उत्तर प्रदेश: सुरक्षित होने के बावजूद फसलों पर जैविक कीटनाशकों के उपयोग से क्यों दूर हैं किसान, जानिए क्या कहते हैं एक्सपर्ट्स?

स्वास्थ्य के प्रति फिक्रमंद लोगों में जैविक विधि से पैदा किए गए फल, सब्जियों और अनाज को खाने की चाह तो होती है लेकिन फसलों का उत्पादन करने वाले किसानों के सामने जैविक विधि से खेती करने की चुनौती होती है। जैविक खेती सुरक्षित होने के बावजूद किसान इससे दूर क्यों हैं, कीटनाशकों का फसलों पर उपयोग में कौन सी सावधानियां रखनी चाहिए, जानिए द मूकनायक की इस खास रिपोर्ट में।
फसलों, फलों और सब्जियों पर अंधाधुंध कीटनाशकों का उपयोग मानव स्वास्थ्य, मृदा और पर्यावरण के लिए खतरनाक होता जा रहा है.
फसलों, फलों और सब्जियों पर अंधाधुंध कीटनाशकों का उपयोग मानव स्वास्थ्य, मृदा और पर्यावरण के लिए खतरनाक होता जा रहा है. फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक
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उत्तर प्रदेश। राज्य में विशेष रूप पर बोई जाने वाली प्रमुख 3 फसलें ही हैं. इसमें धान, गेहूं और गन्ना शामिल है. लेकिन सीजन के हिसाब से कई तरह के अन्य फलों व सब्जियों की खेती भी बड़े पैमाने पर होती है. इनकी खेती के दौरान ज्यादा पैदावार के लिए किसान मार्केट में मिलने वाली भिन्न-भिन्न तरह के कीटनाशकों का उपयोग करते हैं जिनका हमारे स्वास्थ्य, मृदा और पर्यावरण पर सीधा असर पड़ता है. द मूकनायक ने यूपी में खेती करने वाले कुछ प्रगतिशील किसानों, सामान्य किसानों और कृषि विशेषज्ञ से बात कर यह जानने की कोशिश की कि फसलों में किस तरह के कीटनाशकों का उपयोग स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए आदर्श होता है, और कौन से कीटनाशकों का उपयोग किसानों को नहीं करना चाहिए। 

अभी खरीफ का सीजन चल रहा है. खरीफ की फसलों में कपास, मूंगफली, धान, बाजरा, मक्‍का, शकरकन्‍द, उर्द, मूंग, ज्‍वार, अरहर, ढैंचा, गन्‍ना, सोयाबीन,भिण्डी, तिल, जूट, सनई आदि की शामिल है. इनकी व्यापारिक खेती में किसान का मुख्य लक्ष्य अपनी उपज से मुनाफा कमाना होता है. ऐसे में किसान आधुनिक तकनीकों, उन्नत रासायनिक उर्वरकों, संशोधित बीजों सहित प्रभावी कीटनाशकों का भी खूब उपयोग करता है. हालाँकि, देश में बढ़ती जनसंख्या के लिहाज से अनाज, फलों और सब्जियों की आपूर्ति के लिए किसानों के पास अधिक उपज या अधिक उत्पादन के लिए अत्यधिक प्रभावी कीटनाशकों का उपयोग करना मजबूरी भी सामने आता है.

बस्ती जिले के निवासी, रिटायर्ड कर्नल के. सी. मिश्रा (71) जनवरी 2007 में सेवानिवृत्त होने के बाद 5 बीघे पक्के (सवा हेक्टेयर) में पूर्ण रूप से जैविक खेती करने लगे. वह 2012-13 में जैविक खेती के लिए सर्टिफाइड ग्रोवर भी रह चुके हैं। आज जिले में एक प्रगतिशील किसान की पहचान के साथ-साथ कर्नल के. सी. मिश्रा किसानों के लिए प्रेरणास्रोत भी बन चुके हैं. वह दावा करते हैं कि उनके खेतों में किसी भी तरह के रासायनिक उर्वरकों, मार्केट के कीटनाशकों का उपयोग नहीं होता है. वह अपनी हर फसल पूर्णतयः जैविक विधि से पैदा करते हैं. “मैं यह हमेशा से ध्यान रखता हूँ कि मेरे खेत में एक भी ग्राम यूरिया या डाई का उपयोग न हो”, उन्होंने कहा।

रिटायर्ड कर्नल के. सी. मिश्रा ने बताया, “जैविक या प्राकृतिक खेती में हर चीज का समाधान है, और प्रकृति में सभी चीजों का संतुलन भी है. यह असंतुलित होने पर, चाहे हमारा शरीर हो या हमारी जमीन पर लगाए गए फसल हों, प्रभावित हो जाते हैं.”

