पैसा तो आ रहा है, पर क्या वो दलितों के प्रति सोच और संरचना को बदल पा रहा है?

बड़हुलिया गांव का एक दृश्य
बड़हुलिया गांव का एक दृश्य
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“ये चमार है और वो भी मेहरारू (औरत), इससे क्या होगा! मेहरारू तो कमजोर होती है मर्द से. इसकी जगह किसी और को काम दे दो. ये चमार है तो ना हमारे घर में आ सकती है और ना हमारे साथ खा सकती है. वे सब मेरे साथ छुआ-छूत रखते हैं केवल खेत में फसल काटने का काम देते हैं…”

ये शब्द है शीला देवी के जिसकी उम्र 28 से 30 साल की होगी. शीला देवी के दो बच्चे हैं. एक तीन साल और दूसरा पांच साल का. उनके पति का देहांत हो गया है. वे अपने बच्चों के साथ बड़हुलिया गांव में रहती हैं जो सिवान ज़िले के नरेंद्रपुर पंचायत एवं जीरादेई प्रखंड में आता है. नरेंद्रपुर पंचायत में कुल तेरह वार्ड हैं और इस गांव में पांच वार्ड. शीला इस गांव की वार्ड पांच की सदस्य भी हैं.

शीला देवी अपने घर के द्वार पर.
शीला देवी अपने घर के द्वार पर.

उन्होंने बताया कि थोड़ा बहुत घर और जमीन भी है. नौकरी नहीं है, रोज़ खाने कमाने के बारे में सोचना पड़ता है. वार्ड सदस्य होने के कारण सरकार की तरफ़ से हर महीने 500 रुपये ज़रूर मिलते हैं लेकिन वो भी साल-छह महीने बाद में एक साथ मिलते हैं. कई बार गांव के सुधार के लिए बड़ी फ़ंडिंग भी होती है लेकिन उसका पता ही नहीं चलता. ऊपर के लोग आपस में ही बांट लेते हैं. जब आम सभा होती है तब इसका ज़िक्र ज़रूर होता है. आस पास के माहौल के बारे में शीला देवी बताती है कि यहां के लोग भी जातीय भेदभाव करते हैं. अपने साथ बैठी महिला से बातों-बातों में वे बताती हैं, “यहां के मंदिर में हमें वो अंदर भी नहीं जाने देता है. बाहर से पूजा करवाता है. ऐसा वो हमारी पूरी जाति के साथ करता है, जबकि ऊंची जात के लोग अंदर जाते हैं.”

गांव में थोड़ा आगे बढ़ने पर एक चौड़ी गली है. गांव के ही एक व्यक्ति ने बताया कि यहां से सवर्णों का मुहल्ला शुरू हो जाता है. उससे थोड़ा और आगे बढ़ने पर दलितों के घर थे, जहां एक हाथ पर खेत ही खेत तो दूसरे हाथ पर कुछ घर बने हुए हैं. वैसे तो इस गांव में मिलीजुली आबादी है लेकिन देखने में लगा जैसे वे लोग एक-दूसरे ज़्यादा ताल्लुक़ नहीं रखते. ईंटों का अधकच्चा सा बना घर जिसके द्वार पर दो महिलाएं खड़ी थीं. वे मुसहर जाति से थीं. उनमें से एक लड़की जो अभी बारहवीं की पढ़ाई कर रही है. वो मानती है कि उनके लिए जाति की वजह से कोई मुश्किल नहीं हुई. लेकिन वो ये भी बताती हैं कि यहां शादियां केवल अपनी जाति में ही होती है. जिसका दोषी वो समाज को देती हैं कि यहां ऐसी संस्कृति है कि सभी अपनी जाति में शादी करते हैं.

साथ में ही एक डोम परिवार रहता है. वहां एक महिला बांस छिलने का काम कर रही थी और एक बुजुर्ग चारपाई पर बैठे थे. महिला की उम्र 60 से 65 साल की रही होगी. उन्होंने बताया कि उन्हें याद भी नहीं कि वे कब से यह काम, इसी तरह करती चली आ रही हैं. 

डोम जाति बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के बड़े हिस्से में फैली हुई है. ये पारंपरिक रूप से बांस को छीलकर उससे टोकरी, हाथ से चलाने वाला पंखा और तमाम रोजमर्रा के इस्तेमाल की चीज़ें बनाते हैं. इनके बनाये हुए ये समान का इस्तेमाल तमाम धार्मिक अनुष्ठानों में होता है लेकिन इस्तेमाल करने से पहले उसे गंगाजल या पानी से शुद्ध कर लिया जाता है. ऐसा कहा जाता है.

