'खेजड़ी से हमारी आस्था जुड़ी है, काटोगे तो आस्था आहत होगी'; राजस्थान में खेजड़ली आंदोलन दोहराने की चेतावनी

राजस्थान के बीकानेर में सोलर प्लांट की आड़ में खेजड़ी का अवैध कटान किया जा रहा है। शिकायत के बाद भी शासन-प्रशासन ने खेजड़ी कटान रोकने के लिए कोई ठोस कार्रवाई नहीं की है। ऐसे में अब विश्नोई महासभा और जीव रक्षा संस्था ने खेजड़ी बचाने के लिए खेजड़ली आंदोलन दोहराने की बात कही है।
काटे गए खेजड़ी के पेड़
काटे गए खेजड़ी के पेड़
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जयपुर। राजस्थान के बीकानेर में सोलर प्लांट लगाने की आड़ में राज्य वृक्ष खेजड़ी कटान का लगातार विरोध हो रहा है। विश्नाई महासभा और जीव रक्षा संस्था बीकानेर के नेतृत्व में पर्यापरण प्रेमी गांधीवादी तरीके से खेजड़ी बचाव आंदोलन चला रहे हैं। जिम्मेदार सरकारी कारिंदो को निरंतर ज्ञापन देकर खेजड़ी के अवैध कटान को रोकने की मांग कर रहे हैं, लेकिन शासन-प्रशासन के कान पर जू तक नहीं रेंग रही। खेजड़ी मरुस्थल की जीवनवदायनी है। राजस्थान में लोक मान्यताओं के साथ खेजड़ी से लोगों का भावनात्मक जुड़ाव है। इससे विश्नोई समाज की भी आस्था जुड़ी है। इसके बावजूद खेजड़ी पर आरा चल रहा है। खेतों से खेजड़ी की अवैध कटाई नहीं रुकने पर जीव रक्षा संस्था और विश्नोई महासभा ने खेजड़ी की रक्षा के लिए जोधपुर के खेजड़ली आंदोलन को दोहराने की बात कही है।

क्या है खेजड़ली आंदोलन?

खेजड़ी से ही खेजड़ली आंदोलन जुड़ा हुआ है। राजस्थान के जोधपुर में खेजड़ली गांव के पर्यावरण प्रेमियों ने पेड़ों की रक्षा के लिए अपने प्राण तक त्याग दिए थे। इनका बलिदान इतिहास के पन्नों पर अमर है। 232 साल पूर्व तत्कालीन महाराजा के निर्देश पर यहां उनके कारिन्दों (कर्मचारियों) द्वारा हरे पेड़ काटे जा रहे थे। जोधपुर के खेजड़ली गांव के लोगों ने हरे पड़ काटने का विरोध कर दिया। इसके बावजूद पेड़ों का कटान जारी रहा। यहां खेजड़ी के पेड़ों को भी काटा जाना लगा। खेजड़ी को बचाने के लिए गांव के महिला-पुरुष पेड़ों से चिपट कर खड़े हो गए।

विश्नोई समाज की आस्था से जुड़े खेजड़ी के पेड़ों को बचाने के लिए मां अमृता देवी विश्नोई के नेतृत्व में बारी-बारी से 363 लोग पेड़ों को पकड़ कर खड़े हो गए। विश्नोई समाज के आह्वान पर आस-पास के खेड़ों (ढाणियों) से भी लोग इस आंदोलन में जुड़ गए। इससे महाराजा के कारिंदो ने पेड़ काटने का काम रोक दिया। पेड़ों का कटान रुकने से नाराज महाराजा अभय सिंह ने पेड़ों से चिपट कर खड़े विश्नोई सम्प्रदाय के लोगों सहित पेड़ काटने का आदेश दे दिया। महाराजा के आदेश पर विरोध कर रहे लोगों को भी पेड़ों के साथ काट दिया गया। पर्यावरण बचाने का इससे बड़ा बलिदान नहीं हुआ है। पर्यावरण बचाने के लिए विश्नाई सम्प्रदाय के 363 लोगों के बलिदान के उपलक्ष्य में खेजड़ली गांव में प्रति वर्ष 12 सितम्बर को ट्री फेस्टिवल मनाया जाने लगा है।

जीव रक्षा संस्था बीकानेर अध्यक्ष मोखाराम धरणिया ने बताया कि वर्तमान सरकार भी 232 साल पुराना इतिहास दोहराने पर उतारू है। प्रशासन की निगरानी में सोलर प्लांट लगाने की आड़ में हजारों खेजड़ी के पेड़ काटे जा रहे हैं। किसानों की तरफ से दर्जनों एफआईआर दर्ज करवाई गई है, लेकिन पुलिस ने एक पर भी कार्रवाई नहीं की। वन विभाग, राजस्व विभाग सहित जिला स्तर के अधिकारी भी मौन धारण किए हुए हैं। मोखाराम धरणिया ने कहा कि ऐसे में खेजड़ी को बचाने के लिए खेजड़ली आंदोलन दोहराने के अलावा अब हमारे पास कोई तरीका नहीं बचा है।