कर्नल के सी मिश्रा जैविक विधि और तकनीकी के माध्यम से कई तरह के सेबों के पौधों की भी रोपाई भी किये हैं. सभी पर फल भी लगते हैं.
कर्नल के सी मिश्रा जैविक विधि और तकनीकी के माध्यम से कई तरह के सेबों के पौधों की भी रोपाई भी किये हैं. सभी पर फल भी लगते हैं. फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

उन्होंने बताया कि जैविक खेती में ऐसे कई प्राविधान हैं जिनसे फसलों पर कीटों के प्रभाव का रोकथाम किया जा सकता है. उनके पास फलों, फूलों, सब्जियों और विभिन्न फसलों की बड़ी श्रंखला है. उन्होंने बताया कि उनके पास कुछ दुलभ पौधे भी हैं. जिनमें, अमरुद की 18 प्रजातियां, आम की 32 प्रजातियां, सेब की 3 प्रजातियां, यह सभी फ्रुटिंग स्टेज में हैं. इसके अलावा उन्होंने बताया कि, विलुप्त होते सिंदूर के पौधे, संतरा, किन्नू, मौसमी, लीची, एवाकार्डो, खेक्सी, पिस्ता, चीकू, ब्लैक ग्वावा सहित तमाम पौधे और सुपर फ्रूट (ऐसे फल जिनमें 40 से ज्यादा मिनरल्स और विटामिंस होते हैं) के पौधे हैं. उन्होंने बताया कि वर्षों पहले खेतों में बोई जाने वाली फसलें जैसे सांवां, कोदो, ककून, मड़ुआ (सफेद), लिटिल मिलेट्स की खेती कर चुके हैं और उनके बीज भी किसानों को बोने के लिए प्रोत्साहित करते हैं. 

कर्नल के सी मिश्रा के खेत में पूर्णतयः जैविक विधि से पैदा किये गए खीरे
कर्नल के सी मिश्रा के खेत में पूर्णतयः जैविक विधि से पैदा किये गए खीरेफोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

के. सी. मिश्रा फसलों, सब्जियों और फलों में जैविक कीटनाशकों के उपयोग करने के पक्षधर हैं। उन्होंने बताया कि खेतों में कीट-पतंगों और पौधों में लगने वाले रोगों की रोकथाम कई जैविक विधियों से तैयार कीटनाशकों से किया जा सकता है। पहली विधि के रूप में, बायो जैविक विधि के बारे में वह बताते हैं कि, “किसी पौधे में कीट लग रहे हैं तो उन कीटों को खाने वाले भी हमारे पर्यावरण में होते हैं। अगर किसी पौधे में कीट लगे हैं तो वहां उन कीटों को खाने के लिए दूसरे कीटों को पैदा करके हम अपने फल, सब्जी या फसल को बचा सकते हैं। इससे हमारी फसल को कोई नुकसान नहीं होगा और जो कीट फसल को नुकसान करते हैं उन्हें दूसरे कीट खा लेंगे।”

कर्नल के सी मिश्रा जैविक विधि और तकनीकी के माध्यम से कई ऐसे पौधों को अपने खेतों में लगा चुके हैं जो दुर्लभ हैं. और उच्च मिनरल्स और विटामिन्स वाले सुपर फ्रूट हैं.
कर्नल के सी मिश्रा जैविक विधि और तकनीकी के माध्यम से कई ऐसे पौधों को अपने खेतों में लगा चुके हैं जो दुर्लभ हैं. और उच्च मिनरल्स और विटामिन्स वाले सुपर फ्रूट हैं. फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

उदाहरण के तौर पर वह बताते है कि बायो जैविक मैथेड से अपनी फसल की सुरक्षा के लिए उसके पास दूसरे कीटों को लाना पड़ता है। जो आपके फसल में लगने वाले कीटों को खा लेते हैं। “टमाटर पर जो कीट पतंगे लगते हैं और उनको नुकसान पहुंचाते हैं, अगर उसके पास एक लाइन में मैरीगोल्ड (गेंद) का फूल लगा दें तो गेंदे पर जो कीट पतंगे आते हैं वह टमाटर पर लगने वाले कीटों को खाते हैं। टमाटर के बगल में गेंदे का फूल लगाने से जब उसके फूल में परागण होता है तब गेंदे पर वह कीट आते हैं जो टमाटर के पौधों पर लगने वाले कीटों को खा जाते हैं।” 

