उत्तर प्रदेश: बच्चियों की शिक्षा के लिए हमेशा से मुखर रहीं माँ कैलाश चौधरी की कोविड महामारी में देहांत के बाद, गरिमा चौधरी माँ की विचारधाराओं को हमेशा सजों कर रखना चाहती थीं. माँ ग्रामीण बच्चों के साथ-साथ गांव की उन बच्चियों को अच्छी शिक्षा देने की हमेशा पक्षधर रहीं जिन्हें अक्सर घर के चौखट के भीतर घरेलू कार्यों तक ही सीमित कर दिया जाता है. आज गरिमा के दो मंजिला मकान का निचला तल पूरा क्लासरूम का आकार ले चुका है. यह अब गांव के दलित, पिछड़े और आर्थिक रूप से कमजोर बच्चे और बच्चियां की पढ़ाई का एक प्रमुख केंद्र बन चुका है. सबसे ख़ास बात यह है कि यहां पढ़ने आने वाले बच्चों को कोई शुल्क नहीं देना पड़ता है.
गांव के अलावा आसपास के नजदीकी क्षेत्र के बच्चों के पहाड़े रटने, विषयों को याद करने और अक्षरों के उच्चारण की ध्वनि अक्सर रोजाना शाम को यहां से गुजरने वाले लोगों को सुनाई देती है. हाथ में बैग लिए जब बच्चे क्लास रूम में [घर को अंदरूनी रूप से परिवर्तित करके बनाया गया क्लासरूम] प्रवेश करते हैं या घर को लौटते हैं तो मीठी आवाज में बच्चों को “बुआ गुड इवनिंग” कहते हुए सुना जा सकता है. चूंकि गरिमा यहां की बेटी हैं इसलिए गांव के बच्चे उन्हें बुआ कहते हैं.
घर के भीतर प्रवेश करते ही नन्हे बच्चों द्वारा बनाए गए सौर्यमंडल, ग्रहों की कलाएं, मानव अंगों की पहचान वाले बड़े कैलेण्डर दीवारों पर चस्पा हुई दिखती हैं, जैसे हम किसी स्मार्ट क्लास में मौजूद हों. स्टडी टेबल्स, बच्चों के बैठने के लिए बेंच एकदम व्यवस्थित किसी शहर के नर्सरी स्कूल से कम नहीं हैं. यह घर एक घर न होकर पूरा क्लासरूम कह सकते हैं.
वैसे तो पूर्वी यूपी के बस्ती जिला मुख्यालय से लगभग 12 किमी. दूरी पर स्थित इस ओडवारा गांव के आसपास कई सरकारी व निजी विद्यालय भी मौजूद हैं, लेकिन गांव के वह बच्चे जो आर्थिक रूप से कमजोर परिवार से आते हैं, जिनमें अधिकांश दलित समुदाय से हैं, और अच्छी शिक्षा पाना चाहते हैं, लेकिन वह महंगे स्कूल में नहीं पढ़ सकते, या स्कूल में पढ़ते हुए कोचिंग कर पाने में सक्षम नहीं हैं, ऐसे बच्चों से गरिमा चौधरी का घर रोजाना भरा रहता है. क्योंकि उन बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के लिए जो जरुरी है वह यहां सब मिलता है.
इस काम में गरिमा चौधरी का पूरा परिवार उनका साथ देता है. निरंतर सुधार और प्रगति के लिए उनके भाइयों, भाभी, बहनों और करीबी दोस्तों का एक सलाहकार समूह है। कुछ सलाहकार समूह के सदस्य जिला मुख्यालय पर रहते हैं जो प्रबंधन के लिए समय-समय पर सलाह-परामर्श देते हैं।
यहां सभी बच्चों की क्लास शाम को 4 बजे के बाद लगभग डेढ़ घंटे तक चलती है. यहां आने वाले बच्चों में, प्राथमिक कक्षा से लेकर हाई स्कूल तक लगभग पचास बच्चे हैं। इसमें 4 साल से लेकर 14-15 साल तक के बच्चे और बच्चियां शामिल हैं. साथ ही, उनकी दैनिक कक्षाओं का ध्यान रखने के लिए छह बेहद उत्साही शिक्षक भी हैं। शिक्षकों का खर्च और वेतन गरिमा स्वयं वहन करती हैं।
गरिमा बताती हैं कि उनका लक्ष्य अपने सभी बच्चों [जो उनके घर पढ़ने आते हैं] को उनके जीवन में कुछ बनने और अपने परिवार को गरीबी और चुनौतियों के घेरे से बाहर निकालने के लिए किसी भी चीज़ की सहायता करना है। इसके लिए वह बच्चों को शिक्षा, शैक्षिक वस्तुएं जैसे किताबें, नोटबुक, पेन आदि और कुछ मामलों में कपड़े भी मुहैया कराती हैं।
