उदयपुर- राजस्थान के बांशिन्दे पशु-पक्षी और पर्यावरण के प्रति अपने स्नेह के लिए भारत में ही नहीं समूचे विश्व में विख्यात हैं। तीन सदियों पहले जब पर्यावरण संरक्षण को लेकर कोई जागरूकता कार्यक्रम नहीं होते थे, तब उस समय जोधपुर के एक गांव में 363 ग्रामीणों ने खेजड़ी के वृक्षों को कटने से बचाने के लिए अपनी जानें कुर्बान कर दी थीं । पर्यावरण संरक्षण के एक गौरवशाली इतिहास वाला यह प्रदेश अब बदल गया है।
वर्ष 2022 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के हालिया आंकड़े पर्यावरण के सम्बंध में राज्य की एक धूमिल तस्वीर पेश करते हैं। पर्यावरणीय से जुड़े अपराधों की विभिन्न श्रेणियों में राजस्थान की स्थिति दूसरे राज्यों की तुलना में चिंताजनक है।
एनसीआरबी डेटा के मुताबिक राजस्थान पर्यावरणीय उल्लंघनों में आगे है। ध्वनि, वायु और जल प्रदूषण के साथ-साथ वन अधिनियम, वन्यजीव संरक्षण अधिनियम और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम जैसे प्रमुख अधिनियमों के उल्लंघन सहित कई श्रेणियों में राजस्थान की गिनती 28 राज्यों में टॉप 5 जगहों पर पाई गई है जो अच्छा संकेत नहीं है।
2022 में देश भर में दर्ज किए गए 52,768 पर्यावरण-संबंधी अपराधों में से राजस्थान में 9529 मामले दर्ज किए गए, जो स्थिति की गंभीरता को रेखांकित करता है।
इन अपराधों में सात महत्वपूर्ण अधिनियमों के तहत उल्लंघन शामिल हैं, जो पर्यावरण सुरक्षा उपायों के लिए व्यापक उपेक्षा को दर्शाते हैं। इन अधिनियमों में वन अधिनियम (1927) और वन संरक्षण अधिनियम (1980), वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (1972), पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम (1986), वायु और जल (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, शामिल हैं। सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम (2003), शोर प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम (2000), और राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम (2010)हैं।
कई राज्यों में वन्यजीव अपराधों में वृद्धि देखी गई, इसमें राजस्थान में 2021 की तुलना में ऐसे मामलों में लगभग 50% की वृद्धि दर्ज हुई है। यह वृद्धि राजस्थान को वन्यजीव अपराध में सबसे आगे रखती है, जो देश भर में दर्ज किए गए कुल मामलों का 30% है।
वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत राजस्थान में कुल 159 मामले दर्ज किए गए हैं, जो रेगिस्तानी राज्य को शीर्ष स्थान पर रखता है, इसके बाद उत्तर प्रदेश 120 मामलों के साथ दूसरे स्थान पर है। वन अधिनियम और वन संरक्षण अधिनियम के तहत मामलों की संख्या 219 है जो उत्तर प्रदेश के बाद दूसरे स्थान पर है जहां आलोच्य वर्ष में 1201 मामले दर्ज किए गए।
बढ़ते वन्य अपराधों को लेकर द मूकनायक ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (एनटीसीए) के सदस्य राहुल भटनागर से बात की, जिनके अनुसार नतीजे 'चौंकाने वाले' हैं क्योंकि भटनागर ने बताया कि हालिया वन सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार राज्य में वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है।
उनका तर्क है कि ये निष्कर्ष हालिया वन सर्वेक्षण रिपोर्ट के बिल्कुल विपरीत हैं, जो राज्य में वन क्षेत्र में वृद्धि का संकेत देता है। भटनागर स्पष्ट विरोधाभास पर सवाल उठाते हुए कहते हैं कि हरित आवरण यानी Green Cover में वृद्धि से आदर्श रूप से लकड़ी की तस्करी, पेड़ों की कटाई और अवैध शिकार जैसे पर्यावरण से संबंधित अपराधों में गिरावट होना माना जाता है।
