हाशिए पर ‘घुमंतू’ समुदाय को नहीं मिला अनुसूचित जनजाति का दर्जा, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार की बेहाली ने जिंदगी को बना दिया बंजर

मुराती देवी (70) के साथ उनका बेटा और बहु
मुराती देवी (70) के साथ उनका बेटा और बहु फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक
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खानाबदोश समुदाय से होने का दावा करने वाले दलित बस्ती के लोगों की दैनिक जीवन की स्थिति दयनीय। सामाजिक उपेक्षा, शिक्षा से दूरी, आर्थिक रूप से कमजोर और स्वास्थ्य सेवाओं व सरकारी जनकल्याणकारी योजनाओं से वंचित इस समाज के लोगों के जीवन पर प्रतिकूल असर. समुदाय के निवासियों ने अनुसूचित जनजाति की श्रेणी में सूचीबद्ध करने की मांग की.

उत्तर प्रदेश। सिद्धार्थनगर जिले के मिठवल विकासखंड की बांसी तहसील में स्थित तुर्सिया ग्राम पंचायत का तुर्सिया गांव जहां एक गांव में बसे निवासियों द्वारा लम्बे समय से दावा किया जा रहा है कि उनके पूर्वज घुमन्तु जनजाति हैं जो दूरदराज क्षेत्रों में मांग कर (भिक्षाटन) अपना पेट पालते थे. हालांकि, यहां के समुदाय के लोगों को वर्तमान में अनुसूचित जाति (एससी) का दर्जा प्राप्त है. लेकिन द मूकनायक की ग्राउंड रिपोर्ट में पता चलता है कि यहां के लोगों की उम्मीदें इस बात पर हैं कि अगर इन्हें अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्जा प्राप्त होता तो आज उनके समाज के युवाओं के पास रोजगार होते, अच्छी शिक्षा होती और दैनिक जीवनयापन के लिए एक स्वस्थ्य दिनचर्या होती।

उत्तर प्रदेश के उत्तर पूरब के तराई क्षेत्र में नेपाल सीमा से जुड़े सिद्धार्थनगर जिले में लगभग 20 गांव ऐसे हैं जहां इस तरह के समुदाय के लोग निवास कर रहे हैं. बांसी तहसील क्षेत्र में घुमन्तु, मंगता, पासी, मोची, धरिकार, धोबी जातियां अनुसूचित जाति में निवास करती हैं. 

तुर्सिया गांव में, समुदाय में हाईस्कूल पास उम्रदाज लोगों में परशुराम (42) वर्ष 2007 में बीडीसी सदस्य चुने गए थे. उसके बाद उन्हें कभी भी अपने इन हाशिए के लोगों का प्रतिनिधित्व करने का आधिकारिक मौका नहीं मिला। “ग्राम पंचायत में कुल 7 गांव हैं. अपने लोगों के अधिकारों और उनके विकास के लिए हर बार मैं चुनाव (ग्राम प्रधान/बीडीसी) के लिए उम्मीदवार होता हूं, लेकिन मेरे समाज के अलावा कोई भी हमें स्वीकार नहीं करता है, ”परशुराम ने कहा. “हमारे पूर्वज पहले भिक्षाटन करते थे. उसी से अपना रोजी-रोटी चलाते थे, और अपने बच्चों को पालते थे.”

परशुराम अपने समुदाय के लोगों के बीच बातचीत करते हुए
परशुराम अपने समुदाय के लोगों के बीच बातचीत करते हुएफोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

“हमारे अधिकांश लोग अभी भी भिक्षाटन करके पेट पालते हैं, कुछ मजदूरी करते हैं और कुछ लोग जानवरों को खरीदने-बेंचने का काम करते हैं, ”परशुराम ने द मूकनायक को बताया। 

परशुराम स्वयं को और अपने गांव के अपने समुदाय के लोगों को एसटी (अनुसूचित जनजाति) होने का दावा करते हैं. “असल में हम एसटी ही हैं. हमको जनजाति में ही रखना चाहिए सरकार को. क्योंकि हमारे लोग (पूर्वज) पहले जंगलों में, कबीलों में डेरा डालकर रहते थे. लेकिन जब हम लोग थोड़ा जागरूक होने लगे तब हमारे बाप-दादाओं ने स्थाई रहना चुना।” वह आगे कहते हैं, “यदि हम जनजाति श्रेणी में रहते तो हमारे बच्चे कम शिक्षा पाकर भी किसी छोटी-मोटी सर्विस में होते। ऐसा न होने से हमारी छति है. हम मांग करते हैं कि शासन हमें एसटी में शामिल करे, जिससे हमारी आने वाली पीढ़ी को इसका फायदा मिले। हमारे लोगों के पास रोजगार हो और हमें मांग कर न खाना पड़े.” 

