नई दिल्ली। सूरज की पहली किरण के साथ दिनचर्या की शुरूआत, नित्यकर्म निपटाकर तैयार होना फिर भीड़भाड़ भरी सड़कों को पार कर काम पर पहुंचना। यहां सीवर से आती बदबू स्वागत करती है। अनिच्छा जाहिर करने के बावजूद और यह मालूम होने कि सुप्रीम कोर्ट ने मैला ढोने या साफ करने की प्रथा पर प्रतिबंध लगा रखा है, अधिकारी के कहने पर बेमन काम करते है।
अधिकारी कहते हैं कि अगर तुम सीवर में नहीं उतरोगे तो तुमको दिहाड़ी नहीं मिलेगी। झिझक और डर के बाद आखिर सीवर में उतरते हैं। कांपते हाथों से बिना किसी सुरक्षा उपकरण के सीवर साफ करते हैं, लेकिन अब यह काम भी छिन गया है। यह कहानी है सीवर सफाईकर्मी पप्पू की।
जमुनापार निवासी 35 वर्षीय पप्पू सीवर सफाई कर्मचारी है। वह दिल्ली जल बोर्ड में काम करते थे। अकुशल मजदूर होने के कारण उनको संविदा पर नौकरी मिली थी, हाल में उनको बिना कारण बताए नौकरी से निकाल दिया गया है। उनकी तरह ही कई सफाई कर्मचारियों को गत 7 दिसंबर से नौकरी से निकाल दिया गया।
पप्पू से द मूकनायक ने बात की। उन्होंने एक चिंताजनक तथ्य पर प्रकाश डाला, जिसे हम सभी जानते हैं, लेकिन स्वीकार नहीं करते हैं। यहां तक कि जब सीवर के अंदर जाना गैरकानूनी घोषित कर दिया गया है, तब भी सफाई कर्मचारी सीवर के अंदर जाते हैं। ऐसा उच्च अधिकारियों के आदेश व जल्दी काम खत्म करने के दबाव के कारण होता है।
पूर्व सफाई कर्मचारी ने खुलासा किया, “सबसे पहले, जब मैंने सफाई का काम करना शुरू किया, तो मुझे ज्यादातर समय सीवर के अंदर जाना पड़ता था। सौभाग्य से, इसमें कमी आई है। जब से हमारी सुरक्षा के लिए कानून बने हैं, हम आम तौर पर सीवर के अंदर नहीं जाते हैं, लेकिन 6 महीने में एक या दो बार, मुझे अभी भी सीवर में जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है। सीवर का ढक्कन खोलने और उसे साफ करने के लिए मशीनों का उपयोग किया जाता है, लेकिन कई बार मशीन अच्छा काम नहीं कर पाती है। तब हमें मजबूरन सीवर के अंदर जाना पड़ता है।”
दिल्ली जल बोर्ड के पूर्व संविदा कर्मचारी 35 वर्षीय पप्पू को गलत सेवा अनुबंध के कारण नौकरी से हाथ धोना पड़ा है। अधिकारियों के लिए श्रमिकों की सुरक्षा और स्वास्थ्य चिंता का विषय नहीं है। पप्पू ने बताया, “सीवर में प्रवेश करने से पहले हमें कोई सुरक्षा उपकरण नहीं मिलते हैं। हमें कोई मॉस्क या पोशाक उपलब्ध नहीं कराई जाती जो ऐसी गंभीर स्थितियों में हमारी सुरक्षा कर सके।
हमें सिर्फ सुरक्षा बेल्ट प्रदान की जाती है, इससे अधिक कुछ नहीं। कानूनी तौर पर, हमें अंदर नहीं जाना चाहिए, लेकिन जब जूनियर इंजीनियर और अन्य अधिकारी हमसे ऐसा करने के लिए कहते हैं, तो हमारे पास उनकी बात मानने के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं होता है। संबंधित अधिकारी दिल्ली जल बोर्ड या स्वच्छता विभाग के अधीन हैं। ज्यादातर समय, हम अकेले ही सीवर के अंदर जाते हैं, लेकिन कभी-कभी कई सफाईकर्मी एक साथ सीवर में उतरते हैं।