धार्मिक मान्यता

शिक्षक विक्रम मीना बताते हैं कि राजस्थान में खेजड़ी के वृक्ष से कई धार्मिक मान्यता भी जुड़ी है। विश्नोई समाज के लिए खेजड़ी पूजनीय है। मरुस्थल में लोग खेजड़ी के वृक्ष को खेत, घर-आंगन में भी बड़े चाव से लगाते हैं। पंचपीरो में प्रसिद्ध मारवाड़ के गोगाजी का थान भी खेजड़ी वृक्ष के नीचे ही बनाया जाता है। इस क्षेत्र आज भी प्रत्येक शनिवार को खेजड़ी वृक्ष की पूजा की जाती है।

असत्य पर सत्य की जीत के रूप में मनाए जाने वाले दशहरा पर्व पर भी खेजड़ी पूजने की परम्परा प्रचलित है। बीकानेर क्षेत्र में आश माता का उपवास रख खेजड़ी को पूजा जाता है।

क्यों है खेजड़ी जरुरी?

प्रायः देखा गया है कि रेगिस्तान में बारिश कम मात्रा में होती है। भू जलस्तर भी काफी नीचे है। अल्प वर्षा और शुष्क मौसम के कारण इस क्षेत्र में वनस्पति जल्दी से नहीं पनपती है। पैदावार भी कम होती है। खेजड़ी वृक्ष के लिए मरुस्थलीय क्षेत्र उपयोगी माना जाता है। यही वजह है कि यहां खेजड़ी के पेड़ बहुतायत में पाए जाते हैं। यह पेड़ कम पानी में खूब फलता फूलता है। इसी कारण से खेजड़ी को "राजस्थान का कल्पवृक्ष" भी कहते हैं। खेजड़ी न केवल छाया देती है, बल्कि पशुधन के लिए इसकी पत्तियां चारे के काम आती हैं। इसकी टहनियां चूल्हे में ईंधन के रूप में काम ली जाती है। इसकी छाल से कई दवाएं बनाई जाती है।

सांगरी का साग

खेजड़ी के फल को सांगरी या सेंगर भी कहा जाता है। इस में बहुतायत में सांगरी का फल लगता है। इस फल को कच्चा और सब्जी के रूप में खाया जाता है। बताते हैं कि मारवाड़ में बड़े-बड़े आयोजनों में सांगरी का साग बनाया जाता है। जिसे लोग बहुत ज्यादा पसंद करते हैं। कई परिवारों के लिए सांगरी आर्थिक आय का साधन भी बनती हैं, सांगरी का बाजार भाव 800-1000 रुपए प्रति किलो होता है।

राजस्थान के कुल क्षेत्रफल का 61.11% भाग मरुस्थल से घिरा हुआ है। यहां तेज हवाओं के साथ आंधियां चलती है। मिट्टी में कटाव होता है। हवाओं से मिट्टी का कटाव रोकने के लिए खेजड़ी महती भूमिका है।

खेजड़ी की पत्तियां झड़ कर खेत में खाद का काम करती है। इससे खेजड़ी की छाव में भी गेहूँ, सरसों या अन्य किस्म की फसलों का उत्पादन अधिक होता है। खेजड़ी के अलावा अन्य पेड़ों की छाव में फसलें नहीं पनपती है।

चैत्र बैशाख में पानी डालती हैं बहन-बेटी

प्रकृति में हर पोधो की उम्र, फल और पतझड़ का समय निर्धारित है। अक्सर पेड़ पौधे चैत्र में अपनी सारी पत्तियां गिरा देते हैं, लेकिन खेजड़ी एक मात्र ऐसा वृक्ष है जो पतझड़ में भी हराभरा रहता है। इसी दिव्य कारण के चलते रेगिस्थान के लोग इसे "थार की तुलसी" के पेड़ की संज्ञा देते हैं और तुलसी के समान ही खेजड़ी की पूजा करते हैं। जीव रक्षा संस्था के महासचिव रामकिशन डेलू बताते हैं कि चैत्र महीने में बेहन बेटियां पीहर आकर खेजड़ी के पेड़ो में पानी डालकर पूजा करती है। खेजड़ी से विश्नाई सम्प्रदाय की आस्था जुड़ी है। खेजड़ी से विश्नोई समाज का भावनात्मक जुड़ाव है। कोई खेजड़ी पर आरा चलाता है तो हमारी भावना आहत होती है। हमोर पूर्वजों ने प्राणों की आहुति देकर मरुस्थल में खेजड़ी को बचाया। घरों से पानी लाकर पेड़ों को सींचा। कोई खेजड़ी काटता हे तो हमें दर्द होता है। खेजड़ी नहीं बची तो मरुस्थल विरान हो जाएगा।

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