पनबटी बांस छील रही हैं
पनबटी बांस छील रही हैं

बांस छील रही महिला का नाम पनबटी है. वे बताती हैं कि हमारे यहां पर तो यही काम होता है. अपने घर यानि माता-पिता के घर भी यही होता था और जब ससुराल आई तो यहां भी यही हो रहा है. पनबटी के पति दो भाई हैं और दोनों से चार बेटे हैं. उन सबके बच्चे मिलाकर पनबटी के परिवार में 26 लोग रहते हैं.

शिक्षा पर बात करने पर उन्होंने बताया कि हम तो पढ़े-लिखे नहीं है लेकिन हमारी पोती सोनाली पढ़ रही है. वो कुछ ही दूरी पर बैठी हमारी बातें सुन रही थी. सोनाली के अनुसार उनके स्कूल में सब एक साथ रहते हैं. एक साथ मिल जुलकर खाना भी खाते हैं. 

सत्रह साल की सोनाली बारहवीं में पढ़ रही है. लॉकडाउन से पहले वो रेगुलर स्कूल में पढ़ रही थी. लेकिन उसके बाद से उन्हें डिस्टेंस से पढ़ाई करनी पड़ रही है. सोनाली बताती है कि कोरोना ने हमारी पढ़ाई का भी बहुत नुक़सान किया है. इस दौरान कुछ दोस्तों का भी साथ छूट गया. उनसे मिलना नहीं हो पाता.

पनबटी की बहु और सोनम की मां सुअर को तकारते हुए.
पनबटी की बहु और सोनम की मां सुअर को तकारते हुए.

वे बताती हैं, “मेरे दोस्त मेरे घर नहीं आतीं क्योंकि हम सुअर पालते हैं. उन सब को वो पसंद नहीं.”

सोनाली का कहना था कि यहां आस-पड़ोस में भी लोग दूर से ही बात करते हैं लेकिन पास आना शायद इन्हीं सुअरों की वजह से मंजूर नहीं. भूरी आंखें, साफ रंग, पतली सी लड़की, उसकी आंखों में कई सपने थे. 


यह सिवान की एक तस्वीर है. इसका दूसरा पक्ष यह है कि सिवान आर्थिक रूप से सबसे संपन्न ज़िलों में से एक हैं. इसका कारण ये है कि यहां के लोगों ने रोज़गार के लिए दूसरे देशों में खासकर खाड़ी के देशों का रुख किया. इसकी वजह से इस इलाके में बिहार के अन्य जिलों के मुकाबले समृद्धि आई है. 2017 में छपी टेलीग्राफ की एक रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय विदेश मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, बिहार से प्रवासियों की संख्या 2006 में 36,493 से बढ़कर 2012 में 84,000 हो गई. अब यह बढ़कर लगभग 1.5 लाख हो गई है.

पनबटी की पोती सोनाली
पनबटी की पोती सोनाली

2018 में, सिवान से कुल 47,773 लोगों ने पासपोर्ट के लिए आवेदन किया, इसके बाद गोपालगंज में 38,182 लोगों ने आवेदन किया. बिहार में पासपोर्ट के लिए आवेदन करने वालों की तीसरी सबसे बड़ी संख्या पटना से है. क्षेत्रीय पासपोर्ट अधिकारी, पटना, पीएम सहाय ने कहा, “2018 में पासपोर्ट के लिए सबसे कम आवेदन (854) शिवहर से आए थे.”

2019 में आई हिंदुस्तान टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, सिवान पर बिहार सरकार की आधिकारिक वेबसाइट कहती है- “सूक्ष्म उद्यमों और कारीगरों पर आधारित उद्योगों के वर्चस्व वाले छोटे उद्योग बिहार में औद्योगिक क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में, औद्योगिक परिदृश्य में धीरे-धीरे गिरावट देखी जा रही है.”

वेबसाइट आगे कहती है कि "वर्तमान में सिवान में चार औद्योगिक इकाइयां चल रही हैं, जिनमें से दो सीमेंट इकाइयां है.” इसमें कहा गया है कि जिले में डेयरी उद्योग की क्षमता है और एक प्रसंस्करण इकाई स्थापित करने की योजना है. साथ ही निर्माण खंड को बढ़ावा मिल रहा है क्योंकि विदेश गए लोग सिवान लौट रहे हैं और घरों के निर्माण में निवेश कर रहे हैं.

सिवान में रहने वाले अरब देशों के साथ साथ कई देशों में काम-धंधे के लिए गए. अच्छा मेहनताना मिलने के कारण ना केवल उनकी पारिवारिक स्थिति में सुधार आया बल्कि पूरा जिला ही संपन्न ज़िलों में से एक माना जाने लगा. हालांकि इन आंकड़ों से ये साबित नहीं हो पाया कि किस वर्ग के लोग सबसे अधिक विदेश गए.

