भोपाल। मध्य प्रदेश के ग्वालियर-चंबल क्षेत्र में निवासरत विशेष पिछड़ी जनजाति के सहरिया समुदाय के सैकड़ों भाषाई शिक्षक नियुक्ति और मानदेय के इंतजार में है। लेकिन सरकार इनकी समस्याओं के लिए गंभीर नहीं दिख रही। द मूकनायक को अपनी पीड़ा व्यक्त करते प्रताप सिंह आदिवासी बताते हैं कि, "साल 2008 में हमारी भर्ती स्कूलों में भाषाई शिक्षक के पद पर हुई थी, सहरिया समाज के बच्चे किताबी भाषा को समझने में सक्षम नहीं हैं, हमारे समुदाय की आम बोलचाल की भाषा में बच्चों को शिक्षा से जोड़ने के लिए हमें स्कूलों में रखा गया था। साल 2017 में 286 पदों को सरकार ने कैबिनेट से मंजूरी दी, लेकिन स्थाई भर्ती नहीं हुई।"
"साल 2014 में सरकार ने जिले स्तर पर आदेश जारी कर हमारी सेवाएं समाप्त कर दी थी, हाईकोर्ट में याचिका दायर हुई, कोर्ट ने सरकार को सेवा में लेने के निर्देश दिए, कुछ लोगों अस्थाई रूप से वापस रख लिया गया। वहीं दो सौ से ज्यादा शिक्षकों की सेवाएं समाप्त कर दी गईं। हम 15 सालों से स्कूलों में सेवाएं दे रहे हैं, लेकिन सितंबर 2022 से हमें मानदेय नहीं मिला। हम गरीब हैं, मजदूरी करके परिवार पाल रहे हैं। पढ़े-लिखे होने के बाद भी हम मजदूरी कर रहे हैं, हम सरकार से मांग करते-करते थक गए, पर हमारी कहीं सुनवाई नहीं कि गई," प्रताप सिंह ने कहा.
मध्य प्रदेश में जनजातीय समुदाय के सहरिया समाज अपनी मातृभाषा/क्षेत्रीय बोली को संरक्षित करने के लिए संघर्ष कर रहा है। प्रदेश के ग्वालियर और चंबल संभाग के ग्रामीण इलाकों में सहरिया समाज के लोग निवासरत हैं। सरकार ने आदिवासी सहरिया समाज को शिक्षा से जोड़ने के लिए भाषाई शिक्षकों के पद भी सृजित किए, लेकिन आजतक नियुक्तियां नहीं हो पाईं। विद्यालयों में भाषा को नहीं समझ पाने के कारण कई सहरिया समाज के बच्चों ने स्कूल से मुँह मोड़ लिया। इसी समस्या को देखते हुए भाषाई शिक्षकों को स्कूलों में नियुक्त किया गया था। सहरिया समाज के बच्चे शिक्षा से जुड़ें, इस उद्देश्य से भाषाई शिक्षकों ने काम शुरू किए. ग्रामीण इलाकों में अभिभावकों को समझाइश के बाद स्कूलों में बच्चों की संख्या भी बढ़ने लगी थी।
यह शिक्षक बच्चों को आम बोलचाल की भाषा में पढ़ाते थे, जिससे सहरिया समाज के बच्चे जो किताबी भाषा से असहज थे उन्होंने स्कूल जाना शुरू कर दिया। उदाहरण के तौर पर सहरिया समाज के लोग भैंस को "भैंसइया" कहते हैं, इसी तरह के सैकड़ों शब्द के कारण बच्चे शिक्षा से जुड़ नहीं पा रहे थे, और यही समस्या भाषाई शिक्षकों के काम से दूर हो रही थी।
मध्य प्रदेश के ग्वालियर-चंबल के जिलों में आदिवासी समुदाय के सहरिया समाज के लोग ग्रामीण अंचलों में रहते हैं। सर्वाधिक आबादी में यह शिवपुरी, श्योपुर, ग्वालियर और अशोकनगर जिले के ग्रामीण इलाकों में निवासरत है। पूरे प्रदेशभर में सहरिया मुख्यरूप से ग्वालियर-चंबल में ही पाए जाते हैं। जनजातियों में सहरिया अति पिछड़ी जनजातियों में से एक है जिसे विशेष पिछड़ी जनजाति (PVTGS) में रखा गया है।
द मूकनायक से बातचीत करते हुए शिवपुरी के भाषाई शिक्षक अनिल सहरिया ने बताया कि सरकार से अपना हक मांगते हुए वह थक चुके हैं। उन्होंने कहा कि कमिश्नर, कलेक्टर और सम्बंधित अधिकारियों को कई बार ज्ञापन दिए लेकिन किसी ने उनकी समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया। अनिल ने कहा, "मध्य प्रदेश सरकार के तत्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंच से वादा किया था कि भाषाई शिक्षकों को स्थाई करेंगे लेकिन कुछ नहीं हुआ।"
