उत्तर प्रदेश। 'हम वहां पर कई महीनों से नौकरी कर रहे हैं। हमें कम्पनी या ठेकेदार से कोई भी पहचान पत्र नहीं मिला है।' ...यह शब्द उत्तरकाशी में 18 दिन फंसे रहने के बाद अपने गांव लौटे मजदूर संतोष के हैं। संतोष ही नहीं अन्य पांच मजदूरों का भी यही कहना था कि उनका कम्पनी में कोई रजिस्ट्रेशन नहीं है। सिर्फ आधार कार्ड जमा कराया गया। कम्पनी यहां ठेकेदार से कोई पहचान पत्र नहीं जारी किया गया।
दरअसल, उत्तराखंड के उत्तरकाशी में 12 नवम्बर की सुबह 5:30 बजे तेज धमाके की आवाज के साथ टनल बैठ गई। 41 मजदूर अंदर फंस गये। खाने के नाम पर 24 घण्टे बाद लाई (चावल को भूनकर बनाया गया खाद्य) मिली। जबकि, पीने के लिये पहाड़ से टनल में रिसता हुआ पानी इकट्ठा करके पीना पड़ा। यह मजदूर बिना किसी लेबर रजिस्ट्रेशन के मजदूरी करने उत्तरकाशी चले गये। कारण मात्र 500 से 800 रुपये काम के अनुसार दिहाड़ी थी। इसके अलावा, महीने में मिलने वाली दिहाड़ी में ठेकेदार खाने और रहने का पैसा काटकर देता था। उत्तर प्रदेश में दिहाड़ी मजदूरी कम होने के कारण यह मजदूर उत्तरकाशी कमाने गये थे।
द मूकनायक की टीम उत्तरकाशी टनल में फंसे 41 मजदूरों में से 6 मजदूरों के पास यूपी के श्रावस्ती जिले के मोतीपुर गांव पहुंच गई। इन मजदूरों के गांव की स्थिति जितनी बदतर थी उससे कहीं अधिक उनके परिवार की आर्थिक स्थिति खराब थी। अधिकांश मजदूरों के पास अपने खुद के पक्के घर तक नहीं थे।
उत्तराखंड के उत्तरकाशी की 4531 मीटर लंबी सिलक्यारा टनल में 18 दिन तक फंसे 41 मजदूरों में से 8 मजदूर 1 दिसम्बर को लखनऊ पहुंचे थे। इन मजदूरों में एक मजदूर लखीमपुर खीरी जिले से था और एक मजदूर मिर्जापुर जिले से था। जबकि छह मजदूर श्रावस्ती जिले से थे। श्रावस्ती जिले के रहने वाले छह मजदूर 1 दिसम्बर की रात को अपने घर पहुंच गए। द मूकनायक की टीम लखनऊ से चलकर 2 दिसम्बर की शाम श्रावस्ती पहुंच गई।
उत्तरकाशी में फंसे हुए छह मजदूर लखनऊ से लगभग 200 किमी दूर श्रावस्ती जिले में नेपाल बॉर्डर के पास बसे गांव में रहते हैं। लखनऊ से लगभग 135 किमी दूर श्रावस्ती जिला मौजूद है। श्रावस्ती से भिनगा होते हुए सिरसिया तहसील की ओर 50 किमी का यह रास्ता जंगलों से भरा हुआ है। सिरसिया पहुंचते ही नेपाल के पहाड़ दिखाई दे रहे थे। सिरसिया रोड पर 10 किमी चलने पर दाई ओर एक उजड़ी सी सड़क मोतीपुर गांव को जाती है। सड़क से इसकी दूरी लगभग 7 किमी है। द मूकनायक की टीम मोतीपुर गांव पहुंची।
गांव में प्रवेश करते ही दाईं तरफ बदहाल स्थिति में पंचायत भवन मौजूद था। उसके आगे बढ़ते ही प्राईमरी स्कूल के बाहर कुछ लोगों की भीड़ मौजूद थी। डीजे लाईट और मंच बनाने में कुछ लोग जुटे हुए थे। उसी तख्त पर चमकते हुए जूते, जैकेट, पैंट-शर्ट में एक युवक शांत मुद्रा में बैठा हुआ था। वह सारी तैयारियों को होता देख रहा था। पास में ही एक दुकान मौजूद थी। हमने टनल से निकलकर गांव आये मजदूरों के घर के बारे में पूछा। एक व्यक्ति ने तख्त पर बैठे उसी युवक की तरफ इशारा कर दिया।
तख्त पर बैठे हुए व्यक्ति से जब द मूकनायक की टीम ने पूछा तो उसने बताया, "मैं अंकित कुमार हूँ। मैं ही उत्तरकाशी से अपने साथियों के साथ लौटकर आया हूं।" इसके बाद द मूकनायक की टीम अंकित के घर पहुंची। अंकित का घर मिट्टी और बांस की दीवारों से बना हुआ दिख रहा था। इसकी छत खपरैल से सजाई गई थी। इसी में अंकित की पत्नी, उसकी दो साल की बेटी और माता-पिता रह रहे हैं।
