धुव्रों पर लगातार बढ़ता तापमान और ग्लेशियर का पिघलना आने वाले समय के लिए पर्यावरण की दृष्टि से बहुत ही नुकसानदेह है। जिसकी चर्चा हम हमेशा सुनते हैं। जलवायु परिवर्तन (Climate change) पर लगातार अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बातचीत होती है। इसे रोकने के लिए वैश्विक औसत तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तरों से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे और अधिकत्म 1.5 डिग्री सेल्सियस तक रहने का निर्देश दिए गए हैं। इसके साथ ही साल दर साल जलवायु परिवर्तन (Climate change) के कारण मौसम में आते बदलाव पर काम करने की जरूरत है। यह सारे निर्देश 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन में दिया गया है।
जारी निर्देशों के अनुसार अगर यह लक्ष्य पूरा हो भी जाता है, तब भी दुनिया के कई इलाके खतरे में रहेंगे। उनमें से एक क्षेत्र हिंदू कुश और हिमालय का है। जहां 50,000 से अधिक ग्लेशियर हैं और दुनिया की सबसे ऊंची चोटियां हैं, जैसे कि एवरेस्ट और के-2 कंचनाजंगा पर्वत मालाएं। इन सभी को तीसरे ध्रुव के रूप में जाना जाता है। जिसका बर्फ का विशाल भंडार आर्कटिक और अंटार्कटिका के बाद पृथ्वी पर सबसे बड़ा बर्फ का हिस्सा है।
200 से अधिक विशेषज्ञों द्वारा की गई एक व्यापक जांच को सार्वजनिक किया गया है। जिससे पता चलता है कि वैश्विक औसत तापमान में दो डिग्री की वृद्धि का मतलब है, इस क्षेत्र में 2.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि। अगर यह वृद्धि माउंट एवरेस्ट पर्वत माला के क्षेत्र में होती है तो इसके आधे ग्लेशियर पिघल जाएंगे।
लेकिन डेढ़ डिग्री से अधिक नहीं होने का लक्ष्य भले ही हासिल कर लिया जाए, तब भी सदी के अंत तक पर्वत श्रृंखला में 2.1 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि होगी, जिसके कारण ग्लेशियर की एक तिहाई बर्फ पिघल जाएगी।
अगर ऐसा होता है तो एशिया की मुख्य नदियाँ अस्थिर हो जाएंगी। जिसका सीधा असर नदियों पर निर्भर रहने वालें लोगों या उसके आस-पास रहने वाले लोगों पर पड़ेगा, जिसमें इन पहाड़ों पर रहने वाले 250 मिलियन, और घाटिओं पर रहने वाले 1,650 मिलियन लोगों का जीवन प्रभावित होगा।
इस संकट के बारे में हिंदू कुश हिमालय मॉनिटरिंग एंड असेसमेंट प्रोग्राम (एचआईएमएपी) के वैज्ञानिक और समन्वयक फिलिप वेस्टर से द मूकनायक ने फोन पर बातचीत की है, जिसमें उन्होंने चेतावनी दी है कि, "यह एक जलवायु संकट है जिसके बारे में नहीं सुना गया है।" इस पहल का परिणाम 3,500 किलोमीटर की पर्वत श्रृंखला के भीतर स्थित आठ देशों की सेवा करने वाली एक शिक्षण संस्था, इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रल माउंटेन डेवलपमेंट में पिछले पांच वर्षों में शोध किया गया है, जिसके अनुसार आठ देश अफगानिस्तान, बांग्लादेश, भूटान, चीन, भारत, म्यांमार, नेपाल और पाकिस्तान हैं। जहां जलवायु परिवर्तन को समझने और अनुकूल बनाने के लिए दिशा-निर्देश दिए गए हैं।
वेस्टर के अनुसार, नवंबर 2018 में यूएन इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) ने पहले ही चेतावनी के बाद कठोर उपायों का आह्वान किया था, जिसके अनुसार ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के कारण पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में औसत वैश्विक तापमान में एक डिग्री की वृद्धि हुई है। मानव निर्मित कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ 2) के रूप में ग्रीनहाउस का प्रभाव है। साल 2030 और 2052 के बीच यह वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस होने की संभावना है। यदि उत्सर्जन की वर्तमान दर को बनाए रखा जाता है, तो यह भविष्य के लिए खतरे की घंटी हैं। जिसे अगले दशक में कम से कम आधा कर दिया जाना चाहिए। ताकि इस प्रकार के संकट से बचा जा सके।
किए गए अध्ययन के आधार पर वेस्ट कहते हैं कि हिंदू कुश और हिमालयी क्षेत्र का गठन 70 मिलियन वर्ष पहले हुआ था। साल 1970 तक ग्लेशियर की बर्फ पिघलनी शुरू नहीं हुई थी। लगातार होती ग्लोबल वर्मिंग के कारण तीसरे ध्रुव का अभी हम 14 प्रतिशत हिस्सा खो चुके हैं।
वह कहते है कि स्थिति बहुत खतरनाक है, यदि ग्लोबल वार्मिंग को नियंत्रित नहीं किया जाता है, तो अध्ययन के अनुसार आने वाले समय में उत्सर्जन से पहाड़ों में पांच डिग्री तापमान की वृद्धि होगी और 2100 तक उनके दो तिहाई ग्लेशियरों को इसका नुकसान होगा।
"वर्तमान परिस्थितियों के बिगड़ने का अर्थ होगा अधिक आपदाएँ और अचानक परिवर्तन जिससे प्रभावित देशों के बीच संघर्ष हो सकते है। स्थिति यह है कि भूगर्भीय कारणों से पहाड़ नाजुक है। जिसके कारण पहाड़ों बिना मानव हस्तक्षेप के भूसख्लन की चपेट में आ रहे हैं।" उन्होंने कहा।
वह कहते हैं, यह पूरा क्षेत्र जलवायु परिवर्तन, प्राकृतिक आपदाओं, आर्थिक विकास, वैश्वीकरण, बुनियादी ढांचे के विकास, प्रवासन और भूमि उपयोग परिवर्तन जैसी परेशानियों से तेजी से आ रहे परिवर्तन को झेल रहा हैं। रिपोर्ट के अनुसार यह सभी परिवर्तन सिर्फ इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए ही नहीं बल्कि विश्व स्तर पर भी प्रभावकारी परिणाम देंगे।
धरती से अधिक पहाड़ों में लगातार बढ़ते तापमान पर बात करते हुए वेस्ट कहते हैं कि, "पहाड़ों पर सामान्यतः औसत 1.5 डिग्री तापमान होता है। महासागरों में तापमान जमीन की तुलना में अधिक धीरे-धीरे बदलता है।"
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