लेखक- तारिक़ अनवर चम्पारणी
17 से 19 दिसंबर तक उत्तराखंड के हरिद्वार में "धर्म संसद" का आयोजन किया गया था। इस धर्म संसद में अनेकों हिन्दू नेता शामिल हुए थे। मंच से देश में नरसंहार करने की खुली बात कही गयी। बल्कि दो तीन वक्ताओं ने तो खुलकर "मुसलमान" और "इस्लाम" जैसे शब्दों का प्रयोग किया। जिसे यह समझने में बिल्कुल ही मुश्किल नहीं है कि मुसलमानों के नरसंहार करने की बात चल रही थी। 17 से 19 दिसंबर तक चले इस संसद कि चर्चा भारतीय मीडिया में बहुत हल्की-फुल्की हो रही थी। लेकिन सोशल मीडिया पर विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय मानवाधिकार एक्टिविस्टों द्वारा प्रतिक्रिया मिलना शुरू हुआ। उसके बाद अंतरराष्ट्रीय मीडिया में खबरें छपने लगी।
जब लोग इस नरसंहार पर चर्चा कर रहे थे तब अचानक से भारतीय मीडिया के एक ग्रुप ने AIMIM नेता और लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी की एक वीडियो को काटकर ट्विटर पर वायरल कर दिया। फिर यह मुद्दा धर्म-संसद बनाम ओवैसी बनाकर धर्म-संसद में हो रही नरसंहार की बातों को बैलेंस बनाने की कोशिश की गयी।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है बल्कि इसका लम्बा इतिहास रहा है। एक सवाल यह उठता है कि आख़िर ऐसे समय में बैलेंस बनाने की जरूरत क्यों पड़ गयी?
किसी भी मुद्दा को हाईजैक करना भारत के सो कॉल्ड सेक्युलर जमात की पुरानी आदत रही है। मुसलमानों की अपनी एक अंतरराष्ट्रीय धार्मिक पहचान है। जब भी भारत का मुसलमान किसी मुद्दा को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने में सफल होता है तब भारत के तथाकथित सोशल एक्टिविस्टों द्वारा उनके मुद्दों को हाईजैक करके कमज़ोर करने की कोशिश की गयी है। इस काम मे देश की तथाकथित सेक्युलर मीडिया या सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स का बड़ा रोल रहता है।
CAA/NRC के आन्दोलन के समय जब जामिया मिल्लिया इस्लामिया और शाहीन बाग में मुसलमानों ने आंदोलन शुरू किया तब शुरुआत के दिनों में भारत की मीडिया ने बहुत रुचि नहीं लिया। मगर जैसे ही अलजजीरा, TRT, टाइम्स, गार्डियन इत्यादि अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने कवर करना शुरू किया वैसे ही लोगों का ध्यान शाहीनबाग की तरफ़ लगना शुरू हुआ। मुसलमानों की धार्मिक पहचान की इस लड़ाई को जबरदस्ती सेक्युलरिज्म की लड़ाई बताकर डाइवर्ट करके कमज़ोर किया किया गया।
यह अंतरराष्ट्रीय प्रेशर को कम करने की स्टेट की एक साज़िश होती है। अंतरराष्ट्रीय स्तर की मशहूर हस्तियों ने ट्विटर पर वीडियो शेयर किया। फिर अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस संसद में नरसंहार की बातों को सुर्खियां मिलने लगी। यूरोप और अमेरिका के समाचारपत्रों और टीवी चैंनलों पर मुद्दा गर्मा गया।
चूँकि हरिद्वार धर्म संसद के बाद अंतरराष्ट्रीय मीडिया में बहस जारी थी जिसके बाद भारत पर अंतरराष्ट्रीय मीडिया का दबाव बनना शुरू हुआ था। सरकार प्रेशर में आ रही थी। सेना और पुलिस के कई रिटायर्ड अधिकारी का बयान इस धर्म संसद के विरुद्ध आ चुका था। फिर अचानक से काँग्रेस के एक नेता AIMIM प्रमुख और लोकसभा सांसद असदुद्दीन ओवैसी के एक स्पीच से चंद सेकंड काटकर वायरल कर दिया।