वर्ष 2008 में जब भाषाई शिक्षकों की भर्ती की गई थी तब इन्हें मानदेय के रूप में 2500 रुपये प्रतिमाह दिए जाते थे। साल 2017 में यह राशि बढ़ाकर पांच हजार प्रतिमाह कर दी गई। शिवपुरी जिले के भाषाई शिक्षक प्रदीप आदिवासी ने बताया कि सितंबर 2022 से उन्हें मानदेय नहीं मिला है, और जब उन्होंने अधिकारियों से इसके बारे में पूछा तो बताया गया कि सरकार ने भाषाई शिक्षकों के बजट को रोक दिया है, इसलिए मानदेय का भुगतान नहीं किया जा सकता। प्रदीप ने कहा, "हम लोग पढ़ने-लिखने के बाद भी मजदूरी कर रहे हैं, एक साल से बैंक खाते में मानदेय का एक पैसा तक नहीं मिला।"
किताबी भाषा की समझ नहीं होने के कारण सहरिया छात्र स्कूल छोड़ रहे हैं। भाषाई शिक्षकों को एक साल से मानदेय नहीं मिलने के कारण अब वह भी धीरे-धीरे स्कूल जाना छोड़ कर परिवार को चलाने के लिए मजदूरी कर रहे हैं। इसके पहले ही साल 2014 में करीब दो सौ शिक्षकों की सेवा समाप्त की जा चुकी है।
भाषाई शिक्षकों ने बताया कि लगातार सहरिया समाज के बच्चे पढ़ाई बीच में ही छोड़ रहे हैं। अशोकनगर जिले के ग्राम नारोन की सपना सहरिया ने भी अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। इसका कारण था शिक्षा के लिए प्रोत्साहन नहीं मिलना, और भाषा को समझने में असहज होना। सपना ने वर्ष 2015 में छटवीं कक्षा पास कर सातवीं में पहुँची थी, लेकिन फिर अचानक पढ़ाई छोड़ दी। सहरिया समाज में बच्चे बीच में ही पढ़ाई छोड़ रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक इनका शिक्षा दर भी लगभग 15 प्रतिशत से कम है।
द मूकनायक से बातचीत करते हुए सपना के पिता करन सहरिया ने बताया कि उनकी बेटी सातवीं कक्षा तक स्कूल गई, इसके बाद उसने पढाई छोड़ दी। करन ने कहा कि उन्होंने बेटी को समझाया पर वह स्कूल जाना नहीं चाहती थी। उन्होंने कहा, "भाषाई शिक्षकों को हटाए जाने से यह स्थिति बनी कि बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया, इसके अलावा भी कई बच्चे थे जिन्होंने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी।"
अशोकनगर के नारोन गाँव में वर्ष 2015 में भाषाई शिक्षक के रूप में भानसिंह सहरिया पदस्थ थे। द मूकनायक प्रतिनिधि से बातचीत करते हुए भानसिंह ने बताया कि गाँव के बच्चों को वह स्कूल जाने के लिए प्रोत्साहित करते थे। उनके माता-पिता को भी समझाईश देकर बच्चों को स्कूल में दाखिला कराते थे। उन्होंने कहा, "भाषाई शिक्षकों के रहते हुए सहरिया समाज के बच्चे स्कूल से जुड़ना शुरू हुए थे कि सरकार ने इस योजना को ही बंद कर दिया। भाषाई शिक्षक मूल रूप से बच्चों को क्षेत्रीय भाषा, और बोली में बच्चों को पढ़ाते थे, ताकि सहरिया समाज के बच्चे ठीक से समझ सकें।"
शिवपुरी जिले में सहरिया क्रांति आंदोलन को संचालित कर रहे बरिष्ठ पत्रकार संजय बेचैन ने बताया कि सहरिया समाज के लोग ग्रामीण क्षेत्रों और जंगलों के नजदीक रहते हैं। बाहर के अन्य लोगों से संपर्क कम होने के कारण सिर्फ यह अपनी बोली में बात करते हैं। बच्चों की भी ऐसी ही स्थिति है। भाषाई शिक्षक सहरिया जनजातीय समाज के बच्चों को उनकी ही भाषा में पढ़ा रहे थे। इसलिए यह बच्चे स्कूल और शिक्षा से जुड़ना शुरू हुए थे। इनकी कोई अलग भाषा नहीं है, यह अपनी बोली में बातचीत करते है। सजंय बेचैन ने कहा, "कुछ लोग इन्हें शिक्षा से दूर रखना चाहते हैं।"
