नई दिल्ली। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट के अनुसार साल 2018 और 2022 के बीच, भारत में खेती से जुड़े लोगों की आत्महत्याओं में लगातार वृद्धि देखी गई है। केवल साल 2019 अपवाद है, जब इसमें गिरावट दर्ज की गई थी। इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार कोविड-19 महामारी के बाद के दो वर्षों में, खेतिहर मजदूरों की आत्महत्याओं की संख्या किसानों की तुलना में कहीं अधिक है.
ये सोमवार को जारी एनसीआरबी की रिपोर्ट के कुछ निष्कर्ष हैं. रिपोर्ट से पता चला है कि 2022 में, भारत में कृषि क्षेत्र में 11,290 आत्महत्याएं हुईं. जो 2021 में रिपोर्ट की गईं 10,881 आत्महत्याओं से 3.75 प्रतिशत अधिक है. 2022 में इन पीड़ितों में से 5,207 किसान थे और 6,083 खेतिहर मजदूर थे. 2021 में, संबंधित संख्या 5,318 किसान और 5,563 खेत मजदूरों की थी। किसान की आत्महत्याओं से अधिक खेतिहर मजदूरों की आत्महत्याओं का चलन 2020 के बाद ही शुरू हुआ. 2020 में 10,677 कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं में से 5,579 किसान थे, और 5,098 खेतिहर मजदूर थे, इसी तरह, 2019 में, एकमात्र वर्ष था जब कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं में गिरावट दर्ज की गई. उस साल 5,957 किसानों और 4,324 कृषि मजदूरों ने अपना जीवन समाप्त कर लिया. 2018 में 5,763 किसानों ने आत्महत्या की और 4,586 खेत मजदूरों ने अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली।
एनसीआरबी की रिपोर्ट किसानों और खेतिहर मजदूरों की परिभाषा निर्दिष्ट नहीं करती है. परिचालन होल्डिंग का उपयोग सीमांत, छोटे, मध्यम और बड़े मजदूरों के बीच अंतर करने के लिए किया जाता है. 1 हेक्टेयर (2.5 एकड़) तक भूमि रखने वाले किसानों को सीमांत किसान कहा जाता है, जबकि छोटे किसानों के पास 1-2 हेक्टेयर तक भूमि होती है।
एनसीआरबी के आंकड़ों में एक और आंकड़ा आया है जो काफी चिंताजनक है. क्योंकि आंकड़ों के मुताबिक किसानों की तुलना में खेतीहर मजदूरों की मौत का आंकड़ा अधिक है. क्योंकि 2022 में आत्महत्या से हुई 11,290 मौतों में 53 फीसदी लगभग 6,083 मृतक कृषि मजदूर थे. यह आंकड़े इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते हैं क्योंकि पिछले कुछ वर्षों में देखा गया है कि एक औसत किसान परिवार की निर्भरता खेतों के उत्पाद से अधिक कृषि मजदूरी पर बढ़ती जा रही है. 2021 में जारी किए गए नेशनल सैंपल सर्वे में यह बात सामने आई थी.
सैंपल सर्वे में यह पाया गया था कि एक किसान परिवार की अधिकतम आय 4,063 रुपये थी, जो कृषि श्रम के बदले में मिलने वाली मजदूरी से आती थी. जबकि खेती और पशुधन से किसानों की कमाई का 2013 से लगातार घटता ही गया. कुल मिलाकर किसानों की आय में ज्यादा बढ़ोतरी नहीं हुई है. सर्वेक्षण, जो सबसे हालिया आधिकारिक डेटा है, से पता चला कि 2019 में मासिक आय केवल 10,218 रुपये प्रति माह थी.
एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक, सबसे अधिक आत्महत्या के मामले महाराष्ट्र से आए. यहां पर 4,248 कृषि मजदूरों ने आत्महत्या की. इसके बाद कर्नाटक में 2,392, आंध्र प्रदेश में 917, तमिलनाडु में 728 और मध्य प्रदेश में 641 मामले सामने आए. उत्तर प्रदेश में आत्महत्या के मामले में अधिक वृद्धि देखी गई. यहां पर 2021 की तुलना में किसान आत्महत्या के मामलों में 42.13 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इसके साथ ही छत्तीसगढ़ में 31.65 फीसदी की वृद्धि हुई. जबकि पश्चिम बंगाल, बिहार, ओडिशा, उत्तराखंड, गोवा, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, चंडीगढ़, दिल्ली, लक्षद्वीप और पुडुचेरी जैसे कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में किसानों के साथ-साथ खेतिहर मजदूरों के आत्महत्या के एक भी मामले सामने नहीं आए हैं.
किसान नेता राजीव यादव ने सरकार पर खेतीहर मजदूरों की अनदेखी का आरोप लगाया है। उन्होंने कहा कि अधिकांश खेतिहर मजदूर दलित और पिछड़े समाज से हैं। इसके चलते प्रशासनिक व राजनीतिक तबका इस ओर ध्यान नहीं देता। काम न मिलने से बेरोजगारी बढ़ी है. मजदूरी कम हुई है और काम के घंटे बढ़े हैं. लेबर लॉ में तब्दीली ने मनोवैज्ञानिक रूप से लोगों को जीवन के प्रति हताश किया है. बेतहासा महंगाई और खाने-पीने की वस्तुओं पर कारपोरेट का मनमाना एमआरपी ने दिहाड़ी खेतिहर मजदूरों को बाजार से दूर कर दिया है. क्रय शक्ति कमजोर हुई है. सिर्फ पांच किलो राशन से जीवन यापन नहीं हो सकता.
कोरोना के बाद डेंगू जैसी बीमारियों का शिकार बड़े पैमाने पर यही तबका रहा है. ईलाज इसकी क्षमता के बाहर हो गया है.यह तबका पिछड़ी, अति पिछड़ी और दलित जातियों का है जिनके हक अधिकार के प्रति सरकार उदासीन है.
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