शिक्षित होने की वजह से लगभग 350 लोगों की आबादी वाले इस गांव में सिर्फ परशुराम के परिवार से ही नई पीढ़ी के बच्चे शिक्षा की और बढ़ रहे हैं. उनका बेटा अजीत गौतम (21) डी-फार्मा करके सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र तिलौली में इंटर्नशिप कर रहा है.

समुदाय में एकमात्र परशुराम हैं जो शिक्षित हैं और समुदाय के लोग उन्हें अपना अगुआ मानते हैं।
समुदाय में एकमात्र परशुराम हैं जो शिक्षित हैं और समुदाय के लोग उन्हें अपना अगुआ मानते हैं।फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

70 परिवारों के साथ तुर्सिया गांव में लगभग 250 मतदाता हैं. गांव में 18-30 वर्ष की उम्र के लगभग 50 से 60 युवा हैं. कुल युवाओं में सिर्फ 4 बच्चे हाईस्कूल और 4 बच्चे इंटर में पढ़ रहे हैं, शेष अन्य युवाओं ने कोई शिक्षा प्राप्त नहीं की है. गांव के पास में ही स्थित प्राइमरी स्कूल है लेकिन यहां इस गांव के छोटे बच्चे न के बराबर पढ़ने जाते हैं. परशुराम ने बताया कि, “युवाओं में 90 प्रतिशत लोग शराब पीते हैं.”

समुदाय के लोग, जहां रह रहे हैं वहां की जमीनों की प्रकृति के बारे में द मूकनायक के सवाल पर परशुराम ने कहा, “लगभग 70 सालों से हम लोग यहां बसे हैं. जहां हम लोग बसे हैं यहां की कुछ जमीनें हमारे लोगों के नाम से हैं, और कुछ सरकारी हैं. अगर कभी भविष्य में हमें सरकार हटाती है तो हम लोग कहां जाएंगे! हम गरीब लोग हैं.”

शीला, परशुराम की पत्नी
शीला, परशुराम की पत्नीफोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

परशुराम की पत्नी बताती हैं कि हमारे पास खेती लायक जमीन सिर्फ 10 मंडी (लगभग आधा बीघा) है. सरकारी राशन मिलता है लेकिन सिर्फ उससे पेट नहीं भरता। “परिवार (पति) धंधा-पानी करके रोजी-रोटी चलाते हैं. हम घर पर गाय-भैंस पालते हैं, और उसे खरीदते-बेंचते हैं. घर के बुजुर्ग भीख मांगने जाते हैं, और लड़के मेहनत मजदूरी करते हैं, ”शीला, परशुराम की पत्नी ने द मूकनायक को बताया।

विशाल पढ़कर डॉक्टर बनाना चाहता है।
विशाल पढ़कर डॉक्टर बनाना चाहता है। फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

इसी गांव के विशाल (16) जो हाईस्कूल के छात्र हैं, मेहनत से पढ़कर डॉक्टर बनने की इक्षा जताते हैं. संकोच करते हुए विशाल ने बताया हैं, “मां घर पर मवेशिओं की देखभाल और उनके चारे की व्यवस्था करती है. जब खाली समय मिलता है तब भीख मांगने चली जाती है. दो भाई बाहर रहते हैं.”

लक्ष्मी समुदाय के उन बच्चों में से एक है जो स्कूल जाती है, और पढ़ाकर समुदाय के लोगों की मदद करना चाहती है।
लक्ष्मी समुदाय के उन बच्चों में से एक है जो स्कूल जाती है, और पढ़ाकर समुदाय के लोगों की मदद करना चाहती है।फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

विशाल की तरह लक्ष्मी (15) भी पढ़कर डॉक्टर बनने की इक्षा रखती है. लक्ष्मी ने बताया कि उसके पापा भैंस खरीदने-बेंचने का काम करते हैं. लक्ष्मी अपने साथ भेदभाव की एक घटना को द मूकनायक से साझा करती हैं, “बाबा साहब आंबेडकर का जन्मदिन था. स्कूल की सहेली जो ब्राह्मण जाति की थी, उसे घर पर बुलाया तो उसने आने से मना कर दिया और झगड़ा भी करने लगी.”

