भोपाल। मध्य प्रदेश में बहने वाली नदियों का जल प्रवाह धीरे-धीरे कम हो रहा है। 1990 से अब तक प्रदेश की आधा दर्जन नदियों के प्रवाह में भारी कमी आई है। जबकि कुछ नदियां तो इस मौसम में सूख चुकी है। नदियों के संरक्षण और जल प्रवाह को निरंतर रखने के लिए सरकार ने लिंक परियोजनाएं भी शुरू की, लेकिन कोई खास फायदे नहीं हुए।
मध्य प्रदेश की प्रमुख नदियों में नर्मदा, गोदावरी, माही, गंगा और ताप्ती हैं। मध्य प्रदेश में पूर्व से पश्चिम की ओर बहने वाली नदियाँ हैं-नर्मदा, माही और ताप्ती। काली सिंध, चंबल, पारबती, धसान, केन, सिंध, कूनो, शिप्रा और बेतवा दक्षिण से उत्तर की ओर बहती हुई गंगा में गिरने वाली नदियाँ हैं।
सोन नदी जो मध्य प्रदेश से निकलती है, दक्षिण से गंगा में मिलने वाली सबसे बड़ी सहायक नदी है। पेंच, कन्हान, वैनगंगा, वर्धा और पेंगांगा नदियाँ गोदावरी में गिरती हैं। इनमें से आधा दर्जन नदियों में सिर्फ बारिश के समय प्रवाह रहता है, बाकी दिनों गहरे स्थानों पर झील नुमा और गर्मियों में लगभग सूखने की कगार पर होती हैं। वर्तमान में प्रदेश की धसान, केन, सिंध, कूनो, शिप्रा, कान्ह, स्वर्ण और तमस पूरी तरह सूख चुकी हैं। इन नदियों में अब सिर्फ कीचड़ है!
पन्ना जिले से निकली केन नदी के सूखने के कारण इस समय यहां जल संकट गहरा गया है। नदी सूखने के कारण लोग किनारों पर गड्ढा खोदकर पानी निकाल रहे है। नदी की ऊपरी सतह पर सिर्फ कीचड़ है। गाँव के लोग नदी के पास गड्ढा खोदकर पानी निकाल रहे है पर उसी में गाये भैंसो को नहलाया जा रहा है। साथ ही नदी का पानी बेहद गंदा है। इस मौसम में नदी के पानी में बहाव नहीं है, इसलिए जो पानी इक्कठा है वह पीने के लिए शुद्ध नहीं है। ग्रामीणों ने बताया कि पानी की समस्या के लिए पंचायत से लेकर जिले के अधिकारियों तक शिकायत कर चुके हैं लेकिन कोई कार्रवाई नहीं होती।
मुड़वारी गाँव के रहवासी महेश अहिरवार ने बताया कि दलित बस्तियों में पानी की समस्या बहुत ज्यादा है। महेश ने कहा - "नदी में पानी सूख चुका है, सिर्फ कीचड़ बचा है, गड्ढा खोदकर उसमें से छाना हुआ पानी ले रहे हैं।"
मैहर और सतना से गुजरने वाली तमस नदी भी सूख चुकी है, यह नदी इन दोनों जिलों की लाइफलाइन है। नदी के सूखने के बाद ग्राउंड वाटर पर असर पड़ा है। इसके साथ ही तमस नदी के पानी से ही शहरी और कस्बों की नल जल योजना संचालित होती है, लेकिन नदी सूखने के बाद पिछले एक महीने से नलों में पानी नहीं आया। यहां में नदी में कीचड़ के जैसी स्थिति निर्मित हो चुकी है।
मैहर जिले के माता मंदिर वार्ड निवासी कैदीलाल सिंह साहू ने द मूकनायक प्रतिनिधि को बताया कि इस साल पानी की समस्या पूर्व के सालों से और खस्ताहाल हो चुकी है। कैदीलाल ने कहा- "पिछली साल तो एक दिन छोड़कर नल आजाते थे लेकिन इस बार तो पिछले महीनेभर से एक भी दिन पानी नहीं मिला है। नदी के सूखने से यहां जल संकट गहरा जाता है, यह समस्या हर साल बढ़ रही है।, नदी होने के बाबजूद भी पानी की समस्या है।"
इधर, उज्जैन में क्षिप्रा नदी पर पिछले 15 वर्षों में सरकार ने एक हजार करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए है, इसके बाबजूद परिणाम कुछ खास दिखाई नहीं दिए। जिस नदी का पानी 25 साल पहले स्वच्छ था, वह अब सूख चुकी है। क्षिप्रा नदी के क्षरण को लेकर भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) का प्रतिवेदन फरवरी में विधानसभा में प्रस्तुत किया गया था। इसमें कहा गया कि प्रदूषण के कारण क्षिप्रा और सहायक नदियों की जल गुणवत्ता और भूजल घटने से प्रवाह प्रभावित हुआ है।
