लेख- Rishabh
अब तो हम सवर्णों को भी EWS कोटे से दस प्रतिशत आरक्षण मिल गया है, इसके बावजूद हम आरक्षण से क्यों चिढ़ते हैं?
इस चिढ़ के पीछे है खुद की प्रतिभा को लेकर असुरक्षा और दूसरों की प्रतिभा से डर है?
भारतीय सवर्ण समाज के पास अपने जीवन के लिए क्या है? परंपरागत रूप से शिक्षा और नौकरी के लिए अवसर, आर्थिक और सामाजिक रूप से मजबूत करने वाले विवाह और धन सम्पत्ति अर्जित करने के अवसर और मृत्यु के बाद शिलालेख लिखवाने के अवसर, और आधुनिक जमाने में लगभग हर आधुनिक चीज को पाने के अवसर. अगर यह सौ प्रतिशत सबके लिए नहीं है तो फिर भी ज्यादातर लोगों के लिए किसी ना किसी रूप में यह उपलब्ध है.
लेकिन यह अवसर अन्य जातियों के पास नहीं हैं, विशेषकर दलित जातियों के पास. कई दलित जातियों के पास तो बिल्कुल ही नहीं है. शिक्षा, नौकरी, आर्थिक और सामाजिक से रूप से मजबूत करने वाला विवाह, शिलालेख – किसी चीज का नहीं. आधुनिक सुख सुविधाएं- ज्यादातर के पास तो बिल्कुल ही नहीं. सोचिए कि पूरा जीवन ही इन सुखों के बिना कैसे गुजर जाएगा!
और बतौर सवर्ण हम चाहते नहीं कि यह अवसर दलितों को मिले. क्योंकि उनको अवसर मिलने से यह साफ हो जाता है कि दुनिया की किसी भी अचीवमेंट के लिए जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण चीज है, वो अवसर ही है. बाकी चीजें बाद में ही आती हैं. अगर आपको मौका नहीं मिलता है तो आपकी प्रतिभा का कोई मोल नहीं है. और अगर मौका मिलता है तो आप किसी से कम नहीं. फिर अगर ऐसा है तो जाति की श्रेष्ठता का सिस्टम भरभरा कर गिर जाएगा. फिर सवर्ण, कुवर्ण, विवर्ण सब बराबर हैं. इसीलिए बराबरी का प्लेटफॉर्म देने से हम कतराते हैं.
तो हम सवर्ण क्या चाहते हैं?
हम चाहते हैं कि पहले तो दलितों के लिए अवसर पैदा ही ना हों, और अगर अवसर पैदा भी हों तो कम हों. क्योंकि एक बड़ी आबादी तब बहुत से कम अवसरों में लिपटती घिसटती रहेगी और हमेशा खुद से ही खुद को लेबल लगाती रहेगी कि वो किसी योग्य नहीं हैं और यह सारे बड़े काम सिर्फ बड़े लोगों यानी बड़ी जातियों की किस्मत में ही लिखा है.
इसीलिए हम कुछ निंजा टेक्निक अपनाते हैं. हम तीन 'ह' पर काम करते हैं- हंसना, हड़काना और हड़पना. अगर कोई दलित कुछ अच्छा करे तो हम इतना हंस देते हैं कि वो सशंकित हो जाता है. अगर वो कमजोर दिल का हुआ तो उसे हड़का देते हैं. और अगर कमजोर परिवार का हुआ तो उसकी चीजें हड़प लेते हैं. ताकि उसके पास अवसर ना हों और अगर मिले भी तो वो इस्तेमाल ना करे.
उदाहरण के तौर पर, अगर कोई दलित बच्चा पढ़ लिखकर आगे निकला तो उसे मूंछ रखने के लिए डराते हैं, उसे इंटरव्यू देने से रोकते हैं, उसे जलील करेंगे. अगर बिना पढ़े लिखे भी वो टिकटॉक बना रहा है, या सोशल मीडिया के माध्यम से सफलताएं अर्जित कर रहा है तो वो भी हमें चिढ़ाने वाली बात लगती है. हम चाहते हैं कि वो कोई भी ऐसा काम ना करें जिससे उनके जीवन में गर्व की भावना आए.
हम चाहते हैं कि वो हमेशा ऐसे काम करें जिससे वो हमारे प्रति अनुगृहीत रहें. जैसे कि वो तृतीय या चतुर्थ श्रेणी में नौकरी करें और हमेशा हाथ जोड़कर खड़े रहें. ताकि हमारे पास मोरल राइट रहे कि हमने उनके लिए एक माहौल तैयार कराया है. और इसीलिए हम आरक्षण से चिढ़ते हैं. लेकिन हम तृतीय और चतुर्थ श्रेणी के आरक्षण से नहीं चिढ़ते. यहां एक और बात भी है.