मिश्रा ने दूसरे उदाहरण को बताते हुए आगे कहा, “अगर अपने खेत के बीच में आप चिड़ियों को बैठने की जगह देते हैं तो वह भी आपकी फसलों की सुरक्षा करती हैं। इसमें आपको अपने खेतों में जगह-जगह “की” बना कर खेतों में गाढ़ देना है, इस पर जब चिड़ियाँ आकार बैठेंगी तब उनकी नजर में आने वाले कीटों की वह खा जाएंगी।” 

फसलों की सुरक्षा के लिए प्राकृतिक विधि के अलावा के. सी. मिश्रा ने एंजाइम कीटनाशक विधि के बारे में जानकारी दी, जिसका उपयोग वह अपने खेतों में कर रहे हैं। उन्होंने बताया कि फसलों की सुरक्षा के लिए तीन तरह के — मीठा, खट्टा, कड़वा — एंजाइम बनाकर उसका उपयोग फसलों की सुरक्षा के लिए करते हैं जो बहुत ही प्रभावी होता है।

कर्नल के सी मिश्रा के खेत में लगे एक सेब का पेड़.
कर्नल के सी मिश्रा के खेत में लगे एक सेब का पेड़. फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

उन्होंने बताया, “कड़वा एंजाइम उन तत्वों को लेकर बनाते हैं जिनको जानवर भी नहीं खाते हैं। इसमें एक सबसे कड़वा पदार्थ कालमेघ (चिरैता) है जो बहुत ही प्रभावी होता है। इसको बनने में 90 दिन लगते हैं। लेकिन इसे हम पहले से ही बना कर रखते हैं। इसे और प्रभावकारी बनाने के लिए इसमें सहजन के पत्ते, लहसुन, मिर्ची भी मिलाई जाती है। फसलों पर इसके छिड़काव से कीटों, चीटीयों और अन्य रोगों पर रोकथाम में मदद मिलती है।”

“फसलों में इस एंजाइम के छिड़काव के बाद यह एक पूरे वाइल्ड रेंज को कवर करता है। हम तो इसी से अपने सभी फसलों में कीटों से सुरक्षा के लिए उपयोग करते हैं। आम के पौधे पर भी यही छिड़काव करते हैं, धान के पौधे पर भी यही छिड़काव करते हैं”, कर्नल के. सी. मिश्रा ने द मूकनायक को बताया।

कर्नल के सी मिश्रा के खेत में पूर्णतयः जैविक विधि से पैदा किये गए लौकी
कर्नल के सी मिश्रा के खेत में पूर्णतयः जैविक विधि से पैदा किये गए लौकी फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

इसके अलावा मिश्रा ने वर्तमान खरीफ की प्रमुख फसल में जिंक की कमी से धान के पौधे में उसके पत्ते पीले पड़ जाते हैं, जिसपर गौ-मूत्र के छिड़काव कर फसल को सुरक्षित किया जा सकता है। भूमि सुधार के बारे में उन्होंने बताया कि, एक नई जैविक रिसर्च “गौ-कृपा अमृतमं” आई है। खेत में डालने के बाद इसका असर तुरंत तो नहीं दिखाई देता है लेकिन 4 - 6 महीने बाद जमीन से 90 प्रतिशत जीवाणु जो फसलों के लिए हानिकारक हैं यह सब खत्म हो जाते हैं।  

कृषि विज्ञान केंद्र बस्ती के कृषि वैज्ञानिक, फसल सुरक्षा, डॉ. प्रेम शंकर द मूकनायक को बताते हैं कि अभी खरीफ की फसल में जल्दी तैयार होने वाली धान की किस्मों की बालियाँ निकल आईं हैं। जबकि, देर से तैयार होने वाली किस्म जैसे काला नमक की फसल अभी रेडें पर (धान की कल्लियां निकलना) है। उन्होंने कहा, “इस बार जब हम किसानों के खेतों में गए तो हमें फसलों में तना भेदक कीट (stem borer), गंधी, हरी पत्ती का फुदका (green leafhopper) और पत्ती लपेटक (leaf folder) कीट की समस्याएं मिलीं। जहाँ लो लैंड एरिया (जल भराव वाले खेत) है. वहां पैडी (धान) में दीमक का भी प्रकोप देखा गया है”. 