लेकिन क्या पैसा और संपन्नता आने से सामाजिक और जातीय अंतर कम होता है? इसके लिए सिवान के जीरादेई के दो गावों मियां का भटकन और बड़हुलिया गांव में वहां के दलितों से बात की. इनमें से अधिकतर का मानना था कि नौकरी पैसा तो आया लेकिन जाति का दंश आज भी साथ है. जबकि उनमें से कुछ ने इसका खंडन भी किया. 

शुरूआत में शीला देवी, पनबटी आदि से जो बात हुई थी, वे सब भी इसी बड़हुलिया गांव के निवासी हैं.

प्रदीप दुबई में नौकरी करते थे.
प्रदीप दुबई में नौकरी करते थे.

यहीं के एक और परिवार से हमारी बात हुई जिनके दो बेटे थे. इनमें से एक बेटा प्रदीप साल 2018 में नौकरी के सिलसिले में दुबई गया था. वहां उन्हें टेक्निशियन की नौकरी मिली, उन्होंने वहां कुछ साल काम किया और 2021 में वे वापस अपने घर आ गए. अब वे दिल्ली आ गए हैं और वहां हीरो के शोरूम में काम करते हैं.

प्रदीप बताते हैं, “वहां पैसा तो अच्छा मिलता है लेकिन कई बार समय पर नहीं मिलता. इसीलिए वहां से आना पड़ा.” प्रदीप चमार जाति से हैं, लेकिन वे अपने आप को हरिजन कहलवाना पसंद करते हैं. वे कहते हैं कि वहां एक चीज ये भी अच्छी थी कि वहां किसी को किसी की जाति से मतलब नहीं था.

वे कहते हैं, “गांव में बहुत जातिवाद है. जैसे हमारे ही गांव के कई सवर्ण लोग हमारे घर की चौखट तक नहीं आते, हमारे यहां खाना नहीं खाते, हमारे शादी-विवाह में नहीं आते. लेकिन जब दुबई में था तो वहां सबको सिर्फ इतना पता होता था कि ये हिंदू हैं और ये मुसलमान. हां, इक्का-दुक्का हिंदू ज़रूर हैं जो वहां भी जाति पर ध्यान देते हैं.”

प्रदीप कहते हैं हमारे पास पैसा भी है, हम पढ़-लिखे भी हैं लेकिन जाति हमसे पहले आ जाती है.

मियां के भटकन गांव का उप-स्वास्थ्य केंद्र.
मियां के भटकन गांव का उप-स्वास्थ्य केंद्र.

बड़हुलिया से लगभग तीन किलोमीटर दूर मियां के भटकन गांव है. ये गांव जीरादेई प्रखंड में आता है, जिसकी पंचायत का नाम मियां के भटकन ही है. सुबह के लगभग 11 बजे, सूरज एकदम सिर पर और धूप की तपन भी तेज़ थी. लेकिन गांव में सन्नाटा था. थोड़ा आगे चलने पर एक अर्ध-नग्न व्यक्ति मिले, जो हाथ में कुछ लिए एक फूस के घर की तरफ़ बढ़ रहे थे. गांव के लोगों से बात करनी है, इतना सुनते ही वो एक पक्के कमरे जैसे बने मकान की तरफ़ इशारा करने लगे. वहां पहुंचकर पता चला कि वो पंचायती घर है, जहां की एक दीवार पर उप-स्वास्थ्य केंद्र की जानकारियां व दूसरी दीवार पर गांव का पता लिखा था. वहां कुछ लोगों को इकट्ठा किया गया ताकि विस्तार से बात हो सके.  

संदीप कुमार राम, 32 साल के हैं. वे ओमान में ड्राइवर की नौकरी करते हैं. कुछ दिनों के लिए वे अपने घर छुट्टी पर आए हैं. अगले ही महीने वापस जाना है. ओमान में वे पिछले दस साल से  हैं. उनके मुताबिक वहां के लोगों को काम से मतलब है.

संदीप कुमार राम ओमान में पिछले दस साल से काम कर रहे हैं.
संदीप कुमार राम ओमान में पिछले दस साल से काम कर रहे हैं.

संदीप कहते हैं, “वहां अलग-अलग देश के लोग हैं उन्हें काम से मतलब होता है. वहां उन्हें इंसान से प्रेम है. हालांकि कुछ लोग जाति भी पूछ लेते हैं तो मैं उन्हें खुलकर बोलता हूं, चमार हूं. लेकिन इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता.''