परीक्षाओं और इंटरव्यू का पैटर्न दलित समाज के अनुभवों से बिल्कुल अलग
आरक्षण ने दलित समाज को एक प्लेटफॉर्म दिया जहां से उनके लिए अवसर क्रिएट होते हैं. क्योंकि परीक्षाओं और इंटरव्यू का जो पैटर्न है, वो पैटर्न सवर्ण समाज के नजरिए से बना है. उदाहरण के तौर पर इंटरव्यू में हॉबी और इंटरेस्ट का सेक्शन. जिस व्यक्ति ने खेत में गाय चराकर, नदी से मछली मारकर या अन्य मजदूरी कर के जीवन यापन किया हो और शिक्षा हासिल की हो, वो हॉबी और इंटरेस्ट को कैसे बताएगा? इंटरव्यू लेने वाला व्यक्ति यह क्यों नहीं पूछता कि जब गाय दूध देने से मना कर देती है तो आप लोग उसे कैसे मनाते हैं? क्या वह टेक्नीक आपके ऑफिस में भी काम आ सकती है? अगर कोई व्यक्ति किसी जानवर को मनाकर अपना काम करा सकता है तो निस्संदेह वह आईआईएम से बढ़िया एचआर मैनेजमेंट की पढ़ाई भी कर सकता है, बशर्ते यह उसकी भाषा में हो, उसके अनुभवों से मेल खाता हो.
चूंकि एक दलित व्यक्ति का जीवन सवर्ण जीवन और अनुभवों से बिल्कुल अलग है, इसलिए इंटरव्यू और परीक्षाओं में वह पूरी तरह फिट नहीं बैठता. उसे आरक्षण के सहारे की जरूरत है. अगर लिखित परीक्षाओं की ही बात करें तो मैथ्स, रीजनिंग या इंग्लिश जैसे विषय कमजोर वर्गों के जीवन में देरी से प्रवेश करते हैं तो उनके लिए मुश्किल होता है बारहवीं या स्नातक के बाद उसे पास करना. हालांकि बाद के वर्षों में नौकरी करते हुए ये सारी चीजें एक जैसी ही हो जाती हैं. क्योंकि नौकरी में सारे व्यक्ति एक ही काम करते हैं.
कहने का मतलब यह है कि परीक्षाओं और इंटरव्यू का पैटर्न हमारे जीवन अनुभवों पर आधारित है. और जब हमारा टेस्ट हमारे अनुभवों से अलग होगा तो हम कैसे पास करेंगे? दलित समाज के साथ ही दिक्कत आती है, क्योंकि इन परीक्षाओं के पैटर्न ही अलग हैं. ऐसी कोई परीक्षा नहीं है जो दलित हिस्ट्री, या उनके प्रतीकों या फिर उनके कार्यों को रिकग्नाइज करती हो. या वैसा कोई इंटरव्यू नहीं है जो उनके जीवन संघर्षों को सम्मानित करता हो और उन अनुभवों को जीवन में शामिल कराने की बात करता हो. अगर कोई व्यक्ति दस साल की उम्र में चालीस साल के लोगों को इकट्ठा कर उनकी मदद से अपना छप्पर छवा लेता है तो यह अनुभव किसी मैनेजमेंट की पढ़ाई में कैसे किसी और अनुभव से कम है? एक शानदार अनुभव को आपने शर्मिंदगी का विषय बना दिया है. यह व्यक्ति अपनी बहादुरियों को कभी गिना ही नहीं सकता. उसे छुपा के रखना है. उसे अपना स्व बाहर ही नहीं लाना है. वह आपके ढांचे में फिट होने का प्रयास कर रहा है.
तो सारी परीक्षाएं हमारे हिसाब से ली जाती हैं और तो हमारे लिए इसे पास करना आसान होता है. अगर मजेदार छोटे वीडियो बनाने का एग्जाम हो तो निस्संदेह कमजोर वर्ग इसमें बाजी मार ले जाएगा. जैसा कि कई वीडियो प्लेटफॉर्म्स पर हुआ. इसलिए हम इस तरह के डेमोक्रेटिक प्लेटफॉर्म पनपने ही नहीं देंगे. उन्हें हिकारत से देखेंगे. जैसे हम टिकटॉक को क्रिंज कहते थे और इंस्टा रील्स को कूल कहते हैं. क्योंकि इंस्टा के महंगे सेटअप को दलित एक्सेस ही नहीं कर सकते.
