Film review 'जोराम': जल-जंगल, जमीन और आदिवासी संघर्षों की कथा

फिल्म को दुनियाभर में कई अवॉर्ड मिल चुके हैं। साथ ही दुनियाभर के फिल्म फेस्टीवल में इसे सराहा गया है।
Film review 'जोराम': जल-जंगल, जमीन और आदिवासी संघर्षों की कथा
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नई दिल्ली। निर्देशक देवाशीष मखीजा और अभिनेता मनोज वाजपेयी की फ़िल्म 'जोराम' सिनेमाघरों में रिलीज हो चुकी है। इस फिल्म को दुनियाभर में कई अवॉर्ड मिल चुके हैं, साथ ही दुनियाभर के फिल्म फेस्टीवल में इसे सराहा गया है। वर्तमान कालखंड में पेड़, जंगल, प्रकृति और पर्यावरण के संरक्षण से जुड़ी फिल्में कम ही देखने को मिलती हैं।

जोराम फ़िल्म की कहानी का निष्कर्ष भी यही है कि जंगल, पर्यावरण को कॉन्क्रीट किस तादात में नुकसान पहुँचा रहा है। कहानी में आदिवासी दसरू जो नक्सली गैंग छोड़कर मुंबई में अपनी पत्नी वानो और बेटी जोरम के साथ रह रहा है। दोनों पति पत्नी मजदूरी करते हैं और जिंदगी में खुश रहने की कोशिश करते हैं, लेकिन फिर तभी उनपर हमला होता है।

वानो की जान चली जाती है और दसरू नन्ही सी जोरम को लेकर भागता है। गोलियों से बचने के लिए, झारखंड की फूलो कर्मा से बचने के लिए जिसके बेटे की मौत के लिए दसरू जिम्मेदार था। कभी गोलियां चलाने वाला दसरू आज गोली से ही भाग रहा है। यह कहानी आपका दिल दहला देगी। दसरू की भूमिका में अभिनेता मनोज वाजपेयी का जबरजस्त अभिनय देखने को मिलता है।

फ़िल्म शुरू होते ही दसरू दुधमुंही बच्ची को अपनी पत्नी की साड़ी से पीठ पर बांधे पांच साल बाद मुंबई से वापस झारखंड लौटा है। बच्ची बोल नहीं सकती। लेकिन, दसरू उससे बात कर रहा है। बातें भी क्या? उन हरे हरे पेड़ों की जिनकी छांव में ठीक झूले के सामने बैठ वह अपनी बीवी संग महुआ और पलाश के फूलों की बातें करते झुमरू गीत गाता था। उन नदियों की जिनमें उसकी पत्नी की बड़ी तमन्ना थी डुबकियां लगाने की। लेकिन, बस पांच साल में न हरे पेड़ रहे और न ही वह नदी।

नदी न दिखने के अपने सवालों का दसरू खुद ही उत्तर भी देता है, बांध बनाकर गुमा दिए होंगे कहीं यहीं। फिर पूरे परदे पर विशालकाय बांध दिखता है। फ्रेम के दाहिनी कोने में दसरू दिखता है, जंगल से बीनी लकड़ियों की आग जलाए, बहती धारा में दबोची गई मछलियां आग पर भूनते और अपनी बेटी ‘जोरम’ को उनका गोश्त चटाते।

फिल्म ‘जोरम’ देश के उस कालखंड की एक सच्ची तस्वीर है, जिसमें विकास के नाम पर पर्यावरण को हो रहे नुकसान की बात करना भी ‘गुनाह’ है। जल और जंगल की लड़ाई लड़ते दल और इलाके के नेताओं को एक तराजू पर तौल देने वाली ये फिल्म हर उस शख्स के दिल को छू जाने वाली है, जिसने विकास की राजनीति को अपने गांव, कस्बे और शहर के आस-पास महसूस किया है।

आदिवासियों को अपनी जमीन इस्पात कंपनी को बेच देने के लिए उकसाते एक युवक को माओवादी सरेआम उल्टा लटकाकर उसकी चमड़ी कील लगे डंडे से उधेड़ देते हैं। वह ‘उदाहरण’ बनाना चाहते हैं। बेटा मरता है तो उसकी मां, माओवादियों से बदला लेने निकलती है। दसरू भी कभी जंगल पार्टी में था। इस घृणित कांड के बाद वह शहर भाग जाता है। लेकिन, बेटे को खोकर संवेदनहीन हो चुकी मां का बदला उसका पीछा करता वहां तक आता है। इसके बाद की फिल्म दसरू के अपनी दुधमुंही बच्ची के साथ भागते रहने, उसके पीछे लगे मुंबई के दरोगा के सिस्टम से जूझते रहने और झारखंड में हुए विकास की असली तस्वीर दिखाने में बीतती है।

लोहे की खदानों के बीच खड़ा विशालकाय वृक्ष का एक ठूंठ इस फिल्म का सबसे बड़ा बिम्ब है। देखने में यह वही पेड़ लगता है जिस पर माडवी को उल्टा लटकाया गया था। इसी के आस-पास कहानी अपने उपसंहार को हासिल होती है लेकिन दसरू की कहानी अभी खत्म नहीं हुई है। वह अब भी भाग रहा है। वैसे ही जैसे इस देश का एक बड़ा तबका भाग रहा है। वह गांव से भागकर शहर आता है रोजी-रोटी कमाने। फिर उसे मिलती है प्रदूषित हवा और पानी तो वह फिर गांव की तरफ भागता है।

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