कैलाशी के पति भीख मांगकर खाते हैं। खेती के लिए जमीन नहीं है।
कैलाशी के पति भीख मांगकर खाते हैं। खेती के लिए जमीन नहीं है। फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

गांव की कैलाशी (61) को किसी तरह का सरकारी सुविधा या पेंशन नहीं मिलता। मनरेगा के बारे में पूछे जाने पर वह इससे अनभिज्ञ होने की बात कहती हैं. वह बताती हैं कि “हमारे पास खेती के लिए जमीन नहीं है. पति मांग कर लाते हैं उसी से घर चलता है. पति दो कोस - 4 कोस तक मांगने जाते हैं.”

इंद्रजीत राम की पोती के दोनों हाथ विकलांग हैं, इलाज कराने तक के पैसे नहीं हैं।
इंद्रजीत राम की पोती के दोनों हाथ विकलांग हैं, इलाज कराने तक के पैसे नहीं हैं। फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

इंद्रजीत राम, जो कान साफ करके अपने परिवार का पेट पालते हैं, अपनी रोती हुई पोती (2) को गोद में लेकर अपने मजबूरियों और गरीबी का पीड़ादायक दृश्य सामने रखते हैं. “मेरी पोती दोनों हाथ से विकलांग है. एक और पोती है उसका एक हाथ विकलांग है. हम गरीब लोग हैं, मांगकर खाते हैं — इसका इलाज नहीं करा सकते। मेरे पास खेती-बाड़ी भी नहीं है. हम रोज घुट-घुट कर मर रहे हैं. हमारे पास घर भी नहीं है. हमें कोई देखने-सुनने वाला नहीं है.” इंद्रजीत के बेटे का नाम उमेश और बहु का नाम सुमन है.

प्रभावती को वृद्ध पेंशन कभी नहीं मिला
प्रभावती को वृद्ध पेंशन कभी नहीं मिलाफोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

प्रभावती (60) के परिवार में कई लोग हैं, लेकिन कोई उनसे मतलब नहीं रखता। जब उनके पति मांगकर कुछ लाते हैं तब उनका पेट भरता है. प्रभावती को वृद्धा पेंशन के बारे में कुछ भी नहीं पता है, और न ही उन्हें कभी इसका लाभ मिला। प्रभावती के पास खेती के लिए कोई जमीन नहीं है. वह बताती हैं, “लहसुन बैठाने भर की जमीन नहीं है.”

गांव में अधिकांश लोगों के पास गैस कनेक्शन नहीं है।
गांव में अधिकांश लोगों के पास गैस कनेक्शन नहीं है। फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

तुर्सिया गांव में लगभग 1 या दो घरों के अलावा किसी के पास गैस कनेक्शन नहीं है. पूरा गांव लकड़ी से मिट्टी के चूल्हे पर खाना बनाता है. गांव में गिने-चुने लोगों के अलावा किसी भी व्यक्ति को आवास योजना का लाभ नहीं मिला है. सिर्फ एक घर के अलावा किसी भी परिवार के पास शौचालय नहीं है. गांव में किसी भी महिला को किसी भी तरह का सरकारी पेंशन नहीं मिलता। गांव में 90 प्रतिशत लोगों के पास खुद के स्वामित्व वाली खेती की जमीन न होने की वजह से किसी को भी प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि का लाभ नहीं मिलता है.

रमेश के पास पक्का मकान नहीं है। घास-फूस की झोपड़ी में बरसात का समय गुजारना मुस्किल हो जाता है।
रमेश के पास पक्का मकान नहीं है। घास-फूस की झोपड़ी में बरसात का समय गुजारना मुस्किल हो जाता है। फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

रमेश (26) एक घास-फूस की झोपड़ी पर पन्नी तानकर गुजारा करते हैं. रमेश बताते हैं, “जब बारिश होता है तब बरसात का पानी हमारे ऊपर बुदुर-बुदुर (धीरे-धीरे लगातार) गिरता है. मुझे आवास नहीं मिला। हम गरीब हैं, इसी में अपनी जिंदगी काट रहे हैं.”