अंकित ने हादसे वाले दिन को याद करते हुए द मूकनायक को बताया, "हम सबकी 11 नवम्बर को सिलक्यारा टनल में नाईट ड्यूटी लगी हुई थी। 12 तारीख को दिवाली थी। हम सबने रात का काम खत्म कर लिया था। बस घर जाने के लिये सामान समेट रहे थे। इस बीच काम वाली जगह से लगभग 1 किलोमीटर दूरी पर धमाके की तेज आवाज आई। पास में काम कर रहा मजदूर दौड़ते हुए आया। वह घबराहट में था। उसने बताया कि टनल बैठ गई। बाहर जाने का रास्ता पूरी तरह बंद हो गया। हम सब यह सुनकर घबरा गये। बाहर की ओर कई आवाज लगाई। लेकिन कोई सुन नहीं पा रहा था।"
अंकित द मूकनायक को बताते हैं, "जब सिलक्यारा टनल का रास्ता बंद हुआ तब टनल के अंदर में तीन ठेकेदारों को 25 मजदूर ( दो ठेकेदारों के 10-10 जबकि एक ठेकेदार के पांच मजदूर) सहित 16 निर्माण करा रही कम्पनी के सुपरवाइजर और इंजीनियर सहित अन्य लोग मौजूद थे।"
अंकित आगे बताते हैं, "अंदर और बाहर मौजूद टीम का संपर्क टूट गया था। इस दौरान सभी डरे हुए थे। हमने किसी तरह पानी आने और जाने के लिये डाले गये पाईप में जेट पम्प डालकर साफ किया। इससे हमें बाहर की हवा और सम्पर्क के लिये मदद मिली। इस पाईप की सफाई में लगभग 20 घन्टा लग गया। बाद में इसी पाईप की सहायता से हमें तरल खाना मिल सका।"
अंकित कुमार आगे बताते हैं, "हमें लगभग 20 घंटे बाद लाई मिली। इसके अलावा कोई भी मजबूत खाना पहुंच पाना मुश्किल हो रहा था। इस लाई को खाकर सभी का पेट नहीं भर रहा था। हमारा शरीर भी लगातार कमजोर होता जा रहा था। फिर भी हम एक दूसरे का सहारा बने हुए थे। हमें खाना और फल 11वें दिन मिल सका था।"
अंकित सहित अन्य मजदूरों से भी द मूकनायक ने मुलाकात की, उन्होंने बताया, "पानी के लिये हम सब टनल से टपक रहे पानी को पीकर प्यास बुझाते थे। यह पानी एक टैंकर में इकट्ठा हुआ करता था। बाद में इसका उपयोग किया जाता था।"
द मूकनायक श्रावस्ती के सिरसिया तहसील के मोतीपुर कलां गांव पहुंची थी। टनल से 18 दिन बाद निकलकर आये मजदूरों से बातचीत की। इन मजदूरों में चार मजदूर अंकित कुमार, जयप्रकाश, संतोष और रामसुंदर मोतीपुर कला के रहने वाले हैं। जबकि राम मिलन और सत्यदेव मोतीपुर कला ग्राम सभा के रानियापुर के रहने वाले हैं। इन सभी मजदूरों से द मूकनायक ने ठेकेदार या कम्पनी द्वारा मजदूरी के दौरान जारी किये गए पहचान पत्र के बारे में पूछा। सभी मजदूरों का यही कहना था कि ठेकेदार द्वारा सिर्फ आधार कार्ड जमा कराये गए हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें कोई पहचान पत्र नहीं जारी किया गया। सभी मजदूर 6 महीने या उससे अधिक समय से ठेकेदार के साथ काम कर रहे थे। वहीं टनल में फंसने के बाद आनन-फानन में बिना फोटो का एक पहचान पत्र 22 नवम्बर को जारी कर दिया गया। इसमें मुहर तक नहीं लगी है।
वहीं सिविल विभाग (कंस्ट्रक्शन) के जानकारों की माने तो उनका कहना है कि ऐसे कार्यस्थलों पर मजदूरों और कर्मचारियों का पहचान पत्र और लेबर रजिस्ट्रेशन होना अति आवश्यक है।मजदूरों और कर्मचारियों के रजिस्ट्रेशन के बाद मजदूरों की तनख्वाह (दिहाड़ी) ईपीएफ और एसआई कम्पनी द्वारा कटाकर जमा कराया जाता है। इसमें आधा अंश कर्मचारी जमा करते हैं जबकि आधा जमा करना कम्पनी का दायित्व होता है। यदि काम के दौरान कोई दुर्घटना होती है तो यह राशि ऐसे कर्मचारियों और मजदूरों के परिवारों का सहारा बनती है।
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