भोपाल। मध्य प्रदेश सरकार ने हाल ही में जैन समाज के लिए जैन कल्याण आयोग के गठन की घोषणा की है। यह निर्णय मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की अध्यक्षता में दमोह जिले के सिंग्रामपुर में वीरांगना रानी दुर्गावती की स्मृति में आयोजित मंत्रिपरिषद की बैठक में लिया गया। जैन समाज के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक विकास को गति देने के उद्देश्य से गठित होने वाला यह देश का पहला ऐसा बोर्ड होगा। इस बोर्ड में एक अध्यक्ष और दो सदस्य होंगे, जिनमें श्वेतांबर और दिगंबर समुदाय के प्रतिनिधित्व का भी ध्यान रखा जाएगा।
हालांकि, इसी बीच राज्य अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग और राज्य महिला आयोग पिछले दो वर्षों से बिना अध्यक्ष और सदस्यों के कार्य कर रहे हैं, जिससे हजारों शिकायतें लंबित हैं और न्याय मिलने की प्रक्रिया ठप पड़ी है।
कैबिनेट की बैठक में पारित निर्णय के अनुसार, जैन कल्याण बोर्ड में एक अध्यक्ष और दो सदस्य होंगे। बोर्ड के कार्यकाल के लिए दो वर्ष तक श्वेतांबर और दो वर्ष तक दिगंबर समाज के प्रतिनिधि होंगे। इस बोर्ड का मुख्य उद्देश्य जैन समाज के आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक उत्थान को बढ़ावा देना है। सरकार का दावा है कि इस बोर्ड के गठन से जैन समाज को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने में मदद मिलेगी।
मध्य प्रदेश राज्य अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग और राज्य महिला आयोग पिछले दो वर्षों से बिना अध्यक्ष और सदस्यों के कार्य कर रहे हैं। मार्च 2023 से इन आयोगों के प्रमुख पद खाली हैं, जिससे हज़ारों शिकायतों का निराकरण नहीं हो पाया है। आयोगों के पास हर महीने बड़ी संख्या में शिकायती पत्र आते हैं, लेकिन बिना अध्यक्ष या सदस्यों के इन शिकायतों पर अंतिम निर्णय लेना संभव नहीं हो पा रहा है।
राज्य महिला आयोग के एक कर्मचारी के अनुसार, आयोग को प्रति माह लगभग 300 शिकायतें प्राप्त होती हैं, जिनमें महिलाओं के उत्पीड़न, हिंसा, और अन्य मामलों से संबंधित होती हैं। इनमें से कुछ शिकायतें निरस्त कर दी जाती हैं, लेकिन कई शिकायतें उचित जांच और सुनवाई की प्रतीक्षा में हैं। इसी तरह की स्थिति अनुसूचित जाति और जनजाति आयोग की भी है, जहाँ हज़ारों शिकायतें लंबित पड़ी हैं।
इन आयोगों की नियुक्तियों में देरी से नागरिकों के मौलिक अधिकारों का सीधा उल्लंघन हो रहा है। संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता का अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार प्रत्येक नागरिक को प्राप्त है। आयोगों में लंबित पड़ी शिकायतें इन मौलिक अधिकारों के उल्लंघन का उदाहरण हैं। न्याय पाने के अधिकार का हनन नागरिकों के लिए गहरी चिंता का विषय है, खासकर तब जब आयोगों के पास सिविल न्यायालय की शक्तियाँ हैं, और वे न्यायिक अधिकारों के तहत कार्य करते हैं।
राज्य अनुसूचित जाति/जनजाति आयोग और महिला आयोग के पास सिविल न्यायालय जैसी शक्तियाँ होती हैं। वे संबंधित विभागों से प्रतिवेदन मंगाकर सुनवाई करते हैं, और सरकार को अनुशंसा भेजते हैं। परंतु, अध्यक्ष और सदस्यों के बिना ये शक्तियाँ निष्क्रिय हो जाती हैं, जिससे शिकायतकर्ताओं को न्याय प्राप्त करने में काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है।
इन नियुक्तियों में देरी का प्रमुख कारण वर्ष 2020 से चल रहा न्यायिक विवाद है। कमलनाथ सरकार द्वारा की गई नियुक्तियों को भाजपा सरकार ने रद्द कर दिया था। इसके बाद प्रभावित सदस्य न्यायालय पहुँचे, और जबलपुर हाईकोर्ट ने सरकार के फैसले पर रोक लगा दी। इस न्यायिक प्रक्रिया के चलते आयोगों की नियुक्तियाँ अब तक लंबित हैं, और जनता को न्याय दिलाने की प्रक्रिया में बाधा आ रही है। हालांकि सरकार आयोगों में नियुक्तियों की प्रक्रिया शुरू कर सकती है।
राज्य अनुसूचित जाति आयोग के पूर्व सदस्य प्रदीप अहिरवार ने बताया, "सरकार ने संवैधानिक प्रक्रिया में हस्तक्षेप कर नियुक्तियाँ रद्द कीं, जिसका सीधा असर जनता के न्याय पाने के अधिकार पर पड़ा।"
संविधान के अनुच्छेद 338 और 338A के तहत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग की स्थापना की गई है, जिसका उद्देश्य इन वर्गों के कल्याण और उनके अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करना है। इसी प्रकार, राज्य महिला आयोग को महिलाओं के अधिकारों और उनके खिलाफ हो रहे अत्याचारों पर निगरानी रखने के लिए स्थापित किया गया है। इन आयोगों की नियुक्तियों में हो रही देरी संविधान के मौलिक सिद्धांतों के खिलाफ है, क्योंकि यह जनता के विश्वास को कमजोर करती है।
मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान सरकार के कार्यकाल के बाद आई डॉ. मोहन यादव की सरकार भी आयोगों में नियुक्तियाँ नहीं कर पाई है, जिससे इन संवैधानिक संस्थाओं की कार्यक्षमता पर गंभीर सवाल उठ रहे हैं। सरकार की प्राथमिकता में इन संस्थाओं की नियुक्तियाँ शामिल नहीं होने से जनता को न्याय मिलने में और भी देरी हो रही है।
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