हालांकि ओवैसी की वह स्पीच 12 दिसंबर, 2020 की थी और उस वीडियो में ऐसा कुछ भी आपत्तिजनक नहीं था। फिर दस दिनों के बाद क्यों याद आया? सवाल तो बनता है। फिर सो कॉल्ड सेक्युलर मीडिया और सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स के एक गिरोह ने उसे वायरल कर दिया। धर्म संसद में नरसंहार की बातों को ओवैसी के उस क्लिप से बैलेंस बनाकर पूरी डिबेट को ही ओवैसी पर केंद्रित कर दिया गया। इस तरह से अंतरराष्ट्रीय प्रेशर को कम करने की एक सफ़ल साज़िश हुई।
ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। उस समय भी मीडिया की कई बड़ी हस्तियों ने शाहीनबाग आंदोलन को लीड कर रहे शरजील ईमाम के ब्यान को भाजपा नेता अनुराग ठाकुर के ब्यान के बराबर में रखकर बैलेंस बनाया और CAA आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश की गई।
शरजील के एक घण्टा के एक भाषण के एक वीडियो से चंद सेकंड को काटकर वायरल कराया गया। उसी वीडियो के आधार पर कांग्रेस के एक कार्यकर्ता ने मुक़दमा दर्ज कराया था। जबकि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने शरजील को बेल देते हुए उस वीडियो में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाया है।
बाबरी मस्जिद और राम मन्दिर के फ़ैसला के समय भी जब हिन्दू संगठन पर अंतरराष्ट्रीय प्रेशर बनना शुरू हुआ तब यही लोग अफगानिस्तान में बुद्धा की मूर्ति तोड़ने वाली घटना से जोड़कर एक नयी बहस शुरू कर दिया था। एक समय ऐसा भी आया जब लिंचिंग को लेकर अंतरराष्ट्रीय मुस्लिम कम्युनिटी में चर्चा शुरू हई थी।
संयुक्त अरब अमीरात की राजकुमारी ने बहुत ही मुखरता के साथ लिंचिंग के मुद्दा को एड्रेस करना शुरू किया था। उस समय भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर को दखल देना पड़ा था। बल्कि क़तर, कुवैत, बहरीन और यूएई में काम कर रहे कई सोशल मीडिया यूज़र्स को नौकरी से निकाला गया। उस समय भी सेक्युलर मीडिया के कई लोगों और सोशल मीडिया इंफ्लुएंसर्स ने इस लिंचिंग को आंतरिक मामला बताकर बचाव किया था।
बल्कि कई लोगों द्वारा तो इसे तालिबान और लिंचर्स को एक फ्रेम में रखकर भारतीय मुसलमानों की आवाज़ों को दबाने की कोशिश की गयी। सबसे हास्यास्पद बात यह थी कि यह बैलेंसिंग हिन्दुवादी संगठनों के साथ-साथ देश की सो कॉल्ड सेक्युलर मीडिया के लोग भी कर रहे थे।
अबतक मुसलमानों को ऐसा लग रहा था कि देश का सो कॉल्ड सेक्युलर जमात उनकी रक्षा करेगा। लेकिन मुसलमानों के भीतर इस बात को लेकर एक एंग्जायटी है कि उनके मुद्दों को सही तरह से एड्रेस नहीं किया गया है। इसपर एक लंबी बहस हो सकती है।
मुसलमान अपने मुद्दों पर क्यों हार जाता है? यह एक सवाल है जो भारत के सभी मुसलमानों के मन में घूमता रहता है। जब भी भारत का मुसलमान किसी मुद्दें को लेकर आंदोलित होता है या जन आंदोलन करता है तब उसके आंदोलन को बीच में हाईजैक कर लिया जाता। इससे मुसलमानों के भीतर जो लीडरशिप की एक खेप तैयार हो सकती हैं उसको ही ख़त्म कर दिया जाता है।
किसी एक मुद्दा को दूसरे मुद्दा से बैलेंस बनाकर मुसलमानों के आंदोलन की तीव्रता को कम करने की कोशिश की जाती है। मुझे लगता है कि इसमें अंदरखाने स्टेट का एक बड़ा रोल होता है। क्योंकि किसी भी आंदोलन को कमज़ोर करने के लिए बल प्रयोग किया जाता या फिर किसी बाहरी फैक्टर को डालकर उसकी तीव्रता कम की जाती है। CAA आंदोलन में बल प्रयोग किया गया। लेकिन बल प्रयोग करने पर अंतरराष्ट्रीय कम्युनिटी में छवि धूमिल होती है। ऐसे में बाहरी फैक्टर्स को डालकर आंदोलन की तीव्रता कम की जाती है। ऐसे में आंदोलन में शामिल उसके सहयोगियों का ही इस्तेमाल किया जाता है।
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