पिछले वर्षों की अपेक्षा इस वर्ष खरीफ की फसल धान में रोग कम लगे हैं.
पिछले वर्षों की अपेक्षा इस वर्ष खरीफ की फसल धान में रोग कम लगे हैं. फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

“अगर हम पैडी में रोग की बात करें तो पिछले वर्षों की अपेक्षा इस वर्ष में जो फाल्स स्मेट (झूठी कंठ या हल्दिया) रोग है, वह कम हुआ है. क्योंकि लोग इसके बारे में जागरूक हुए हैं, किसान समय से दवा डाल रहे हैं. जिससे रोग में कमी आई है”, डॉ. प्रेम शंकर ने बताया. 

धान में लगने वाले रोग के बारे में वह आगे बताते हैं कि, “धान के पौधे में पोषक तत्व की कमी (nutrient deficiency) के कारण पत्तियां लाल, पीली या कत्थई हो जाती हैं. ऐसा जिंक और फेरस की कमी की वजह से होता है. ऐसे में किसान भाई जिंक सल्फेट और फेरस सल्फेट का उपयोग करें. इससे रोग से बचा जा सकता है.” इसके उपयोग के बारे में उन्होंने बताया कि अगर फेरस सल्फेट घोल में लेंगे तो 3 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से घोल तैयार करके या मोनो जिंक 3 ग्राम प्रति लीटर पानी की दर से बनाकर दोनों का छिड़काव करें. 

इसके अलावा उन्होंने बताया कि, “झूठा कंठ” (false smut) रोग लगने पर प्रोपिकोनाजोल (Propiconazole), जो बाजार में टिल्ट (Tilt) या ज़ेरोक्स (Zerox) के नाम से आता है, इसका 200 एमएल और स्टीकर मिलाकर प्रति एकड़ के हिसाब से घोल बनाकर छिड़काव करने से रोग समाप्त हो जायेगा. 

“अगर खेत में तना छेदक (stem borer) लगा है या गंधी लगी है, या फुदका लगा है, मतलब कीड़ा और बीमारी दोनों लगी है तो एक फंगीसाइड (Fungicide), एक इन्सेक्टीसाइड (Insecticide) - कीट नाशक, फफूंदीनाशक और स्टीकर - तीनों को मिलाकर घोल बनाकर छिड़काव करेंगे तो किसान को दोहरा लाभ होगा.”  कृषि वैज्ञानिक, फसल सुरक्षा, डॉ. प्रेम शंकर ने बताया. 

देर से पकने वाली धान की एक किस्म जिसके पौधों में अभी कल्ले निकल रहे हैं.
देर से पकने वाली धान की एक किस्म जिसके पौधों में अभी कल्ले निकल रहे हैं. फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

कृषि वैज्ञानिक, डॉ. प्रेम शंकर धान की फसल में रोग लगने पर कुछ अन्य कीटनाशक दवाओं के उपयोग का भी सुझाव देते हैं. उन्होंने कहा, “फिप्रोनिल (Fipronil), इमिडाक्लोप्रिड (Imidacloprid) आदि दवाओं के साथ स्टीकर का घोल बनाकर छिड़काव करने से कीड़ों का प्रभाव ख़त्म हो जाएगा.”

डॉ. प्रेम शंकर यह मानते हैं कि भारत सरकार भी प्राकृतिक खेती (Natural Farming) पर जोर दे रही है. मोटे अनाज पर बात चल रही ही. क्योंकि लगातार रासायनिक दवाइयों का प्रयोग करते-करते हमारा पर्यावरण दूषित हो गया और हमारी मृदा (मिट्टी) का स्वास्थ्य भी बिगड़ता चला गया. इसलिए मार्केट के कीटनाशकों की जगह बीजामृत (बीज शोधन में उपयोग), घनामृत (फंफूदी नाशक के रूप में उपयोग), आग्नेयास्त्र (फसलों में कीड़े लगने पर (उपयोग) और ब्रह्मास्त्र का उपयोग करें.