रिपोर्ट के मुताबिक उज्जैन और आलोट नगरीय निकाय ने नगर स्वच्छता योजना तैयार नहीं की और इंदौर, देवास व उज्जैन ने पूरे भौगोलिक क्षेत्र के लिए सीवरेज नेटवर्क की योजना नहीं बनाई। बेहतर प्रदर्शन दिखाने के लिए सिर्फ लक्ष्यों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया।
कैग के प्रतिवेदन में बताया गया कि महिदपुर और उज्जैन में 1990 में क्षिप्रा का प्रवाह तुलनात्मक रूप से बेहतर था। लेकिन इसके बाद से स्थिति में खराब होती चली गई। नदी के प्रवाह में साल 2001 से तेजी से गिरावट आई और 2010-11 के बाद मानसून सीजन के पहले और बाद में क्षिप्रा नदी लगभग सूखने लगी। वर्तमान में यह नदी पूरी तरह सूखी हुई है। बस कुछ जगहों पर कीचड़ देखने को मिल रहा है।
नर्मदा-क्षिप्रा लिंक परियोजना को लेकर कैग की रिपोर्ट में लिखा है, कि सरकार की कई एजेंसियों के हस्तक्षेप के बावजूद क्षिप्रा नदी प्रदूषित बनी हुई है। देवास, इंदौर और उज्जैन शहर का कचरा इस नदी को मृत कर रहा है। नदी घाटी में भूजल की तेजी से निकासी से, भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है। इसकी वजह से नदी सूख रही है।
इंदौर, कान्ह नदी नाले के तरह दिखाई देती है। सरकार के करोड़ों खर्च करने के बाबजूद भी न यह स्वच्छ हो पाई न ही अब इसमें प्रवाह है। बारिश के समय को छोड़ दे तो सालभर यह नदी किसी नाले की तरह है। कीचड़ का जमाव और शहर का गंदा पानी मिलने के कारण कान्ह नदी अस्तित्व संकट में है। कान्ह एक सीवेज डंपयार्ड में बदल गया है, जहां 70 के दशक में तेजी से औद्योगिकीकरण के बाद से कई उद्योग ठोस और साथ ही तरल कचरे को डंप कर रहे हैं। कान्ह काकरी बाड़ी पहाड़ियों से निकलती है जो शिप्रा नदी का स्रोत भी है। कान्ह बाद में शिप्रा से मिलती थी, जो आगे चलकर चंबल, फिर यमुना और अंत में गंगा नदी में मिल जाती है। लेकिन अब कान्ह नदी का जल शिप्रा तक नहीं पहुँच पा रहा है।
ग्वालियर शहर के बीचों-बीच बहने वाली स्वर्ण रेखा लगभग 29 किमी लंबी कभी शहर की जीवन रेखा हुआ करती थी और इस नदी से इतिहास भी जुडा हुआ है। यह वह नदी है जिसके किनारे वीरांगना लक्ष्मीबाई ने अंतिम सांस ली थी और वर्तमान में वीरांगना का समाधि स्थल बना हुआ है। यह नदी कभी शहर की शान हुआ करती थी लेकिन अब स्वर्ण रेखा नदी का नाम सरकारी कागजों में ही है और निगम व प्रशासन की लापरवाही से यह एक नाला बन चुकी है।
स्वर्ण रेखा नदी जब से कंक्रीट की बनी है, तब से नगर में भूजल स्तर तेजी से गिरता जा रहा है। जिसका परिणाम यह हुआ कि आसपास के क्षेत्र में लगे हैंडपंप तक सूख चुके हैं और बोरिंगे भी फेल होती जा रही हैं। वहीं शहरवासियों की प्यास बुझाने के लिए तिघरा पर लगातार लोड बढ़ता जा रहा है।
निगम अधिकारियों ने स्वर्ण रेखा में साफ पानी बहाने के नाम पर शहरवासियों को नदी में नाव चलाने का सपना दिखाते हुए इसमें करोड़ों रुपए खर्च कर इसे कंक्रीट कर दिया, लेकिन इसमें नाव तो नहीं चली उल्टा शहर का भूजल स्तर तेजी से गिरने के साथ ही नदी नाला में बदल गई। शहर के कई इलाकों का गंदा पानी नदी में पहुँच रहा है। जिसके कारण अब यह नदी एक बड़े नाले की तरह दिखाई देती है। फिलहाल इस मौसम में यह नदी पूरी तरह सूख चुकी है।
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