MP: पिछड़ा वर्ग अधिवक्ता संघ ने SC-ST के उप-वर्गीकरण के मामले में उठाए यह सवाल?

SC-ST के उप-वर्गीकरण की अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमत पिछड़ा वर्ग अधिवक्ता कल्याण संघ ने अपने पत्र में लिखा, क्या न्याया पालिका को कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार है ?
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भोपाल। SC-ST के उप-वर्गीकरण की अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर मध्य प्रदेश पिछड़ा वर्ग अधिवक्ता कल्याण संघ ने सवाल खड़े किए है। उन्होंने कोर्ट में जजों की नियुक्ति और कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठाए हैं।

मध्य प्रदेश पिछड़ा वर्ग अधिवक्ता कल्याण संघ ने एक खुला पत्र जारी करते हुए कहा, न्याया पालिका को क्या कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार है, असंवैधानिक प्रक्रिया से चुने गए सुप्रीम कोर्ट के उक्त न्यायाधीश क्या देश के 85% लोगो का भाग्य डिसाइड कर सकते है?

SC-ST के उप-वर्गीकरण की अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले से असहमत पिछड़ा वर्ग अधिवक्ता कल्याण संघ ने अपने पत्र में लिखा, क्या न्याया पालिका को कानून बनाने का संवैधानिक अधिकार है?

साथ ही संघ ने मणीपुर हिंसा एससी/एसटी एक्ट मामले में हुई हिंसा का जिम्मेदार भी कोर्ट फैसलों को बताया है। पत्र में लिखा है, पिछले 20 वर्षों में देश की सबसे बड़ी हिंसा के पीछे कोर्ट के फैसले है।

बाबा साहिब ने हजारो जातियो मे बिखंडित अछूतो को जोडकर अनुसूचित जाति नाम का वर्ग बनाया तथा एकजुट करके उन्हे अधिकार दिलाए। क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला उन्हे बाटने का काम नही कर रहा है। सुप्रीम कोर्ट के फैसले का देश के तमाम सामाजिक संगठन आलोचना कर रहे है, तथा आशंका है की इस फैसले के कारण देश का संविधान समाप्ती की ओर कदम बड़ा चुका है।

संघ ने कहा, जो काम संसद को करना चाहिए था वो काम न्यायपालिका कर रही है जिसमे पिछड़ावर्ग के हितो के विरूद्ध फैसले पारित किए जा रहे है जिनकी न्याया पालिका में सिर्फ 3% भागीदारी है । सुप्रीम कोर्ट समाज को वर्गीकृत करके क्या साबित करना चाहती है? क्या सबसे पहले सुप्रीम कोर्ट मे वर्गीकरण नही होना चाहिए?

जानिए क्या है सुप्रीम कोर्ट का फैसला?

SC/ST श्रेणियों के भीतर उप-वर्गीकरण (कोटे के अंदर कोटा) की वैधता पर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को फैसला सुनाया है। कोर्ट ने राज्यों को अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों में उप-वर्गीकरण की अनुमति दे दी है। सुप्रीम कोर्ट की सात जजों की पीठ ने यह फैसला सुनाया है। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड की अध्यक्षता वाली 7 जजों की संविधान पीठ ने तय किया कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति श्रेणियों के लिए उप-वर्गीकरण किया जा सकता है।

सात जजों की संविधान पीठ में CJI डी वाई चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस बी आर गवई, विक्रम नाथ, जस्टिस बेला एम त्रिवेदी, जस्टिस पंकज मिथल, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा शामिल हैं। CJI ने कहा कि 6 राय एकमत हैं, जबकि जस्टिस बेला एम त्रिवेदी ने असहमति जताई है।

सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने अपने फैसले में साक्ष्यों का हवाला दिया उन्होंने कहा कि अनुसूचित जातियां एक सजातीय वर्ग नहीं हैं, उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निहित समानता के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं करता है। साथ ही उप-वर्गीकरण संविधान के अनुच्छेद 341(2) का उल्लंघन नहीं करता है, अनुच्छेद 15 और 16 में ऐसा कुछ भी नहीं है जो राज्य को किसी जाति को उप-वर्गीकृत करने से रोकता हो।

कोर्ट ने कहा कि अनुसूचित जातियां एक समरूप समूह नहीं हैं और सरकार पीड़ित लोगों को 15% आरक्षण में अधिक महत्व देने के लिए उन्हें उप-वर्गीकृत कर सकती है। अनुसूचित जाति के बीच अधिक भेदभाव है, SC ने चिन्नैया मामले में 2004 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें अनुसूचित जाति के उप-वर्गीकरण के खिलाफ फैसला सुनाया गया था।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि एससी के बीच जातियों का उप-वर्गीकरण उनके भेदभाव की डिग्री के आधार पर किया जाना चाहिए। राज्यों द्वारा सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश में उनके प्रतिनिधित्व के अनुभवजन्य डेटा के संग्रह के माध्यम से किया जा सकता है। यह सरकारों की इच्छा पर आधारित नहीं हो सकता।

दरअसल, पंजाब सरकार ने अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों में से 50 फीसद ‘वाल्मिकी’ एवं ‘मजहबी सिख’ को देने का प्रावधान किया था। 2004 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को आधार बनाते हुए पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट ने इस पर रोक लगा दी थी।

इस फैसले के खिलाफ पंजाब सरकार व अन्य ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की थी। 2020 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने कहा था कि वंचित तक लाभ पहुंचाने के लिए यह जरूरी है। मामला दो पीठों के अलग-अलग फैसलों के बाद 7 जजों की पीठ को भेजा गया था।

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