विकास के माता-पिता दोनों नहीं हैं। बहन भीख मांगकर पेट भरती है।
विकास के माता-पिता दोनों नहीं हैं। बहन भीख मांगकर पेट भरती है।फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

अंतिम छोर पर, गांव के पश्चिम में, एक छप्पर के घर के सामने बेबसी के भाव में एक तीन वर्षीय मासूम नल पकड़ कर खड़ी है, उसका 10 साल का भाई विकास उससे कुछ दूरी पर नन्हे हाथों से बर्तन मांज (बर्तन साफ़ करना) रहा है. विकास की एक और बहन रोशनी (15) है, जो घर पर नहीं थी, भीख मांगने गई थी जिससे इनके पेट भरने का इंतजाम हो सके. इनका इस दुनिया में और कोई नहीं है. रोशनी ही अपने भाई और बहन की माता और पिता है, क्योंकि उनके माता-पिता दोनों किसी बीमारी की वजह से इलाज न करा पाने की वजह से अपने तीन बच्चों को हमेशा के लिए अकेला छोड़ गए. पहले पिता लाल बहादुर की मौत हुई उसके 6 महीने बाद मां पंगुली की भी मौत हो गई. 

तुर्सिया ग्राम पंचायत निवासी स्थानीय पत्रकार राम नरेश चौधरी (65) एक दैनिक समाचार पत्र के तहसील संवाददाता हैं. इस गांव में ग्राउंड रिपोर्ट के दौरान द मूकनायक की टीम के साथ उन्होंने अपने अनुभव और इस समुदाय से जुड़ी जानकारियों को साझा किया। “राजनितिक परिपेक्ष्य में सिद्धार्थनगर में अनुसूचित जाति का बड़ा अहम रोल है. हालाँकि अनुसूचित जनजाति (एसटी) यहां बहुत कम ही हैं, क्योंकि बीते पंचायत चुनाव में बांसी तहसील की कई ग्राम पंचायतें अनुसूचित जनजाति की होने के कारण प्रधानविहीन रह गईं थीं, और चुनाव ही नहीं हुआ था. कोई उम्मीदवार ही नहीं था.”

स्थानीय पत्रकार राम नरेश चौधरी का मानना है कि यह लोग जनजाति ही हैं, लेकिन किन्ही कारणों से इन्हें एससी श्रेणी में रखा गया है।
स्थानीय पत्रकार राम नरेश चौधरी का मानना है कि यह लोग जनजाति ही हैं, लेकिन किन्ही कारणों से इन्हें एससी श्रेणी में रखा गया है। फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

उन्होंने बताया, जब चुनाव आता है तब उम्मीदवार यहां आकर (तुर्सिया अनुसूचित जाति के ग्रामवासियों) लोगों को अपनी पार्टी का सजातीय बताकर वोट मांगते हैं. लेकिन इनकी हालत पर किसी के द्वारा कोई सुधार नहीं किया जाता है. “यहां की जो आबादी है वह अनुसूचित जनजाति की अहार्यता रखते हैं, और वह हैं भी. लेकिन कतिपय कारणों से सरकार द्वारा ध्यान न दिए जाने की वजह से ये लोग अनुसूचित जाति में ही पड़े हुए हैं. जबकि इन्हें अनुसूचित जनजाति में होना चाहिए।” 

“1970 के समय यहां लगभग तीन-चार घर आकर बसे थे. ये घुमन्तु लोग थे, यहां थोड़े समय के लिए आते थे और फिर मांगते-खाते भिक्षाटन के लिए चले जाते थे. ये लोग उस समय स्थाई रूप से एक जगह नहीं रहे. बाद में इन लोगों के लिए 1975 में चकबंदी के बाद इन लोगों को सरकार द्वारा पट्टे (लीज) की जमीन आवंटित की गई. तब इनके 2-4 घर ही थे. लेकिन समय के साथ आज इनकी संख्या में बढ़ोत्तरी हुई तो कई परिवारों के पास खेती के लिए कोई भी जमीन नहीं बची. या जिनके पास जमीन भी है तो वह बहुत कम बची है. क्योंकि पीढ़ी-दर-पीढ़ी इनके परिवारों में जमीनों के बंटवारे होते गए.” चौधरी ने बताया, “इनके पास जमीन न होने की वजह से इन्हें पीएम सम्मान निधि का लाभ नहीं मिलता। महिलाओं को वृद्धा पेंशन नहीं मिलता। यहां की विधवा महिलाओं को विधवा पेंशन भी नहीं मिलता। यहां इन्हें सिर्फ राशन मिलता है.” 

