बहुजन साहित्य: हिंसा के घने अंधेरे में जल रहा आशा का दीप!

बहुजन साहित्य: हिंसा के घने अंधेरे में जल रहा आशा का दीप!
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हिंदी में पिछले कुछ समय से बहुजन साहित्य की चर्चा शुरू हुई है। लेकिन बहुजन साहित्य की अवधारणा सिर्फ हिंदी की अवधारणा नहीं है।

मसलन, मणिपुर में जब हिंसा की आग भड़की हुई थी, उस समय मणिपुरी भाषियों ने बहुजन साहित्य पर केंद्रित कार्यक्रम का आयोजन मणिपुर प्रेस क्लब भवन में किया। यद्यपि मणिपुर में जाति-व्यवस्था पहुंचा दी गई है, लेकिन अभी भी उसका वह स्वरूप नहीं है, जो हिंदी पट्टी में है। वहां की समस्याएं अलग हैं, जिसे सुलझाने में बहुजन अवधारणा उन्हें  मददगार लगी होगी। बहुजन अवधारणा जाति-विमर्श से आगे जाती है और बुद्ध के सम्यक दर्शन से जुड़ती है। यही कारण है कि इसका दायरा इतना विस्तृत है।

26 दिसंबर, 2023 को इंफाल में बहुजन साहित्य पर आयोजित उपरोक्त कार्यक्रम की मुख्य अतिथि डॉ. लैशराम बॉबी देवी, उप अध्यक्ष इम्फाल पश्चिम जिला परिषद ने ठीक कहा कि “बहुजन साहित्य समाज के सभी वर्गों के लोगों को एकजुट करने और उन्हें सशक्त बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।” उन्होंने मणिपुर के इतिहास के सबसे कठिन क्षण में इस कार्यक्रम को आयोजित करने के लिए आयोजकों के प्रयास की सराहना की।

कार्यक्रम में नोंगमाइथेम नीलमणि मैतेई, लैखुराम जॉयसन सिंह (दिवंगत), चिंगखम इनाखुनबी लीमा, मैसनामथोइबा सिंह, खेस्त्रीमयुम ओपेंड्रो सिंह, वेयंगबाम सिंघाजीत सिंह और कीशम रणजीत सिंह को सम्मानित किया गया।

मई, 2023 से ही मणिपुर में गृह युद्ध चल रहा है। 2023 का दिसंबर का महीना राज्य के लिए बहुत शोकपूर्ण था। 20 दिसंबर को मणिपुर के चुराचांदपुर जिले में हिंसा के शिकार हुए 87 लोगों का सामूहिक रूप से अंतिम संस्कार किया गया था। ये शव आठ महीने से मुर्दाघरों में थे और इनमें से कुछ को इम्फाल से लाया गया था।

इसके पहले बीते 15 दिसंबर को 19 शवों को सामूहिक कार्यक्रम में दफनाया गया था। ये सब लोग मई-जून 2023 में मारे गए थे। दिसंबर महीने 4 तारीख को एक बार फिर से हिंसा भड़क उठी थी और 13 लोग गोलियों से भून दिए गए थे। मारे गए लोगों के पास कोई हथियार बरामद नहीं हुआ था। 26 दिसंबर को जिस समय साहित्य पर केंद्रित यह आयोजन हो रहा था, उस समय मणिपुर बहुत ही विकट परिस्थिति से गुजर रहा था।

दरअसल, पिछले कुछ समय से भारत के विभिन्न हिस्सों में साहित्य पर केंद्रित ऐसे अनेक कार्यक्रम होने लगे हैं, जिनमें किसी-न-किसी रूप में ‘बहुजन साहित्य’ शब्द-बंध का प्रयोग किया जा रहा है। सन् 2017 में जयपुर में ‘बहुजन साहित्य महोत्सव’ मनाया गया, जिसमें ‘समकालीन साहित्य में बहुजन चेतना’ पर विस्तार से चर्चा हुई।