वो आगे कहते हैं, “एक बार ऐसा हुआ कि काम को लेकर कुछ बात हो रही थी. तो एक व्यक्ति ने मेरे दोस्त को बोला कि इन लोगों का दिमाग़ घुटनों में होता, इन्हें चाहे कितना भी समझाओ ये समझेंगे नहीं. मेरा दोस्त यादव था, इसलिए ऐसा बोला था. वहां के लोगों में जातिवाद नहीं है. लेकिन जो यहां के लोग जा रहे हैं वो जातिवाद करते हैं. पैसा होने के बाद भी, अच्छा कमाने के बाद भी इस बात को नकारना मुश्किल है कि जातिवाद नहीं है.”

अब आपके पास अच्छा घर है, अच्छी नौकरी है और अच्छा पैसा भी क्या इससे आपके गांव में या देश में अपके प्रति लोगों के नज़रिए में कोई बदलाव आया है? इस सवाल के जवाब में संदीप फट से बोल पड़े, “नहीं… नहीं ऐसा कुछ नहीं है. आप कितना भी संपन्न हो जाइए कितने भी बड़े हो जाइए. यहां आपको जाति को लेकर दबाया ही जायेगा. ऊंची जाति के लोगों को मालूम हो ही जायेगा कि आप छोटी जाति से हैं. तो वो आपको दबाने की कोशिश करेंगे कि कैसे इन्हें दबाकर छोटा महसूस कराया जाए. कैसे भी वे आपको आगे बढ़ने नहीं देंगे.”

संदीप दो भाई हैं. संदीप के दूसरे भाई एक स्कूल में हेडमास्टर हैं. संदीप अपने आप को चमार कहलवाना पसंद करते हैं. उन्हें हरिजन शब्द से आपत्ति है. 

वे कहते हैं, “हम चमार कहलाना ही पसंद करते है. हरिजन तो हमारे लिए गाली हो गई ना! हमें अच्छा नही लगता. क्योंकि हरिजन मतलब भगवान का पुत्र या उसका बंदा जैसा कुछ होता है. हम तो चमार हैं, वही सही है. हमारे साथ एक जातीय भेदभाव है और वो हिंदू ही करता है. हिंदू ही हमें हिंदू नहीं समझता.”

संदीप के साथ उनके पिता और कुछ अन्य लोग भी वहां मौजूद थे. संदीप के पिता कहते हैं कि जब पूर्व मुख्यमंत्री (बिहार) जीतनराम मांझी और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को जाति के कारण नहीं छोड़ा जाता तो हम क्या हैं! आप कितनी भी ऊंची पोस्ट पर पहुंचे आपसे पहले आपकी जाति वहां पहुंच जायेगी.

उप-स्वास्थ्य केंद्र पर आये गांव के कुछ लोग.
उप-स्वास्थ्य केंद्र पर आये गांव के कुछ लोग.

नंदलाल वहीं खड़े सारी बातें ध्यान से सुन रहे थे. उनकी उम्र क़रीब 55 साल की है और वे अपने साथ हुए अनुभव को भी बताते हैं कि कैसे उन्हें जाति की वजह से स्कूल में भी अलग रखा जाता था. आज सालों बाद भी कई जगह ऐसा ही देखने को मिलता है. साथ ही वे ये भी बताते हैं कि आज उनके पोते-पोतियों के साथ ऐसा नहीं हो रहा है.

इस तरह के क़िस्से और अनुभव यहां बहुत से लोगों के थे. संदीप के भाई प्रेमचंद राम हेडमास्टर हैं, जिनकी उम्र 55 साल है. उनसे बात करने के लिए स्कूल की तरफ़ बढ़ना हुआ. स्कूल का रास्ता उनके ही बेटे ने दिखाया.

स्कूल में कुछ कक्षाओं का खेल का पीरियड लगा हुआ था. इसलिए वहां कुछ बच्चे चम्मच में शायद नींबू रखकर, चम्मच मुंह से पकड़कर आगे बढ़ रहे थे. बाक़ी बच्चे नाम लेकर उनका उत्साह बढ़ा रहे थे. किसी का नींबू गिरा तो कोई रेस में पीछे रहा. कुछ बच्चे कक्षाओं से बाहर निकलकर शोरगुल, खेलकूद में व्यस्त थे.

स्कूल में बच्चे रेस प्रतियोगिता करते हुए.
स्कूल में बच्चे रेस प्रतियोगिता करते हुए.