गांव में अधिकाश घर कच्चे हैं या घास-फूस से बने हैं। ज्यादातर लोगों को आवास योजना का लाभ नहीं मिला है।
गांव में अधिकाश घर कच्चे हैं या घास-फूस से बने हैं। ज्यादातर लोगों को आवास योजना का लाभ नहीं मिला है। फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

“यहां के लोगों में शिक्षा की बेहद कमी है. जिसके कारण इनके छोटे-छोटे बच्चे और युवा तमाम तरह के दुर्व्यसन में लिप्त हो गए हैं. जो बड़े बुजुर्ग हैं वह भी नशे के आदी हैं। इनके कमाई का अधिकांश पैसा ये शराब पीने में खर्च कर देते हैं. इससे इनके आर्थिक स्थिति पर बड़ा प्रतिकूल असर पड़ा है. यहां जो भी सामाजिक संस्थाएं हैं उन्हें इन लोगों के बीच नशामुक्ति जागरूकता अभियान चलाने की विशेष आवश्यकता है ताकि ये लोग नशा मुक्त होकर एक स्वस्थ्य जीवन यापन कर सकें।”

गांव में जल निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है।
गांव में जल निकासी की कोई व्यवस्था नहीं है।फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

“गांव में उज्ज्वला योजना के तहत कुछ लोगों को अगर गैस मिले भी हैं तो गरीबी के कारण लोग उसे भरवाने में सक्षम नहीं हैं. इस दलित बस्ती में आने के लिए सड़कें तो बन गईं हैं लेकिन इनकी बस्ती में नालियां नहीं हैं, जिससे इनके घरों से निकलने वाला निष्प्रयोग पानी बहने की कोई जगह नहीं है. जिससे इनके स्वास्थ्य पर भी असर पड़ता है. बहुत पहले इनमें से कुछ लोगों को इंदिरा आवास योजना के तरह आवास मिले थे, लेकिन उसके बाद इनकी बढ़ती आबादी के अनुपात में इन्हें आवास नहीं मिला है. इसके पीछे राजनितिक द्वेष भी हैं. जिसकी वजह से इन तक सरकारी योजनाओं की पहुँच नहीं हो सकी है, ”राम नरेश ने द मूकनायक को बताया।

गांव में अधिकांश लोगों के घर शौचालय नहीं है।
गांव में अधिकांश लोगों के घर शौचालय नहीं है। फोटो- राजन चौधरी, द मूकनायक

इस बस्ती में शौचालयों की अनुपलब्धता के बारे में द मूकनायक के सवाल पर राम नरेश बताते हैं, “जो सरकारी योजनाओं के सलाहकार या नियंता या इंजिनियर होते हैं वह शौचालय निर्माण के लिए दी जाने वाली इतनी कम राशि की योजना लाभ बना कर दे देते हैं, कि यह ग्रामीणों के समझ के बाहर होती है. शौचालय के लिए 12 हजार रुपए पर्त्याप्त नहीं है, फिर भी सरकार अपना पीठ खुद ठोंक रही है तो इसके लिया क्या कहा जाए.”

भारत में घुमंतू (खानाबदोश) समूह

घुमंतू या खानाबदोश समुदायों के एक समूह के रूप में जाने जाते हैं जो अपनी आजीविका के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं। इसमें कुछ नमक व्यापारी, कुछ भाग्य बताने वाले, जादू करने वाले, आयुर्वेदिक उपचारक, बाजीगर, कलाबाज़, कहानीकार, सपेरे, पशु चिकित्सक, टैटू बनाने वाले, चक्की बनाने वाले, या टोकरी बनाने वाले शामिल हैं।

कुछ मानवविज्ञानियों ने भारत में लगभग 8 खानाबदोश समूहों की पहचान की है, जिनकी संख्या शायद 10 लाख है - देश की एक अरब से अधिक आबादी का लगभग 1.2 प्रतिशत। अपर्णा राव और माइकल कासिमिर ने अनुमान लगाया कि खानाबदोश भारत की आबादी का लगभग 7% हिस्सा हैं।

भारत में खानाबदोश समुदायों को मोटे तौर पर तीन समूहों में विभाजित किया जा सकता है: शिकारी, पशुपालक और प्रवासी या गैर-खाद्य उत्पादक समूह। इनमें से, घुमंतू खानाबदोश भारत में सबसे उपेक्षित और भेदभावपूर्ण सामाजिक समूह हैं। परिवहन, उद्योगों, उत्पादन, मनोरंजन और वितरण प्रणालियों में भारी परिवर्तन के कारण आज उनकी आजीविका पर खतरा मंडरा रहा है।

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