थोड़ा और पूछने पर वह बताते हैं कि, "लॉकडाउन से पहले आमदनी अच्छी हो जाती थी। कमरा लेकर परिवार के साथ रहता था, लेकिन लॉकडाउन के बाद काम बहुत कम हो गया है। लेबर अड्डे पर आते तो हैं, लेकिन काम नहीं मिलता तो वापस मायूस लौटना पड़ता है।"
"आमदनी नहीं है तो रूम खाली कर दिया है। बीबी-बच्चों को गांव छोड़ आया हूं। मैं यहीं पास में रैन बसेरे में रहने लगा हूं।" -विजय ने कहा।
विजय से बातचीत का क्रम आगे बढ़ाते हुए जब यह पूछा गया कि विधानसभा चुनाव है, किसको वोट करेंगे तो वह असहज दिखे। हालांकि, उन्होंने कहा कि, जो पार्टी मजदूरों के हित में काम करेगी उसे वोट देंगे।
इंदिरा नगर लेबर अड्डे से करीब पांच-छह किलोमीटर दूर तकरोही लेबर अड्डे पर काम की तलाश में खड़े होने वाले प्रमोद कुमार कहते हैं कि, लॉकडॉउन के बाद से निर्माण कार्य ठप्प हो गया है। लेबर अड्डों से बहुत कम काम मिल रहा है। हालत यह है कि लोग 200-250 रूपए पर काम करने को राजी हो जा रहे हैं।
"पहले लेबर को कम से कम 350, हेल्पर को 400 और राजमिस्त्री को 650 से 700 रूपए मिलते थे। काम नहीं है तो मजदूर साथी मालिक या ठेकेदार से ज्यादा मोलभाव भी नहीं कर पा रहे हैं। सरकार भी मजदूरों के लिए कुछ नहीं कर रही है।" प्रमोद ने काम न मिलने पर दुख जताते हुए कहा। विधानसभा चुनाव में कौन सी पार्टी जीतेगी? इस पर बोलने से प्रमोद कतराते दिखे।
असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के बीच काम कर रहे दिहाड़ी मजदूर संगठन के लखनऊ जिला अध्यक्ष राम जन्म भारती से मजदूरों की इस चुप्पी पर बात की गई। उन्होंने बताया कि, "शहर के भीतर करीब 32 छोटे-बड़े लेबर अड़डे हैं। इन लेबर अड़डों पर 30 से 40 हजार मजदूर रोज सुबह काम की तलाश में एकत्र होते हैं। जिनमें से एक दिन में 35 से 45 प्रतिशत लोगों को ही काम मिलता है।"
रामजन्म ने द मूकनायक को आगे बताया, "मजदूरों की समस्याओं को लेकर संगठन मुखर है। संगठन सभी पार्टियों को मांग पत्र भी सौंपता है। विभिन्न राजनीतिक दल इन मांगों को अपने मेनी फेस्टो में शामिल भी करते हैं।" हालांकि, इन मांगों पर पुख्ता काम नहीं हुआ है।
आगामी विधानसभा चुनाव में मजदूरों की समस्या चुनावी मुद्दों क्यों नहीं है, इस सवाल के जवाब में भारती कहते हैं कि, "मजदूर के मुद्दों का राजनीतिकरण नहीं होने के पीछे मुख्य कारण मजदूरों का चुनावों में 'मजदूर की पहचान' के साथ मतदान के लिए नहीं जाना है। चुनाव के समय मजदूर जाति, धर्म व वर्गों में बंटता नजर आता है। वह अपनी मांगों को लेकर मुखर नहीं है, इसलिए राजनीतिक पार्टियों का ध्यान भी मजदूरों व उनके मुद्दों की ओर नहीं जाता। इसी के चलते प्रधानमंत्री भी ऐसे बयान देने में हिचकते नहीं है।"
"हम जिनको असंगठित मजदूर मानते हैं, वे समाज के जिन हिस्सों से आते हैं या जिस जाति समूहों से आते हैं, उत्तर प्रदेश व बिहार में उनकी एक राजनैतिक पहचान व उनकी राजनीतिक पार्टियां हैं। इनमें हम जिनको सबसे ज्यादा चिन्हित करते हैं। उनमें निर्माण मजदूर है जो शहरों में जाकर नाकों पर काम की तलाश में खड़े होते हैं। जब उनको सामाजिक व जातीय आधार पर देखेंग तो इनमें से अधिकांश दलित व पिछड़े समाज से आते हैं। इनके नेता अपने जातीय समूह के लोगों के रोजी-रोटी व सामाजिक सुरक्षा जैसे अहम मुद्दों की राजनीति नहीं करते हैं। इसके साथ ही सिविल सोसायटी के लोग इन जातीय समूहों की चेतना को एक मजदूर की चेतना के रूप में संगठित नहीं कर पाए हैं। इसलिए विधानसभा चुनावों से मजदूरों के मुद्दे गायब हैं। इस संदर्भ से समझेंगे तो आप को पता चलेगा कि कैसे प्रधानमंत्री आसानी से उपरोक्त बयान दे गए। जो उत्तर प्रदेश व बिहार से आने वाले कामगारों के लिए कितना आपत्तिजनक है।" मूवमेंट ऑफ राइट के नेशनल कन्वीनर व असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों के साथ एक दशक से भी अधिक समय से काम कर रहे अरविंद मूर्ति ने बताया।
"कोरोना महामारी के दौरान पहले और दूसरे लॉकडाउन में असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को बड़ी परेशाानी का सामना करना पड़ा। हालत अब भी नहीं बदले हैं। पहले केन्द्र सरकार के पास इस तबके के मजदूरों का कोई डाटा नहीं था। उच्चतम न्यायालय के आदेशों के बाद केंद्र सरकार ने पूरे देश में असंगठित क्षेत्र के 40 करोड़ मजदूरों के पंजीकरण का लक्ष्य निर्धारित किया है। जिसके तहत उत्तर प्रदेश को 06 करोड़ 66 लाख 07 हजार मजदूरों का पंजीकरण ई-श्रम पोर्टल पर करने का लक्ष्य दिया गया है। प्रदेश से अभी तक इस पोर्टल पर करीब 02 करोड़ 52 लाख मजदूरों का पंजीकरण हो चुका है और आगे पंजीकरण करने का क्रम जारी है।" अरविंद बताते हैं।
दिहाड़ी मजदूर संगठन की प्रमुख मांगे
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