वह बच्चों के साथ त्यौहार मनाती हैं और उन्हें अपनी प्रतिभा (नृत्य, गायन) दिखाने के लिए मंच देने का प्रयास करती हैं ताकि उनका विश्वास बढ़ाया जा सके। गरिमा विश्वास से कहती हैं कि, “हम चाहते हैं कि बच्चे यह महसूस करें कि मोमा फॉर डॉटर्स एक सुरक्षित जगह है, जहां उनकी देखभाल की जाती है, दुर्भाग्य से कई वंचित बच्चों को यह एहसास उनके घर में नहीं मिलता है।”
लड़कियों की शिक्षा में आने वाली बाधाओं के बारे में वह मानती हैं कि, ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की शिक्षा अभी भी अधिकांश परिवारों के लिए प्राथमिकता नहीं है। उनमें न केवल इस बात की जागरूकता की कमी है कि शिक्षा उनकी बेटियों और समाज के सशक्तिकरण के लिए कितनी महत्वपूर्ण है, बल्कि इसके लिए मुखरता की भी कमी है। इसके अलावा, लड़कियों को अपने भाइयों की तुलना में भेदभाव का सामना करना पड़ता है, और उनसे घरेलू कार्यभार और खेती में महत्वपूर्ण योगदान देने की भी उम्मीद की जाती है। घरेलू बोझ के कारण ग्रामीण लड़कियों को अपनी पढ़ाई के लिए पर्याप्त समय निकालना बहुत चुनौतीपूर्ण लगता है।
मोमा फॉर डॉटर्स ग्रामीण अंचल में कैसे ग्रामीण बच्चियों की जिंदगी में बदलाव ला रहा है, सवाल के जवाब में वह बताती हैं कि, “हम यह उम्मीद करते हैं और सोचते हैं कि, शिक्षा की गुणवत्ता और सुरक्षित वातावरण में सुधार करके हम एक सफल भविष्य और जिंदगी की संभावनाएं बढ़ा रहे हैं। यदि, हम प्रति परिवार केवल एक बच्चे को कुछ उपलब्ध करा सकें, तो वे गरीबी की दीवार को तोड़ने में सक्षम होंगे और पूरे परिवार के जीवन को महत्वपूर्ण रूप से बेहतर बनाएंगे। तीन साल की छोटी अवधि में, हमारे पास पहले से ही कुछ लड़कियाँ हैं जिनकी उच्च शिक्षा और कंप्यूटर पाठ्यक्रम प्रायोजित किये गए थे, और अब वे कुछ कमाई कर रही हैं, जिससे उनका और उनके माता-पिता का जीवन बेहतर हो रहा है।”
गरिमा चौधरी द मूकनायक के साथ साक्षात्कार में बताती हैं कि, पिता डॉ. राम गणेश चौधरी के सेवानिवृत्ति के बाद उनके माता-पिता पैतृक गांव उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले के ओडवारा आ गए, क्योंकि वे अपनी मातृभूमि पर वापस लौटना चाहते थे। वह कहती हैं, “मुझे अपने माता-पिता की तरह अपनी जड़ों पर बहुत गर्व है। मेरे माता-पिता हमेशा उस समुदाय को कुछ वापस लौटाना चाहते थे, जहां से वे आए थे, और इस फाउंडेशन के हिस्से के रूप में हम जो काम करते हैं, उससे मुझे अपने माता-पिता के साथ संबंध बनाए रखने में मदद मिलती है। मैं चाहूंगी कि हमारे गांव के प्रत्येक बच्चे को अपने सपनों को पूरा करने का वही अवसर मिले, जो मुझे अपने माता-पिता द्वारा प्रदान किया गया था।”
वह बताती हैं कि, “अपनी सेवानिवृत्ति से पहले ही मेरे पिताजी ने एक एनजीओ (ग्रामीण सहभागिता विकास समिति) पंजीकृत किया था और उनकी योजनाएँ बड़ी थीं, वे किसान सहायता, लड़कियों के सशक्तिकरण, शिक्षा, सामाजिक कल्याण, बुनियादी ढाँचे के विकास और उससे भी आगे की योजना बनाना चाहते थे।”
“मेरे माता-पिता, विशेष रूप से मेरी माँ, जिन्हें शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला, लेकिन लड़कियों की शिक्षा और सशक्तिकरण की बहुत बड़ी समर्थक थीं। उन्होंने मुझे वह बनने के लिए प्रोत्साहित किया जो मैं बनना चाहती थी. बस्ती में अपने समय के दौरान उन्होंने अपने आसपास की सभी लड़कियों और महिलाओं को भी प्रोत्साहित किया। वह बस यही चाहती थी कि लड़कियाँ और महिलाएँ स्वतंत्र हों.”