सन् 2018 में जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में ‘बहुजन साहित्य संघ’ की स्थापना की गयी और ‘बहुजन साहित्य की अवधारणा और सौन्दर्यबोध’ समेत बहुजन साहित्य से सम्बन्धित अन्य कार्यक्रम हुए। हाल ही में बने ‘जन लेखक संघ’ के तत्त्वावधान में 5 जून, 2022 को बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में 'बहुजन साहित्य:दशा और दिशा' विषय पर गोष्ठी हुई, जिसमें कई हिंदी-भाषी राज्यों के लेखकों ने भाग लिया। ऐसे दर्जनों कार्यक्रम हो रहे हैं, जिनमें बड़ी संख्या में लोग भागीदारी कर रहे हैं।

इन कार्यक्रमों को गूगल अथवा फेसबुक के सर्च इंजन में आसानी से तालाशा जा सकता है। हिन्दी के अतिरिक्त मराठी, गुजराती और तमिल में भी बहुजन साहित्य पर केंद्रित आयोजनों के होने की सूचनाएँ मिल रही हैं। तेलांगना में बहुजन साहित्य अकादमी सक्रिय है, जिसका एक बड़ा आयोजन पिछले दिनों दिल्ली में हुआ था। केरल में भी बहुजन साहित्य अकादमी स्थापित हुई है।

इन आयोजनों के अलावा एक और परिवर्तन दिख रहा है। मसलन, डॉ. आम्बेडकर के नाम से जुड़ा इलाहाबाद का एक संगठन ‘वर्तमान परिदृश्य में हिन्दू कोड बिल : जाति और पितृसत्ता’ विषय पर सेमिनार आयोजित कर रहा है। इसके आमंत्रण-पत्र में बताया गया है कि यह ‘बहुजन महिला साहित्यकारों ’ का महासम्मेलन है। कार्यक्रम में आमंत्रित वक्ताओं में जिन महिलाओं के नाम हैं, उन्हें ‘वरिष्ठ बहुजन साहित्यकार’ कहकर सम्बोधित किया गया है। ये वे महिला साहित्यकार हैं, जो अनुसूचित जाति के परिवारों में पैदा हुई हैं तथा अब तक उनका परिचय ‘दलित साहित्यकार’ के रूप में हुआ करता था।

बहुजन साहित्य का अर्थ है– अभिजन के विपरीत बहुजन का साहित्य और उनकी वैचारिकी। प्रगतिशील- मार्क्सवादी विचारधारा में जो ‘जन’ है, ‘बहुजन’ उसकी अगली कड़ी भी है। मार्क्सवाद के ‘जन’ का अर्थ भारत के सामाजिक-यथार्थ के संदर्भ में न सिर्फ अस्पष्ट और अनिश्‍चित बना रहता है, बल्कि वह हमारे सांस्कृतिक मंतव्यों को प्रकट नहीं करता। जब हम ‘जन’ में ‘बहु’ प्रत्यय जोड़ते हैं तो इससे बना शब्द हिंदुस्तानी परिप्रेक्ष्य में वैचारिक और दार्शनिक रूप से भी जीवंत हो उठता है।

यह हमें भारत की श्रमणवादी धारा के दार्शनिकों, कौत्स, बुद्ध, मक्खली गोशाल, अजित केशकंबली आदि की वैज्ञानिक चेतना से जोड़ देता है और उनके दर्शन को समकालीन आवश्यकता के अनुरूप विकसित  करने के लिए प्रेरित करता है। “बहुजन” में बहुलता का भाव है। यह दलित साहित्य का तो विस्तार है ही, नए भाषा संकेतों का सहारा लेकर कहें तो यह जन + (जन प्लस) भी है। यह अवधारणा आज की भी जरुरत है, जिसे समझे और अपनाए जाने की जरूरत है।

(लेखक- प्रमोद रंजन, दिलचस्पी सबाल्टर्न अध्ययन और तकनीक के समाजशास्त्र में है। ‘बहुजन साहित्य की सैद्धांतिकी’ उनकी हाल में प्रकाशित पुस्तक है। संप्रति, असम विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफ़ेसर है।)

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