“कई बार किसानों द्वारा खेती के दौरान फसलों की देखरेख में अनियमितता हो जाती है. किसान सही से फसलों की निगरानी नहीं करते. अगर कोई रोग आज लगा और आप दो दिन बाद खेत जा रहे हैं तो वह रोग पूरे खेत को चपेट में ले लेता हैं. क्योंकि, अगर रोग 5 प्रतिशत से ऊपर पहुंचा गया और एक दिन भी आपने उसे वैसे ही छोड़ दिया तो आपका पूरा खेत बीमारी की चपेट में आ जायेगा. जिस ओर हवा बहेगी उस ओर के स्वास्थ्य पौधों को भी ग्रसित कर देगी. उसके बाद कोई दवा भी काम नहीं करती है.” डॉ. प्रेम शंकर ने किसानों को खेती के प्रति गंभीर रहने की सलाह देते हुए कहा. 

उन्होंने कहा, कई बार किसान तब जगता है जब उसकी फसल रोग से 10 - 15 प्रतिशत ग्रसित हो जाती है. इसलिए फसल में किसी भी तरह की बीमारी होने पर उसके शरुआती दौर में ही कृषि वैज्ञानिकों की सलाह लें. किसी भी फसल, फल, सब्जी के लिए किसी भी तरह का कीटनाशक उपयोग कर रहे हैं तो उसका खाने के लिए उपयोग करने में कम से कम एक सप्ताह तक बचें, क्योंकि कीटनाशक दवाएं जहरीली होती हैं, छिड़काव के बाद क्रॉप पर उनका असर 7 - 8 दिनों तक रहता है. जो हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हैं. 

उन्होंने कुछ ऐसे कीटनाशक दवाओं का नाम भी बताया जिनका उपयोग किसानों द्वारा किसी भी फसल पर कभी न करने की अपील की. जिसमें कोराजन (Coragen) और साईफरमैथ्रीन (cypermethrin) शामिल है जिनका उपयोग न करने की सलाह दी जाती है. 

बस्ती जिले के भानपुर तहसील के सेखुई गांव निवासी किसान अंकित वर्मा स्पष्ट शब्दों में बताते हैं कि जितनी जल्दी दुकान से ख़रीदे गए कीटनाशक का असर फसल पर होता है उतना तेज जैविक विधि से बनाये गए कीटनाशक का असर फसलों पर नहीं होता है. तत्काल रोकथाम के लिए किसान मार्केट से ख़रीदे गये कीटनाशक का उपयोग आसान मानता है. इसलिए जैविक कीटनाशक के प्रति किसानों का काम आकर्षण है. साथ ही ज्यादातर किसानों को जैविक विधि से कीटनाशकों को तैयार करने की जानकारी ही नहीं है। 

फसलों की अगर निरंतर देखभाल की जाए तो उसमें लगने वाले रोगों पर समय से रोकथाम लगाया जा सकता है.
फसलों की अगर निरंतर देखभाल की जाए तो उसमें लगने वाले रोगों पर समय से रोकथाम लगाया जा सकता है. फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

अमेरिका के कीट विज्ञान विभाग, कृषि और प्राकृतिक संसाधन महाविद्यालय, मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी में पीएचडी छात्र, शत्रुघ्न शिवा, जो उत्तर प्रदेश के निवासी हैं, द मूकनायक को उत्तर प्रदेश की फसलों के परिदृश्य में कीटनाशकों के उपयोग के बारे में बताते हैं कि, फसल उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि के साथ-साथ मिट्टी के स्वास्थ्य और मिट्टी की उर्वरता को लंबे समय तक बनाए रखने के लिए एक अच्छी एग्रीकल्चर प्रैक्टिस होना महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश देश में गन्ना, चावल, गेहूं, दालें, आलू और कई अन्य रबी और खरीफ फसलों जैसी आर्थिक फसलों के लिए जाना जाता है और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। हालाँकि, जलवायु परिवर्तन और कीटों के कारण किसानों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। कीट परागण, पोषक तत्वों के पुनर्चक्रण और जैव नियंत्रण के लिए मूल्यवान हैं, कुछ कीड़े अन्य छोटे कीड़ों को खाते हैं। 

शत्रुघ्न शिवा, पीएचडी छात्र, कीट विज्ञान विभाग, कृषि और प्राकृतिक संसाधन महाविद्यालय, मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी, यूएस
शत्रुघ्न शिवा, पीएचडी छात्र, कीट विज्ञान विभाग, कृषि और प्राकृतिक संसाधन महाविद्यालय, मिशिगन स्टेट यूनिवर्सिटी, यूएसफोटो- द मूकनायक

“प्रमुख समस्याओं में से एक है पौधों में लगने वाले कीट. कुछ कीट बड़े पैमाने पर फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं। फसल सुरक्षा और उत्पादन के लिए उचित कीटनाशक शिक्षा, तकनीकी ज्ञान और कीट प्रबंधन महत्वपूर्ण हैं”,  पीएचडी छात्र, शत्रुघ्न शिवा ने बताया. 

