हम जलवायु परिवर्तन की तो बात करते हैं, लेकिन नदियों को विलुप्त होने से नहीं बचा रहे हैं- प्रोफेसर तुहिन घोष

हम जलवायु परिवर्तन की तो बात करते हैं, लेकिन नदियों को विलुप्त होने से नहीं बचा रहे हैं- प्रोफेसर तुहिन घोष
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जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर व समुद्र विज्ञान विभाग के निदेशक से द मूकनायक की बातचीत

पिछले कई सालों में तटीय क्षेत्रों में साइक्लोन का कहर लगातार देखने को मिल रहा है, जिसका असर आम जन-जीवन पर पड़ रहा है। तेज आती हवाएं और भारी बारिश के कारण लोगों का जीवन अस्त-व्यस्त हो जाता है। पिछले साल आए गुलाब, अम्फान, फानी जैसे साइक्लोन ने खूब कहर बरपाया था। इसमें से अम्फान से सबसे ज्यादा लोगों का नुकसान हुआ था। हवा की गति इतनी तेज थी सड़क पर खड़ी बस भी हवा की मार से हिल रही थी। लगातार आते साइक्लोन व जलवायु परिवर्तन के कारण पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्रों में इसका क्या प्रभाव पड़ रहा है। द मूकनायक की टीम ने जादवपुर यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर और समुद्र विज्ञान विभाग के निदेशक डॉ. तुहिन घोष से बात की है।घोष लगभग 28 सालों से सुंदरवन में काम कर रहे हैं। इतने लंबे समय में उन्होंने कई तरह के बदलाव को देखा है।

साइक्लोन पहले भी आते थे, अब इनकी गति तेज है

जलवायु परिवर्तन के बारे में बात करते हुए वह कहते हैं कि आज जो हो रहा है। इसके जिम्मेदार हम खुद ही हैं। हमने प्रकृति का इस हद तक दोहन कर दिया है कि हमारी आने वाली पीढि़यां भी इसकी भरपाई नहीं कर पाएंगी। पश्चिम बंगाल के तटीय क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन के असर पर वह कहते हैं कि साइक्लोन आज कोई नए नहीं आ रहे हैं। यह क्रिया हजारों सालों से चली आ रही है। वह कहते हैं कि आज से बीस साल पहले की भी बात करें तो साइक्लोन का रुख कुछ और होता था।

पहले साइक्लोन में इतना दबाव नहीं होता था। जिसके कारण यह तीन से चार दिन तक चलता था। लेकिन बदलते मौसम और जलवायु परिवर्तन के कारण आज स्थिति यह है कि साइक्लोन के दौरान हवा के वेग और बारिश में इतनी तेजी होती है कि वह नुकसान ज्यादा करती है। पहले के दिनों में हवा में इतना ज्यादा वेग नहीं होता था। इसलिए बारिश धीरे-धीरे होती थी और नुकसान कम होता था। वह कहते हैं कि हमने पिछले कुछ सालों में आए साइक्लोन की भयावाह तबाही देखी है। इसमें तेज हवा चलती हैं और उसके रास्ते में आने वाली हर चीज को वह तहस-नहस कर देती हैं। यहां तक की बारिश भी बहुत तेजी से होती है और एक बार ही होती है।

नदियां विलुप्त हो रही हैं

जलवायु परिवर्तन और सुंदरवन पर पड़ते उसके असर के बारे में वह कहते हैं कि हम जलवायु परिवर्तन की तो बात करते हैं, लेकिन उससे प्रकृतिक चीजों पर क्या असर पड़ रहा है। इस पर कोई बात नहीं करना चाहता है। पश्चिम बंगाल में सुंदरवन में डेल्टा बनाने वाली नदियों की स्थिति पर आज कोई बात नहीं करता, जबकि की बारिश के लिए नदियां सबसे महत्वूपर्ण हैं।

वह बताते हैं कि डेल्टा बनाने वाली नदियों में पश्चिम में हुगली मातला और पूर्व में भारत और बंगलादेश के इंटरनेशल बॉर्डर पर रायमंगला नदी हैं। जिनका पानी शुद्ध और मीठा है। जबकि इनसे निकलने वाली धाराओं की हालात यह है कि वह पूरी तरह से दूषित हो चुकी हैं। जिनका पानी भी खारा हो चुका है। इनमें हाई टाइड होने से पानी होता है और जब लो टाइड के दौरान पानी कम हो जाता है। ऐसी स्थिति के कारण इच्छामंदी, कलंदी नदी खत्म हो चुकी हैं। नदियों का लुप्त हो जाना भी जलवायु परिवर्तन का प्रमुख कारण है। लोगों ने विकास के नाम पर नदियों के तट पर घर बना लिए हैं। जिसके कारण नदियां लुप्त हो रही है। जिसका सीधा असर प्रकृति पर पड़ रहा है।