स्कूल के गेट के सामने ही प्रधानाध्यापक का कमरा था जिसमें उनके साथ ही कई और अध्यापक बैठ थे. उनके कमरे की दीवार पर कई जरूरी अन्य चीजों के साथ बाबा साहेब की तस्वीर भी दिखाई दी. वहां पहुंचते ही हेडमास्टर हमें पहचान गए. उन्होंने एक शांत कमरे में बैठकर बात करने का प्रस्ताव दिया. लेकिन वहां शांति ढूंढना जैसे अंधेरे में सुई को ढूंढ़ना था. जिस कमरे में हम बैठे, वहां दो दरवाज़े थे और बच्चे हमें देखने के लिए उमड़ पड़े. बच्चे शायद ये जानना चाह रहे थे कि उनके सर से कौन मिलने आया है? खैर, बच्चों को कई बार चुप करवाने की कई कोशिशें की गईं. लेकिन बच्चे तो बच्चे हैं वे कहा किसी की सुनते हैं.

उस शोरगुल में ही बातचीत शुरू हुई. उन्होंने बताया कि मैं पूरी कोशिश करता हूं कि वो चीज यहां ना हो, जो कई बार देखने और सुनने को मिलती है. जो सदियों से जाति के आधार पर समाज में होती आई है. कई स्कूलों के बारे में भी आए दिन भेदभाव की खबरें छपती रहती हैं, यहां वह सब नहीं होता है.

स्कूल की दीवार पर बाबा साहेब और स्कूल के अध्यापकों की सूची देखी जा सकती है.
स्कूल की दीवार पर बाबा साहेब और स्कूल के अध्यापकों की सूची देखी जा सकती है.

क्या एक हेडमास्टर होने से उनके प्रति लोगों के नजरिए में बदलाव आया? प्रेमचंद बताते हैं, “यहां कुछ लोगों को मेरी जाति से दिक़्क़त है लेकिन वो सामने नहीं दिखाते हैं क्योंकि उन्हें पता है कि मैं पढ़ा-लिखा हूं और अपने अधिकार जानता हूं. मुंह के सामने सब अच्छे हैं. आज जिस पद पर मैं हूं वो सब आसानी से तो नहीं मिला है. यहां तक पहुंचने के दौरान बहुत बार ऐसा हुआ जब मुझे इस तरह का अनुभव हुआ. ऐसा लगा कि जाति की वजह से मुझे अलग किया जा रहा है, दूर रखा जा रहा है. साथ ही मानसिक रूप से टॉर्चर किया जा रहा है. लेकिन फिर भी हमने पढ़ाई का साथ नहीं छोड़ा, संघर्ष किया और आगे की शिक्षा ली. इस तरह की चुनौती हर मोड़ पर मिली. उसे स्वीकारा और उससे लड़ते हुए हम आगे बढ़े और आज धीरे-धीरे हम सफल हो गए हैं.''

अर्थ यानी पैसा बहुत सारी समस्याओं का सीधा निवारण माना जाता है. सामाजिक प्रतिष्ठा इसमें सबसे पहले आती है. लेकिन इसके साथ जाति की समस्या भी आती है. सिवान बिहार के उन ज़िलों में शामिल है जहां खाड़ी देशों से आ रहे पैसे के कारण समृद्धि फैल रही है, आर्थिक संपन्नता आ रही है लेकिन यह संपन्नता समानता की जमीन तैयार नहीं कर पा रही है. 

इस साल के जनवरी में हिंदुस्तान टाइम्स में एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई, इसमें क्षेत्रीय पासपोर्ट अधिकारी (पटना) तविशी बहल पांडे ने बताया कि सिवान में विदेश जाने के लिए लोगों के पासपोर्ट बनाने की संख्या काफ़ी बढ़ी है. रिपोर्ट में बताया गया कि सिवान, गोपालगंज और सारण में ना केवल अधिक नौकरीपेशा लोग हैं बल्कि ये ज़िले पिछले कुछ सालों से कुशल व अर्ध-कुशल लोगों को रोज़गार के लिए आपस में कनेक्ट करने का भी काम कर रहे हैं. यह भी एक कारण है कि यहां से महामारी के दौरान भी पासपोर्ट बनवाने वालों की संख्या कम नहीं हुई.

हालांकि इस तरह के आंकड़े अभी सामने नहीं आए हैं जिनसे ये पता चल सके कि किस वर्ग के लोग रोज़गार के लिए सबसे अधिक विदेश पहुंचे हैं.

उक्त लेख, दिसंबर 2022 में ‘841446: मुकाम पोस्ट नरेंद्रपुर’ नामक पुस्तक में प्रकाशित सात रिपोर्टों की सीरीज का एक अंश है। जिसे 7 पत्रकारों ने मिलकर लिखा है।

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