जोधपुर/उदयपुर — राजस्थान हाई कोर्ट ने एक दलित महिला के खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करते हुए महत्वपूर्ण टिप्पणी की कि यह मामला जातिगत भेदभाव का हो सकता है। कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता की अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति पृष्ठभूमि को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, खासकर इस तथ्य को देखते हुए कि ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे समुदायों के लिए धार्मिक स्थलों में प्रवेश पर रोक लगाई जाती रही है।
कोर्ट ने कहा कि याचिकाकर्ता को मंदिर में प्रवेश से वंचित करना और इसके बाद आपराधिक शिकायत दर्ज करना संभवतः जातिगत भेदभाव का मामला हो सकता है, जो समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और सामाजिक बहिष्कार को बढ़ावा देता है।
राजस्थान हाईकोर्ट ने उदयपुर के महाकालेश्वर महादेव मंदिर में कथित रूप से जबरन प्रवेश के आरोप में सपना निमावत नामक महिला पर दर्ज एफआईआर (FIR) के मामले में सुनवाई करते हुए यह टिप्पणी की। एफआईआर रद्द करने के लिए याचिका सपना निमावत की ओर से लगाई गई थी, एफआईआर 14 मई 2024 को अम्बामाता पुलिस स्टेशन, उदयपुर में धारा 448 (अवैध प्रवेश), 427 (हानि पहुंचाना), और 143 (गैरकानूनी सभा) के तहत दर्ज की गई थी। कोर्ट ने दोनों पक्षों को सुननेऔर साक्ष्यों को देखने के बाद याचिकाकर्ता महिला के पक्ष में फैसला सुनाया.
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में जातिगत भेदभाव के संबंध में महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए कहा, "याचिकाकर्ता की अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति की पृष्ठभूमि को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता, खासकर उस तथ्य के मद्देनज़र कि ऐतिहासिक रूप से हाशिए पर रहे समुदायों के लिए धार्मिक संस्थानों तक पहुंच को प्रतिबंधित किया गया है। याचिकाकर्ता को मंदिर में प्रवेश से वंचित करना और उसके बाद आपराधिक शिकायत दर्ज करना जातिगत भेदभाव का एक उदाहरण हो सकता है। ट्रस्टी द्वारा किया गया यह भेदभावपूर्ण आचरण न केवल समानता के सिद्धांतों का उल्लंघन करता है, बल्कि सामाजिक बहिष्कार को भी बढ़ावा देता है, जो सभी नागरिकों की गरिमा सुनिश्चित करने के संवैधानिक दायित्व के खिलाफ है, खासकर उन लोगों के लिए जो उत्पीड़ित समुदायों से आते हैं।"
मामले की सुनवाई न्यायधीशअरुण मोंगा ने की। एफआईआर में आरोप लगाया गया था कि आरोपी सपना निमावत और अन्य लोग मंदिर में अव्यवस्था फैलाने की कोशिश कर रहे थे। यह शिकायत पुलिस अधीक्षक, उदयपुर को मिली थी, जिसके बाद एफआईआर दर्ज की गई थी। एफआईआर में कहा गया कि मंदिर के दरवाजे का ताला तोड़कर वहां प्रवेश करने की कोशिश की गई थी।
हालांकि, याचिकाकर्ता के वकील ने तर्क दिया कि यह एफआईआर कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग है और इसे गलत इरादे से दर्ज किया गया। अदालत ने भी पाया कि वीडियो साक्ष्य से जबरन प्रवेश या संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की बात साबित नहीं होती।
आपराधिक इरादा नहीं: न्यायधीश मोंगा ने कहा कि भारतीय दंड संहिता की धारा 448, 427, और 143 को लागू करने के लिए अपराधी इरादा (mens rea) आवश्यक है। अदालत ने पाया कि याचिकाकर्ता का इरादा किसी को नुकसान पहुंचाने का नहीं था, बल्कि वह केवल मंदिर में प्रवेश करना चाहती थी, जो कि कानूनी रूप से सही था।
मंदिरों में सार्वजनिक पहुंच: अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि मंदिर एक सार्वजनिक स्थान है और वहां सभी नागरिकों को पूजा करने का अधिकार है, चाहे उनका जातीय या सामाजिक दर्जा कुछ भी हो। मंदिर के ट्रस्टी मंदिर में अवरोधक लगाकर जनता की पहुंच रोक रहे थे, जो संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है।
जातिगत भेदभाव: हाई कोर्ट ने याचिकाकर्ता के अनुसूचित जाति (SC) होने का संदर्भ देते हुए कहा कि दलित और पिछड़ी जातियों को ऐतिहासिक रूप से धार्मिक संस्थानों तक पहुंचने से वंचित किया गया है। इस मामले में, मंदिर में प्रवेश न देने और फिर आपराधिक शिकायत दर्ज करने को जातिगत भेदभाव का एक उदाहरण माना जा सकता है।
एफआईआर की सत्यता पर सवाल: अदालत ने यह भी सवाल उठाया कि एफआईआर मंदिर के ट्रस्टी द्वारा दर्ज नहीं की गई, बल्कि एक पुलिस उप-निरीक्षक द्वारा दर्ज की गई, जो घटना का चश्मदीद गवाह होने का दावा करता है। इससे एफआईआर की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े होते हैं।
कोई सबूत नहीं: न्यायधीश मोंगा ने यह भी पाया कि जो तस्वीरें और वीडियो साक्ष्य प्रस्तुत किए गए थे, उनमें बलपूर्वक प्रवेश करने या संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के कोई प्रमाण नहीं थे।
उच्च न्यायालय ने सभी सबूतों की जांच करने के बाद याचिकाकर्ता सपना निमावत के पक्ष में फैसला सुनाया और एफआईआर को रद्द कर दिया। जस्टिस मोंगा ने स्पष्ट रूप से कहा कि मंदिर के ट्रस्टी जनता की पूजा में बाधा नहीं डाल सकते और सभी को समान अधिकार मिलना चाहिए। अदालत ने यह भी कहा कि विशेष रूप से दलित समुदाय के लोगों के साथ इस तरह का भेदभाव अस्वीकार्य है।
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