वह आगे बताते हैं कि, “छोटे और सीमांत किसानों के लिए, कीट प्रबंधन अभी भी एक बड़ी चुनौती है, हालांकि कई सरकारी योजनाएं हैं और कीटनाशकों के सर्वोत्तम अनुप्रयोग के लिए किसानों को प्रशिक्षण प्रदान किया जा रहा है। भारी हानि को रोकने के लिए कीट का शीघ्र पता लगाना और पहचान करना, क्षति के स्तर का मूल्यांकन करना और सर्वोत्तम उपचार का चयन करना आवश्यक है। फसलों में कीटनाशकों का उपयोग और रख-रखाव सटीक और पर्यावरण-अनुकूल होना चाहिए। किसानों को उत्पादन तकनीक (बुवाई के दौरान उचित अंतर, उर्वरक की खुराक, सिंचाई, कीट और रोग प्रबंधन, कटाई और कटाई के बाद की तकनीक) भी पता होनी चाहिए जो बेहतर उपज प्राप्त करने में मदद करती है। बेहतर कृषि रिटर्न के लिए कृषि बाजार पहुंच और कीमतों को समझना बहुत जरूरी है। प्रभावी कीट प्रबंधन के लिए कई गैर-रासायनिक कीट प्रबंधन रणनीतियाँ हैं जैसे वनस्पति, जैव कीटनाशकों, प्राकृतिक शत्रुओं और कम कीटनाशकों का उपयोग।”

“एक बायोपेस्टीसाइड (biopesticide), एजाडिरेक्टिन (azadirachtin), एज़ैडिरैक्टा इंडिका ए जूस (Azadirachta indica A. Juss) के बीज से निकाला जाता है, जिसे आमतौर पर नीम के रूप में जाना जाता है, जिसमें कई प्रकार की क्रियाएं होती हैं, जैसे कि विकर्षक (repellent), एंटीफ़ीडेंट (antifeedant), कीड़ों में बाँझपन (induces sterility) पैदा करता है। नीम एक बारहमासी पेड़ है जो मेलियासी (Meliaceae) परिवार से संबंधित है और भारत का मूल निवासी है। हाल ही में दक्षिण अफ्रीका, यूरोप और दक्षिण अमेरिका जैसे कई अन्य देशों में बायोपेस्टीसाइड के रूप में एजाडिरेक्टिन (azadirachtin) का उपयोग बढ़ गया है। एज़ाडिरेक्टिन कई कीटों जैसे कि सफेद मक्खी, कैटरपिलर, घुन, एफिड और अन्य कीड़ों को नियंत्रित करने के लिए बहुत प्रभावी है जो फसलों को नुकसान पहुंचाते हैं और साथ ही पौधों में जंग और फफूंदी जैसे फंगल रोग भी पैदा करते हैं। एज़ाडिरेक्टिन कई खेतों और बागवानी फसलों में छिड़काव के बाद बायोडिग्रेडेबल है, यह खुले वातावरण में प्राकृतिक रूप से नष्ट हो जाता है। कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से पर्यावरण और मिट्टी प्रदूषण हो सकता है जिसका सीधा असर फसल उत्पादन और मानव स्वास्थ्य पर पड़ता है”, पीएचडी छात्र, शत्रुघ्न शिवा ने द मूकनायक को बताया.