भटनागर बताते हैं कि केंद्र और राज्य सरकारों की कई कल्याणकारी योजनाओं, जैसे उज्ज्वला गैस योजना, मुफ्त राशन आदि से परिवारों, विशेषकर वनवासियों को अब ईंधन और भोजन संकट का सामना नहीं करना पड़ता है।
हालाँकि, जल प्रदूषण में वृद्धि का प्रमुख कारण भटनागर मछली पकड़ने के अनुबंधों को देते हैं जो राज्य सरकार ने प्रत्येक तहसील के लगभग हर जलाशयों में दे रखे हैं। भटनागर कहते हैं, "एक भी तालाब या झील बाकी नही जहां मछली पकड़ने के ठेके नहीं दिए हैं जिसमें जवाई बांध और बड़ी जैसे जलाशय और रेसर्वोयेर भी शामिल हैं। उदयपुर का बड़ी तालाब महाशीर (एक मछली की प्रजाति जो केवल साफ पानी में जीवित रहती है) संरक्षित क्षेत्र है; हालांकि, यहां मछली पकड़ना अनियंत्रित रूप से जारी है। इसे सख्ती से रोका जाना चाहिए क्योंकि ऐसी गतिविधियाँ प्रदूषण और पर्यावरणीय क्षरण को बढ़ावा देती हैं।"
एनसीआरबी रिपोर्ट कहती है जल और वायु प्रदूषण रोकथाम और नियंत्रण में राजस्थान 32 मामलों के साथ शीर्ष स्थान पर है, जबकि तमिलनाडु 22 मामलों के साथ दूसरे रैंक पर है। सिगरेट और अन्य तंबाकू उत्पाद अधिनियम (COTPA) से संबंधित अपराध भी राजस्थान की तरह ही चिंताजनक हैं। चौंका देने वाले आंकड़े यानी 1818 मामलों के साथ राजस्थान 28 राज्यों में चौथे स्थान पर है।
द मूकनायक ने आईसीआरएएफ - द वर्ल्ड एग्रोफोरेस्ट्री सेंटर के राज्य समन्वयक डॉ. सत्य प्रकाश मेहरा से पर्यावरणीय अपराधों के बढ़ते मामलों के संभावित कारणों पर चर्चा की। मेहरा ने दावा किया कि एनसीआरबी डेटा केवल आधी सच्चाई बताता है, यह स्थिति और भी गंभीर है। वह प्राकृतिक संसाधनों के असमान बंटवारे और अंधाधुंध दोहन की ओर इशारा करते हैं, फिर चाहे अरावली पर्वत श्रृंखला हो, या दक्षिण पूर्वी राजस्थान में चंबल जैसे जल संसाधन, या दक्षिणी क्षेत्र में देवास और माही नदियाँ-मेहरा कहते हैं पर्यावरण को बचाने के लिए ठोस नीतियों और सख्त कदम के बिना ये अपराध बढ़ते रहेंगे। 70 प्रतिशत आबादी ग्रामीण इलाकों में रहने के बावजूद, शहरी आबादी की जरूरतों को पूरा करने के लिए गांव की नदियों से पानी नगरों में सप्लाई हो रही है, ग्रामीणों को खेती बाड़ी के लिए पानी नहीं मिल रहा, नदियां तालाब अत्यधिक दोहन से सूख रहे हैं।
राजस्थान का एक खनन केंद्र यानी mining hub में परिवर्तन पर प्रकाश डालते हुए मेहरा कहते हैं कि क्षेत्र के समृद्ध प्राकृतिक संसाधनों को ख़त्म करने वाले टाइकून और कॉरपोरेट्स द्वारा अनियंत्रित शोषण environment degradation के सबसे प्रमुख कारण हैं।
मेहरा ने कानूनी और अवैध भूमि पट्टों के प्रसार की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए कहा, "वनवासियों और स्थानीय समुदायों, जो सही मायने में जंगलों से संबंधित हैं, को बाहर धकेला जा रहा है।" वह इस बात पर जोर देते हैं कि लगभग 33 हजार खदानों में अभी भी पर्यावरण-पुनर्स्थापना का कार्य नहीं किया गया है, जो खनन क्षेत्र में जिम्मेदारी की कमी को दर्शाता है। बड़े पैमाने पर शोषण और पर्यावरणीय गिरावट पर नियंत्रण के लिए, मेहरा व्यापक नीतियों और पारिस्थितिकी बहाली के प्रयासों के तत्काल कार्यान्वयन की वकालत करते हैं।
वन्यजीव विशेषज्ञ और संरक्षण वैज्ञानिक, डॉ. सुनील दुबे, एनसीआरबी डेटा को झूठा और अविश्वसनीय बताते हुए खारिज करते हैं। वे मानते हैं कि वन्य क्षेत्रों में होने वाले अपराधों की संख्या बहुत ज्यादा है लेकिन भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी हैं कि अधिकांश मामले विभागीय कर्मचारियों की मिलीभगत से रफा दफा कर दिए जाते हैं जो रिकार्ड में शामिल ही नहीं होते हैं।