जलवायु परिवर्तन के कारण लोग विस्थापित होते हैं

प्रोफेसर तुहिन घोष कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन का असर सिर्फ यही तक नहीं है की सुंदरवन की नदियों में बंगाल की खाड़ी से खारा पानी चला गया है या साइक्लोन के कारण लोगों के घर बर्बाद हो रहे हैं। ब्लकि इसका असर लोगों की कमाई पर पड़ रहा है।

वह बताते है कि इन सबके कारण न तो अच्छी खेती हो पा रही है न ही कोई दूसरा काम जिसके कारण यहां से सीजनल विस्थापन बहुत होता है। लोग काम की तलाश में बड़े-बड़े महानगरों में जा रहे हैं। खेती करने के समय लोग आते हैं उसके बाद फिर वापस चले जाते हैं। वह बताते हैं कि सबसे ज्यादा विस्थापन बरसात के मौसम में होता है। ज्यादातर लोग इन दिनों में जब कोई काम नहीं होता है तो अपने परिवार को लेकर शहरों की ओर चले जाते हैं। क्योंकि आजकल ऐसा हो गया है कि मानसून में भारी बारिश और साइक्लोन के कारण लोगों की फसल भी खराब हो जाती हैं। जिसके कारण लोग बाहर का रुख ज्यादा कर रहे हैं। उनमें भी वो लोग ज्यादा है जिनके पास थोड़ा बहुत पैसा है। क्योंकि बाहर जाने और वहां रहने के लिए भी कुछ खर्च होना चाहिए। इसलिए जिनके पास है वह जा रहे हैं जिनके पास नहीं है वह यही रह रहे हैं। यहां सबसे ज्यादा आबादी दलित और आदिवासियों की है। लगभग 60 से 70 प्रतिशत दलित है और उसके बाद मुस्लिम आबादी है।

ब्रिटिश सरकार ने शुरू किया था सुंदरवन का दोहन

वह बताते हैं कि यह सारी एक दिन में नहीं हो गई है। हमने सुंदरवन की असली अस्तित्व के साथ खिलवाड़ किया है। जिसके कारण हमें यह सारी चीजों को सामना करना पड़ रहा है। इतिहास की बात करते हुए वह कहते हैं सुंदरवन और डेल्टा का सही मतलब है जंगल और उसमें रहने वाले जानवर, लेकिन पिछले कई वर्षों से यहां मनुष्यों का अतिक्रमण लगातार बढ़ा है। वह बताते हैं कि ब्रिटिश शासन के दौरान लगभग 1830 के आस-पास अंग्रेजों की नजर सुंदरवन पर पड़ी और उन्होंने इसमें लोगों को बसाने की योजना बनाकर इसके संसाधनों का लाभ लेना चाहा। लेकिन इसमें बड़ी समस्या यह थी कि पश्चिम बंगाल के लोग यहां जाना नहीं चाहते थे। जिसके लिए आज के झारखंड के संथाल परगना रेंज से आदिवासी समुदाय के लोगों को यहां पर लाकर बसाया गया। ताकि वह यहां खेती कर सकें। इसके बाद ही सुंदरवन के दोहन का सिलसिला शुरू हो गया।

आदिवासी समुदाय के लोगों के पास खाने की समस्या थी, और सुंदरवन में साधन का अभाव था। लेकिन प्राकृतिक संसाधन बहुत थे। जिसके कारण वह यहां बस गए और खेती करने लगे। जंगलों को काट-काटकर टापू बनाए गए। इससे सुंदरवन का क्षेत्र कम होता गया। साथ ही जंगल और जानवरों की जगह मनुष्यों को आबादी बढ़ गई। अंग्रेजों ने यहां से वापस जाने के पहले सारी जमीन आदिवासियों को दान में दे दी।

जमीन पर कारोबारियों की नजर

अब आदिवासियों के पास जमीन अच्छी आ गई थी, जिसमें वह खेती कर सकते थे। लेकिन ऐसा हुआ नहीं। आज के दौर मंे ज्यादातर आदिवासियों के पास जमीन नहीं है। खाने पीने के लालच में कम पैसे में ही जमीनों को बेच दिया है।

जिससे एक बड़ा संकट ये पैदा हो गया है जैसे आदिवासी जल, जंगल व जमीन के साथ जुड़ा है। वह इन सारी चीजों की देखरेख भी करता है। वैसा अब हो नहीं पा रहा है। हालात यह है कि जैसी इस जमीन पर कारोबारियों की नजर पड़ी। सुंदरवन के विनाश में एक और कड़ी जुड़ गई। आज सुंदरवन के इलाके में बड़े कारोबारी इसका लगातार दोहन कर रहे हैं। नदियों के प्रवाह क्षेत्र को कम कर रहे हैं। जिसके कारण है बाढ़ आ रहा है और बाकी प्राकृतिक आपदाओं को लोगों को सामना कर पड़ रहा है।

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