शत्रुघ्न शिवा ने बताया कि, अभी भी कई किसान कीट प्रबंधन के लिए कई स्वदेशी तकनीकों का उपयोग कर रहे हैं, हालांकि इनका दस्तावेजीकरण करने और स्थायी कीट प्रबंधन के लिए अन्य किसानों को जागरूक करने की आवश्यकता है। 48 घंटों के भीतर भारी वर्षा और हवा चलने पर छिड़काव से बचने के लिए बारिश और हवा की गति के बारे में मौसम का पूर्वानुमान जानना आवश्यक है। कीटनाशक कंटेनरों को खोलने से पहले फ़ील्ड अनुप्रयोग में सर्वोत्तम अभ्यास के लिए, विनिर्माण कंपनी द्वारा उपलब्ध लेबल और सुरक्षा डेटा शीट (एसडीएस) पर उल्लिखित सभी निर्देशों को पढ़ें, और कीटनाशक अनुप्रयोग के लिए सरकारी दिशानिर्देशों और नियमों का पालन करें। किसानों को स्वास्थ्य सुरक्षा के लिए विषाक्त पदार्थों के साँस लेने या त्वचा के संपर्क से बचने के लिए कीटनाशकों को संभालने और छिड़काव करते समय व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई) जैसे हाथ के दस्ताने, मास्क और कपड़े का उपयोग करना चाहिए।

उन्होंने बताया कि, कीटों की नियमित निगरानी कीट प्रबंधन में एक बहुत ही आवश्यक उपकरण है। कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से कीटनाशक प्रतिरोध का विकास होता है. इससे पर्यावरण की गुणवत्ता में भी गिरावट आती है, गैर-लक्षित जीवों पर बदले में जैव विविधता पर असर पड़ता है। कीटों से जुड़े कई प्राकृतिक शत्रु हैं, जैसे परजीवी और एंटोमोपैथोजेन (entomopathogens) का उपयोग स्थायी कीट प्रबंधन में किया जा सकता है, और ये पर्यावरण के लिए स्व-स्थायी और गैर विषैले होते हैं।

“कटाई की गई उपज में कीटनाशक अवशेषों के लिए कटाई-पूर्व अंतराल का पालन करना बहुत आवश्यक है। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद, केंद्रीय और राज्य कृषि विश्वविद्यालय, कृषि विजयन केंद्र और गैर-सरकारी संगठन जैसे कई संगठन हैं जो कृषक समुदायों को समय पर प्रशिक्षण प्रदान करते हैं और बेहतर फसल सुरक्षा एवं उत्पादन के लिए स्थायी एकीकृत कीट प्रबंधन (आईपीएम) के लिए जैव कीटनाशकों और वनस्पति विज्ञान के उपयोग को बढ़ावा देते हैं”, पीएचडी छात्र, शत्रुघ्न शिवा ने द मूकनायक को बताया. 

जैविक कीटनाशकों और पारंपरिक कीटनाशकों के उपयोग के फायदे और नुकसान

जैविक कीटनाशकों और पारंपरिक कीटनाशकों में से प्रत्येक के अपने फायदे और नुकसान हैं। उनके बीच का चुनाव विभिन्न कारकों पर निर्भर करता है, जिसमें विशिष्ट कीट समस्या, पर्यावरणीय चिंताएँ और उत्पादक या माली की प्राथमिकताएँ शामिल हैं। यहां दोनों प्रकार के कीटनाशकों के उपयोग के फायदे और नुकसान का अवलोकन दिया गया है:

जैविक कीटनाशक के फायदे

1. कम पर्यावरणीय प्रभाव

जैविक कीटनाशक आमतौर पर प्राकृतिक स्रोतों से प्राप्त होते हैं और गैर-लक्षित जीवों को नुकसान पहुंचाने, मिट्टी या पानी को दूषित करने या पर्यावरण में बने रहने की संभावना कम होती है।

2. मानव स्वास्थ्य के लिए कम जोखिम

जैविक कीटनाशकों को अक्सर मानव स्वास्थ्य के लिए अधिक सुरक्षित माना जाता है क्योंकि उनके फसलों पर हानिकारक अवशेष छोड़ने या कीटनाशकों से संबंधित स्वास्थ्य समस्याओं में योगदान करने की संभावना कम होती है।

3. न्यूनतम प्रतिरोध विकास

जैविक कीटनाशकों में कार्रवाई के कई तरीके होते हैं, जिससे पारंपरिक कीटनाशकों की तुलना में कीटों में प्रतिरोध विकसित होने की संभावना कम होती है, जिनका लक्ष्य अक्सर एक ही होता है।

4. स्थायी कृषि का समर्थन करता है

जैविक कीटनाशकों का उपयोग टिकाऊ कृषि के सिद्धांतों के अनुरूप है और मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार कर सकता है, जैव विविधता को बढ़ावा दे सकता है और पारिस्थितिकी तंत्र संतुलन बनाए रख सकता है।

5. विनियामक बाधाएं कम होना

जैविक कीटनाशक पारंपरिक रासायनिक कीटनाशकों की तुलना में कम कठोर नियमों के अधीन हैं।