हम अपनी किताबों में राजाओं और बादशाहों के बारे में पढ़ते हैं, उनकी बनवाई चीजों के बारे में पढ़ते हैं लेकिन कभी यह नहीं पढ़ते कि उस वक्त दलित समाज की क्या स्थिति थी. या फिर भूगोल में ही हम सब कुछ पढ़ते हैं लेकिन पूरी किताब में मछुआरे, आदिवासी या अन्य कमजोर वर्गों के बारे में बात नहीं होती. हमारी पूरी पढ़ाई इन कमजोर वर्गों के जीवन को टच ही नहीं करती. अगर आप बहुत बाद में समाजशास्त्र या कोई विशेष रिपोर्ट पढ़ें तभी आपको पता चलेगा कि कमजोर वर्गों के साथ क्या दिक्कतें हैं.
और इसलिए सवर्ण समाज को ना तो स्कूल में और ना ही घर में, कभी पता ही नहीं चलता कि दलित समाज के साथ अवसरों की कितनी दिक्कत है. यही वजह बनती है कि वह आरक्षण को कभी समझ ही नहीं पाते. वह इसे सीधा अपने अधिकारों का हनन समझते हैं. वह यह नहीं समझते कि वो जिस इकोसिस्टम का एक हिस्सा हैं, उसका एक बड़ा हिस्सा कितनी दिक्कत में जीवन बिता रहा है.
वह यह भी नहीं समझ पाते कि जब तक ये हिस्सा आगे नहीं बढ़ेगा, देश भी आगे नहीं बढ़ेगा. वह यह भी नहीं समझ पाता कि वो खुद उतना आगे नहीं बढ़ सकते जितना कि बढ़े सकते थे, क्योंकि उनके साथ के ढेर सारे कमजोर वर्ग के लोग आगे नहीं बढ़ पा रहे. वह यह नहीं समझते कि इसी वजह से वह खुद एक साधारण नौकरी करते हुए अपने मन में श्रेष्ठ बने हुए हैं जो कि अत्यंत हास्यास्पद है. इसी वजह से देश में ज्यादातर लोग साधारण नौकरियों में ही लगे हुए हैं और उसी को जीवन लक्ष्य बना लिया है. उसी के लिए मार काट मची हुई है. इनोवेशन का माहौल नहीं बन रहा.
आगे क्या उपाय है?
उपाय यह है कि सवर्ण समाज अवसरों की समानता को समझे और अपने समाज में बैठी असमानता को समझने के लिए उपाय करे. क्योंकि स्कूलों में यह शिक्षा मिल नहीं रही और घर में भी नहीं मिल रही. तो एक अज्ञानी की तरह जीवन भर किसी और के मूंछ रखने से नाराज होने, घोड़ी चढ़ने से नाराज होने की हरकतें नहीं करेंगे. चाहे खुद पांचवीं पास हों, लेकिन दलित के अफसर बनने से दुखी नहीं होंगे कि खुद का हक मारा गया. बल्कि यह देखेंगे कि हमें जीवन में क्या करना है. जाति के इल्यूजन से निकलकर सच्चाई को समझेंगे कि सबकी प्रगति में ही हमारी प्रगति है. वरना सिर्फ पचास हजार रुपये की नौकरी कर खुद को श्रेष्ठ समझते रहेंगे.
इसलिए सबसे जरूरी है:
1- सवर्ण जागरुकता संगठन या सवर्ण जागरुकता सप्ताह मनाना जिसमें सवर्ण समाज की मूर्खताओं पर बात हो और उन्हें समझाया जाए कि किस तरह सबके लिए अवसर पैदा करने से खुद के लिए भी अवसर पैदा होते हैं.
2- अपनी शिक्षाओं और स्कूल में दलित इतिहास और समाज से जुड़े पाठ्यक्रमों को शामिल कराना
3- दलित नायकों का सम्मान और अभिषेक कराना ताकि खुद के अंदर मूल्य पैदा हों
4- जातीय श्रेष्ठता की मूर्खता को समझना ताकि हम एक काबिल मनुष्य बन सकें और दूसरों की जरूरत को समझ सकें
5- झूठ नहीं बोलना कि मैंने दलित के साथ खाना खाया इसलिए मैं जाति नहीं मानता. सच बोलना कि अपने अंदर इतना सुधार किया है मैंने. मैं एक क्रूर व्यक्ति था जो किसी की कमजोरी का फायदा उठा रहा था और अब नहीं उठा रहा.
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