भोपाल। मध्य प्रदेश सरकार पिछले डेढ़ दशक में क्षिप्रा नदी पर एक हजार करोड़ रुपये से अधिक खर्च कर चुकी है, इसके बावजूद नदी सूखती चली गई। अरबों रुपए के प्रोजेक्ट शुरू हुए मगर परिणाम कुछ खास दिखाई नहीं दिए। क्षिप्रा नदी के क्षरण को लेकर भारत के नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (सीएजी) का प्रतिवेदन गुरुवार को विधानसभा में प्रस्तुत किया गया है। इसमें कहा गया कि प्रदूषण के कारण क्षिप्रा और सहायक नदियों की जल गुणवत्ता और भूजल घटने से प्रवाह प्रभावित हुआ है।
रिपोर्ट के मुताबिक उज्जैन और आलोट नगरीय निकाय ने नगर स्वच्छता योजना तैयार नहीं की और इंदौर, देवास व उज्जैन ने पूरे भौगोलिक क्षेत्र के लिए सीवरेज नेटवर्क की योजना नहीं बनाई। बेहतर प्रदर्शन दिखाने के लिए सिर्फ लक्ष्यों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया गया।
कैग के प्रतिवेदन में बताया गया कि महिदपुर और उज्जैन में 1990 में क्षिप्रा का प्रवाह तुलनात्मक रूप से बेहतर था। लेकिन इसके बाद से स्थिति में खराब होती चली गई। नदी के प्रवाह में साल 2001 से तेजी से गिरावट आई और 2010-11 के बाद मानसून सीजन के पहले और बाद में क्षिप्रा नदी लगभग सूखने लगी। वर्तमान में यह नदी सूखी हुई है।
दरअसल, नर्मदा-क्षिप्रा लिंक परियोजना को लेकर कैग की रिपोर्ट में लिखा है कि, सरकार की कई एजेंसियों के हस्तक्षेप के बावजूद क्षिप्रा नदी प्रदूषित बनी हुई है। देवास, इंदौर और उज्जैन शहर का कचरा इस नदी को मृत कर रहा है। नदी घाटी में भूजल की तेजी से निकासी से, भूजल स्तर बहुत नीचे चला गया है। इसकी वजह से नदी सूख रही है।
इसे बचाने के लिए सरकार ने नदी के तटों पर पेड़ लगाने की योजना तो बनाई, लेकिन इसमें भी गड़बड़ी पाई गई। वहीं कैग ने सीवरेज नेटवर्क, सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट, नालों, सड़कों और दूसरे सिविल काम में भी बड़ी अनियमितता के संकेत दिए हैं।
कैग की रिपोर्ट के मुताबिक, भविष्य की मांग को देखते हुए स्थानीय निकाय ने सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट का निर्माण नहीं किया गया, और हुआ भी तो पूरे भौगोलिक क्षेत्र को कवर नहीं किया गया। इसके साथ ही यह काम समय सीमा में पूरे नहीं हुए।
स्थानीय निकायों के पास मल-कीचड़ के निपटान की समुचित व्यवस्था नहीं थी, सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट पुरानी टेक्नोलॉजी पर काम कर रहे हैं। स्थानीय निकाय ने फ्लड प्लेन जोन में अतिक्रमण हटाने की कार्रवाई नहीं की, साथ ही नदी के तट का विकास सही तरीके से नहीं किया।
नियंत्रक एवं महालेखापरीक्षक (कैग) ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि, क्षिप्रा किनारे संचालित उद्योग बगैर परमिशन काम कर रहे हैं। इसके बावजूद ऐसे उद्योगों के खिलाफ प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कार्रवाई नहीं की। जो वैध उद्योग है उन्होंने पीसीबी को रिपोर्ट पेश नहीं की। साथ ही ये भी कहा कि ये उद्योग बगैर अपशिष्ट उपचार प्रबंध (ईटीपी) के चल रहे थे। इसके साथ जिन उद्योगों की जांच की उनमें केवल चार ही में पानी के मीटर पाए गए।
कैग ने रिपोर्ट में लिखा कि, कम पानी के मौसम में क्षिप्रा में पानी देने का प्रावधान किया गया था, लेकिन इसे लागू नहीं किया। नर्मदा-क्षिप्रा लिंक प्रोजेक्ट के जरिए नर्मदा के पानी को क्षिप्रा में डाला गया मगर योजना पूरी तरह से भटक गई। वहीं भूजल निकालने से पहले उद्योगों ने केंद्रीय भूजल बोर्ड से अनुमति नहीं ली। कितना पानी निकाला जा रहा इसकी मॉनिटरिंग के लिए पानी के मीटर नहीं लगाए गए। सिंचाई के लिए पानी की ऑप्शनल व्यवस्था न होने से भूजल स्तर गिर गया। केंद्रीय भूजल बोर्ड क्षिप्रा बेसिन के सात खंडों के लिए दिशा निर्देश बनाने में नाकाम रहा।
सभी राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र में क्षिप्रा नदी के जीर्णोद्धार और उसके प्रवाहमान का मुद्दा हमेशा शामिल होता है। सरकार ने पिछले डेढ़ दशक के भीतर नदी पर एक हजार करोड़ रुपये से अधिक खर्च किए। पहले वर्ष 2014 में 432 करोड़ रुपये खर्च कर क्षिप्रा को नर्मदा नदी से जोड़ने का काम किया। प्राकृतिक प्रवाह से पानी छोड़ने से उद्देश्य की पूर्ति न होने पर साल 2019 में 139 करोड़ रुपये खर्च कर इंदौर के गांव मुंडला दोस्तदार स्थित पंपिंग स्टेशन से उज्जैन के त्रिवेणी क्षेत्र तक 66.17 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछवा दी।
इसके पहले साल 2016 में क्षिप्रा के नहान क्षेत्र (त्रिवेणी से कालियादेह महल तक) में कान्ह का प्रदूषित पानी मिलने से रोकने को 95 करोड़ रुपये खर्च कर पानी का रास्ता बदलने को पाइप लाइन बिछवाई। साल 2018 में उज्जैन, उन्हेल, नागदा के लोगों की पेयजल एवं औद्योगिक जरूरतों को पूरा करने के लिए 1856 करोड़ रुपये की नर्मदा-क्षिप्रा बहुउद्देशीय योजना का क्रियान्वयन शुरू कराया। उज्जैन नगर निगम ने भी अपने स्तर पर त्रिवेणी घाट और राम घाट पर नदी का पानी स्वच्छ रखने को करोड़ों रुपये फूंके। इतना सबकुछ करने के बावजूद भी क्षिप्रा प्रवाहमान नहीं हो पाई, और न ही पानी स्वच्छ हुआ।
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