नुकसान

1. कम प्रभावकारिता

जैविक कीटनाशक आमतौर पर सिंथेटिक कीटनाशकों की तुलना में कम शक्तिशाली और धीमी गति से काम करने वाले होते हैं, जो कुछ कीटों के प्रकोप को नियंत्रित करने में उनकी प्रभावशीलता को सीमित कर सकते हैं।

2. कम अवशिष्ट गतिविधि

जैविक कीटनाशक अधिक तेजी से नष्ट होते हैं, जिससे कीट नियंत्रण बनाए रखने के लिए अधिक बार उपयोग की आवश्यकता होती है।

3. उच्च लागत

जैविक कीटनाशक अक्सर पारंपरिक कीटनाशकों की तुलना में अधिक महंगे होते हैं, जिससे किसानों के लिए उत्पादन लागत बढ़ सकती है।

4. सीमित उपलब्धता

कुछ क्षेत्रों में विभिन्न प्रकार के जैविक कीटनाशकों तक सीमित पहुंच हो सकती है, जिससे किसानों के लिए केवल जैविक तरीकों पर निर्भर रहना मुश्किल हो जाता है।

5. परिवर्तनीय प्रभावकारिता

जैविक कीटनाशकों की प्रभावशीलता पर्यावरणीय स्थितियों, कीट प्रजातियों और आवेदन के समय के आधार पर भिन्न हो सकती है।

पारंपरिक कीटनाशक के फायदे

1. उच्च प्रभावकारिता

पारंपरिक कीटनाशक अक्सर अधिक शक्तिशाली और तेजी से काम करने वाले होते हैं, जो उन्हें कीटों की एक विस्तृत श्रृंखला को नियंत्रित करने में प्रभावी बनाते हैं।

2. लंबी अवशिष्ट गतिविधि

पारंपरिक कीटनाशक लंबे समय तक चलने वाली सुरक्षा प्रदान कर सकते हैं, जिससे बार-बार उपयोग की आवश्यकता कम हो जाती है।

3. कम लागत

पारंपरिक कीटनाशक आम तौर पर अधिक किफायती होते हैं, जो वाणिज्यिक किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण कारक हो सकता है।

4. व्यापक उपलब्धता

पारंपरिक कीटनाशक व्यापक रूप से उपलब्ध हैं और कीट नियंत्रण के लिए विकल्पों की व्यापक विविधता प्रदान करते हैं।

5. सटीक लक्ष्यीकरण

सिंथेटिक कीटनाशकों को विशेष रूप से कुछ कीटों को लक्षित करने के लिए तैयार किया जा सकता है, जिससे गैर-लक्षित जीवों को नुकसान कम हो जाता है।

नुकसान

1. पर्यावरणीय प्रभाव

पारंपरिक कीटनाशक पर्यावरण पर हानिकारक प्रभाव डाल सकते हैं, जिससे मिट्टी, पानी प्रदूषित हो सकता है और परागणकों सहित गैर-लक्षित प्रजातियों को नुकसान हो सकता है।

2. मानव स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ

सिंथेटिक कीटनाशकों के उपयोग से हानिकारक रसायनों के संपर्क के कारण कृषि श्रमिकों, उपभोक्ताओं और उपचारित क्षेत्रों के पास रहने वाले निवासियों के स्वास्थ्य को खतरा हो सकता है।

3. प्रतिरोध विकास

कीट पारंपरिक कीटनाशकों के प्रति प्रतिरोध विकसित कर सकते हैं, जिससे मजबूत रसायनों की आवश्यकता हो सकती है और प्रतिरोध का चक्र बढ़ सकता है।

4. मिट्टी के स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव

समय के साथ, सिंथेटिक कीटनाशकों का उपयोग मिट्टी के स्वास्थ्य को ख़राब कर सकता है और जैव विविधता को कम कर सकता है।

5. नियामक अनुपालन

पारंपरिक कीटनाशक सख्त नियामक आवश्यकताओं के अधीन हैं, और कुछ क्षेत्रों में उनका उपयोग प्रतिबंधित या प्रतिबंधित किया जा सकता है।

संक्षेप में, विशिष्ट कीट समस्या, पर्यावरणीय चिंताओं और दीर्घकालिक स्थिरता लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए, जैविक और पारंपरिक कीटनाशकों के बीच चयन सावधानी से किया जाना चाहिए।

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