डॉ. दुबे के अनुसार, कई मामले, विशेष रूप से लकड़ी की तस्करी, अवैध शिकार जैसी अवैध गतिविधियों से संबंधित मामले दर्ज नहीं किए जाते और अपंजीकृत रहते हैं। वह सिस्टम के भीतर व्यापक भ्रष्टाचार पर प्रकाश डालते हैं, जहां जंगलों से बड़ी मात्रा में लकड़ी अवैध रूप से ली जाती है, और अपराधी अक्सर अधिकारियों को रिश्वत देकर सज़ा से बच जाते हैं।
सीता माता अभयारण्य कोर एरिया डेवलपमेंट कमेटी के सदस्य डॉ. दुबे एक चिंताजनक जानकारी देते हैं कि अभयारण्य के भीतर कम से कम 1500 फायर पॉइंट्स ( fire points) मौजूद हैं। वह बताते हैं कि एफएसआई उपग्रह से वन क्षेत्रों में आग लगने की दैनिक रिपोर्ट भेजता है, खासकर गर्मी के मौसम में, लेकिन एनसीआरबी डेटा इन घटनाओं का हिसाब या मोनिटरिंग नहीं करता है। यह विसंगति डेटा की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा करती है, जिससे डॉ. दुबे इसकी सटीकता और विश्वसनीयता पर सवाल उठाते हैं।वे जंगल की आग के मुद्दे की गंभीरता को रेखांकित करते हुए वन्यजीवों पर इसके घातक प्रभाव पर जोर देते हैं। डॉ. दुबे का कहना है कि जहां कुछ आग दुर्घटनाओं के कारण लग सकती हैं, वहीं अन्य जानबूझकर की गई हरकतें हैं, जो दोनों ही पारिस्थितिकी तंत्र के लिए महत्वपूर्ण खतरा पैदा करती हैं। डॉ. दुबे इस बात पर प्रकाश डालते हुए एक महत्वपूर्ण मुद्दा उठाते हैं कि ये घटनाएं, चाहे आकस्मिक हों या जानबूझकर, अक्सर आधिकारिक रिपोर्टों में दर्ज नहीं की जाती हैं।
खेजड़ली नरसंहार सितंबर 1730 में राजस्थान के जोधपुर गांव में हुआ था जब बिश्नोई समुदाय के 363 लोग खेजड़ी पेड़ों के एक बाग की रक्षा करने की कोशिश में मारे गए।
जोधपुर के तत्कालीन महाराजा अभय सिंह ने एक नया महल बनाने की योजना बनाई जिसके लिए लकड़ियों की आवश्यकता पड़ी। इसके लिए खेजड़ी के पेड़ों को काटने के लिए गाँव में सैनिकों को भेजा गया जिसके परिणाम भयावह साबित हुए। गांव में अमृता देवी बिश्नोई नामक महिला के नेतृत्व में, ग्रामीणों ने अपने पेड़ों की कटाई को रोकने का संकल्प उठाया। अमृता ने कहा कि खेजड़ी के पेड़ बिश्नोई लोगों के लिए पवित्र हैं और उनका विश्वास उन्हें पेड़ों को काटने की अनुमति देने से रोकता था। अमृता देवी ने निडरता से सैनिकों का सामना किया और कुल्हाड़ी से बचाने के लिए एक पेड़ को आलिंगनबद्ध किया। सैनिकों ने उसे हटाने का प्रयास किया लेकिन वो नहीं मानी। उनकी तीन बेटियां भी मां की देखादेखी पेड़ों से चिपक कर खड़ी हो गई और सैनिकों ने उन्हें काट डाला। प्रतिरोध के इस कृत्य ने गांव के अन्य लोगों को प्रेरित किया, जिसमें इस ह्रदयविदारक घटना में 363 लोगों ने खेजड़ी पेड़ों की रक्षा के लिए अपनी जान दे दी। महाराजा अभय सिंह ने पश्चाताप से द्रवित होकर अंततः सैनिकों को वापस बुला लिया।
अमृता देवी की विरासत आज भी कायम है, जो विविध समुदायों को प्रेरणा देती है। उनका गांव, जिसे अब 'खेजड़ली' के नाम से जाना जाता है, उनके बलिदान की याद दिलाता है, जहां बिश्नोई समुदाय हर साल सितंबर में उनकी और अन्य प्रदर्शनकारियों की याद में इकट्ठा होता है।
1970 के दशक में, उत्तराखंड का चिपको आंदोलन राजस्थान की इसी घटना से प्रेरित है। 2001 में राष्ट्र ने अमृता देवी बिश्नोई वन्यजीव संरक्षण पुरस्कार की स्थापना करके पर्यावरण संरक्षण में अमृता देवी के अमूल्य योगदान को मान्यता दी, और आज उनके नक्शेकदम पर चलने वालों को सम्मानित किया जाता है।
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