सहरिया जनजाति पिछड़ी जनजातियों में से एक है जिसे सरकार ने विशेष पिछड़ी जनजाति (PVTGs) में शामिल किया गया है। इनके पिछड़ेपन का मुख्यकारण शिक्षा से दूर होना है। सहरिया अति प्रचानी परम्परागत कृषि तकनीकी का उपयोग करते हैं। यह जंगलों में मिलने वाली औषधियों की बेहतरी समझ रखते हैं। वर्तमान में इनकी शून्य जनसंख्या वृद्धि है, और यह सर्वाधिक कुपोषित जनजाति हैं। देश में चार लाख के करीब अति पिछड़ेपन का शिकार जनजातीय समाज के लोग हैं। जिनमें सर्वाधिक सहरिया समाज के लोग पिछड़े हैं।
बीयू समाजशास्त्र विभाग के शोधार्थी इम्तियाज खान ने द मूकनायक को बताया कि, देश में अति पिछड़ी 75 जनजातियां है, जो की 18 राज्यों में पाईं जाती हैं। मध्य प्रदेश में तीन जनजातियां - वैगा, भारिया और सहरिया विशेष पिछड़ी जनजातियों में शामिल हैं। शिक्षा का निम्न स्तर होना इनके पिछड़ेपन का मुख्यकारण है। अपनी क्षेत्रीय बोली में ही यह बातचीत करते है। इस कारण से भी यह शिक्षा के साथ मुख्यधारा से दूर हैं।
प्रदेश के शिवपुरी और श्योपुर जिले में ही सर्वाधिक आबादी में सहरिया समाज के लोग रहते है। प्रदेशभर में कुपोषण में श्योपुर जिला टॉप पर है। यहाँ रह रहे सहरिया समाज कुपोषण का शिकार है। प्रशासन और महिला बाल विकास कुपोषण दूर करने के लिए कई तरह के अभियान चला रहे हैं। लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी परिणाम संतोषजनक नहीं है।
बीते साल ग्वालियर चंबल संभाग के जनजातीय समुदाय के सहरिया पैदल 400 किलोमीटर की यात्रा कर राजधानी भोपाल पहुँचे थे। पैदल यात्रा कर भोपाल पहुँचे लोगों का कहना था कि, 2017 में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भाषाई शिक्षक के 286 पदों को सृजित करने की घोषणा की थी, लेकिन कैबिनेट से मंजूर होने के बाद भी भाषाई शिक्षकों की नियुक्ति नहीं हुई है।
सहरिया समाज के आकाश आदिवासी ने द मूकनायक से को बताया कि, "वर्ष 2014 में भाषाई शिक्षकों को हटाया गया था। साल 2018 में शासन द्वारा 286 पद सृजित किये उन्हीं पदों पर हटाए गए शिक्षकों को नियुक्त करने की मांग की जा रही है। लेकिन आज तक हमारी मांगों पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।"
आदिवासी सहरिया समुदाय के लोगों के संवैधानिक अधिकारों और मूल्यों का हनन हो रहा है, शिक्षा और रोजगार के अधिकार से वंचित विशेष पिछड़ी जनजाति के यह लोगों का समता, समानता, आर्थिक न्याय जैसे संवैधानिक मूल्यों का हनन भी हो रहा है। सहरिया समाज की मूल पहचान पलायन और मजदूरी के बोझ में दब रही है। संविधान में हम सभी देश के नागरिकों को अपनी पहचान के साथ जीवन जीने का अधिकार है। लेकिन पिछड़ी जनजाति होने के बावजूद भी इनके अधिकारों का संरक्षण करने के बजाए सरकार सिर्फ इनकी दुर्दशा को देख रही है।
नोट- खबर में उपयोग किये गए सभी फोटो द मूकनायक टीम ने क्लिक किये हैं. यह श्योपुर जिले के कराहल ब्लॉक के सहरिया बहुल गाँव की तस्वीरें हैं।
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