दलित व हाशिये के समाज से आने वाले बच्चों की शिक्षा के लिए प्रेरणा देने वाली माँ को याद करते हुए गरिमा कहती हैं, “कोविड सभी के लिए कठिन था और यह हमारे परिवार के लिए कोई अलग नहीं था. हम जिन्हें ‘माँ’ कहते थे, उन्हें 9 मई, 2021 को मदर्स डे के दिन खो दिया। उसी दिन उनकी याद में, मैंने उनके काम को आगे बढ़ाने के लिए ‘मोमा फॉर डॉटर्स - कैलाश चौधरी फाउंडेशन’ [Moma for Daughters – Kailash Chaudhary Foundation] की स्थापना की।”
भावुक होते हुए वह कहती हैं, “2 साल बाद 2023 में हमने अपने पिता को भी खो दिया, इसलिए अब उन दोनों की याद में, मैं बस्ती में उनके समर्पित पैतृक गांव में उनका काम जारी रखी हूं। मैं अपने माता-पिता की देखभाल में जो प्यार, स्नेह और ऊर्जा लगाती थी, उसे मैंने अब बच्चों की शिक्षा की नींव में लगा दिया है। यह मुझे हर दिन उनके करीब रखता है।”
मोमा फॉर डॉटर्स को शुरू करने के बाद सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में वह बताती हैं कि, “मेरी सबसे बड़ी चुनौती माता-पिता के बीच अपने बच्चों की शिक्षा को प्राथमिकता देने के प्रति जागरूकता की कमी है। उदाहरण के लिए, हमें अभिभावक-शिक्षक बैठकों आदि में शामिल होने में कठिनाई होती है या, माता-पिता अपने बच्चों को घर पर पढ़ाने पर शायद ही कोई ध्यान देते हैं। इसके अतिरिक्त, ग्रामीण क्षेत्रों में पर्याप्त शिक्षक मिलना तो दूर कुशल शिक्षक मिलना भी बहुत चुनौतीपूर्ण है। इसके अलावा, हमें नियमित रूप से सामाजिक प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ता है, क्योंकि हमारे गांव में अधिकांश लोगों को यह स्वीकार करने में कठिनाई होती है कि हमारा इरादा पूरी तरह से निस्वार्थ है।”
वह बताती हैं कि, “मोमा फॉर डॉटर्स की स्थापना के तीन साल बाद से मुझे इस उद्देश्य के लिए किसी भी सरकारी सहायता सहित किसी से एक पैसा भी नहीं मिला है। यह 100% व्यक्तिगत रूप से मेरे द्वारा वित्त पोषित है जिसमें लॉजिस्टिक्स, शिक्षकों का वेतन, उत्सव आदि खर्च शामिल हैं। यह हमारे पैतृक गांव में मेरे माता-पिता के सपने को समर्थन देने और उसे आगे बढ़ाने की मेरी जीवन भर की प्रतिबद्धता का हिस्सा है। ‘मोमा फॉर डॉटर्स’ मेरे पिताजी के एनजीओ — ‘ग्रामीण सहभागिता विकास समिति’ का एक हिस्सा है।”
गरिमा चौधरी (41), का जन्म मेघालय की राजधानी शिलांग में हुआ, जब पिता भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) में एक वैज्ञानिक के रूप में उत्तर-पूर्व भारतीय क्षेत्र में पोस्टेड थे. गरिमा पेशे से एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं. 1993 में मेघालय से लौटने के बाद वह काफी दिनों तक कानपुर में रहीं और 2006 में उन्होंने यहीं से बीटेक किया.
2006 में कॉलेज की पढ़ाई पूरी करने के ठीक बाद, वह तकनीकी दुनिया की दिग्गज कंपनी ओरेकल (Oracle- एक अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंप्यूटर तकनीक निगम जो डेटाबेस प्रबंधन प्रणाली की विशेष रूप से अपने स्वयं के ब्रांड - कंपनी कंप्यूटर हार्डवेयर सिस्टम और उद्यम सॉफ्टवेयर उत्पादों के विकास और विपणन में माहिर) के लिए एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में काम करने लगीं। उसके बाद, ऑस्ट्रेलिया, चिली, संयुक्त राज्य अमेरिका सहित तमाम देशों में स्थित बड़े बैंकों के लिए सॉफ्टवेयर इम्प्लीमेंट करने के लिए Oracle के प्रोफेशनल सर्विस में शामिल हो गईं। 2014 में वह सेल्स इंजीनियरिंग के लिए अमेरिका चली गईं और अब यहीं से कंपनी की एक टीम को लीड करती हैं।
अमेरिका में रहते हुए मोमा फॉर डॉटर्स का प्रबंधन कैसे करती हैं, के सवाल पर वह समझाती हैं कि, “मेरी बहन से रोजाना वीडियो कॉल पर बात होती है जो प्रबंधन, बच्चों से बात करने और शिक्षकों के साथ नियमित अपडेट/चर्चा में मेरी मदद करती है। बच्चों, उनकी उपस्थिति, पाठ्यक्रम और उनके साप्ताहिक परीक्षा परिणामों के बारे में पूछना कुछ ऐसा है जो मैं हर दिन करती हूं। मैं भारत और अमेरिका के बीच समय के अंतर का लाभ उठा सकती हूं, क्योंकि मैं अपने दिन की शुरुआत हर सुबह अपने बच्चों की गतिविधियों की जांच करके करती हूं, और बच्चे अच्छी तरह जानते हैं कि उनकी ‘बुआ’ अप टू डेट हैं।”
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