सीवेज सिस्टम में अक्सर हाइड्रोजन सल्फाइड, कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और अमोनिया गैस होती हैं, जो न केवल हानिकारक होती हैं और खराब गंध देती हैं बल्कि सीवर के अंदर ऑक्सीजन के स्तर को भी कम कर सकते हैं। सफाई कर्मचारी ने सीवर में जाने के स्वास्थ्य जोखिमों के बारे में कहा, “अधिकांश सीवर में हानिकारक गैसें होती हैं जो स्वास्थ्य को प्रभावित करती हैं। हमारे शरीर में खुजली होती है और संक्रमण हो जाता है। कई बार हमारी आंखें भी इससे प्रभावित हो जाती हैं, जिससे नजर धुंधली हो जाती है। यदि बहुत अधिक गैस है, तो इससे ऑक्सीजन का स्तर कम हो जाता है और दम घुटने से मौत हो जाती है।
सीवर में जाना खतरनाक है या नहीं। अधिकांश श्रमिकों को यह सुनिश्चित करने के लिए कोई मशीन उपलब्ध नहीं कराई जाती है। सफाईकर्मियों ने अपने लिए एक अनोखी तकनीक विकसित की है। पप्पू ने बताया, “जब भी हम ढक्कन खोलते हैं, तो कॉकरोच देखते हैं। हमें कोई जीव दिखाई नहीं देता तो हम कुछ पत्थर गिरा देते हैं। यदि कोई रेंगने वाला कीट बाहर नहीं आता है, तो इसका मतलब है कि बहुत अधिक गैस है, और हमारे लिए अंदर जाना सुरक्षित नहीं है।
इधर, जमुनापार पप्पू के घर पर चीजें आसान नहीं हैं। अपने परिवार के बारे में बात करते हुए, उन्होंने बताया कि, “मेरी एक पत्नी है जो दिव्यांग है और दो बच्चे हैं। मैं अपने परिवार का एकमात्र कमाने वाला सदस्य हूं। मैं जो भी कमाता हूं वह न केवल मेरे बच्चों की ट्यूशन फीस में खर्च होता है बल्कि मेरी पत्नी की दवाओं और फिजियोथेरेपी के लिए भी खर्च होता है। वह थायरॉयड और मधुमेह संबंधी जटिलताओं से भी पीडि़त है, जिनकी दवाएं निजी फार्मेसियों से खरीदी जाती हैं। वह कमर से नीचे के हिस्से में लकवाग्रस्त है और घर के ज्यादातर काम करने में असमर्थ है।”
पप्पू आगे कहते हैं, “मेरे लिए बचत करना बहुत मुश्किल हो जाता है। चूँकि मुझे घंटे के हिसाब से भुगतान मिलता है, मैं किसी दिन अच्छा कमा लेता हूँ, लेकिन इसकी कोई गारंटी नहीं है कि मुझे अगले दिन भी काम मिलेगा।
दिल्ली जल बोर्ड में सफाई कर्मचारियों की नियुक्ति अक्सर संविदा के तहत की जाती है। सेवा को समाप्त करने के लिए एक महीने के नोटिस के नियम की भी पालना नहीं की जाती है। कई श्रमिकों में जागरूकता का भी अभाव है, जिसके कारण वे अपनी हक की लड़ाई नहीं लड़ पाते हैं।
श्रमिकों और नियोक्ताओं के बीच शक्ति असंतुलन भी है, जो न केवल पदों की वरिष्ठता से बल्कि जाति से भी प्रभावित होता है। अधिकांश सफाई कर्मचारी दलित हैं और वाल्मिकी या जाटव जाति से हैं। पप्पू ने अपने सेवा अनुबंध की समाप्ति के बारे में कहा, “चूंकि मुझे ठेका प्रणाली द्वारा बाहर कर दिया गया है, इसलिए मैं कोई स्थायी काम नहीं करता हूं। आजकल मैं लेबर चौक पर खड़ा होकर दिहाड़ी मिलने का इंतजार करता हूं। मैं एक मजदूर के रूप में और कभी-कभी राजमिस्त्री के रूप में काम करता हूं क्योंकि मेरे आजीविका कमाने के लिए अन्य कोई कौशल नहीं है। अगर मैं भाग्यशाली रहा तो कभी-कभी मुझे नौकरी के लिए 400 या कभी-कभी 500-600 रुपये मिलते हैं।
पप्पू की कहानी देश भर के श्रमिकों की हालत को बयां करती है। हर दिन इन श्रमिकों को अपनी नौकरी में जोखिम का सामना करना पड़ता है। यह अनुभव राजधानी के एक कर्मचारी का है तो देश में श्रमिकों के कामकाजी जीवन का अंदाज सहज ही लगाया जा सकता है।
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