गुलामगिरी: वह किताब जिसमें फुले ने बताया कि शूद्रों और दलितों को सार्वजनिक संपत्ति व मानवीय गरिमा की दावेदारियों से बेदख़ल करने का काम किया गया

गुलामगिरी: वह किताब जिसमें फुले ने बताया कि शूद्रों और दलितों को सार्वजनिक संपत्ति व मानवीय गरिमा की दावेदारियों से बेदख़ल करने का काम किया गया
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उन्नीसवीं सदी का उतरार्द्ध साहित्यिक, सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों की गतिविधियों से भरा रहा है। जहां एक ओर ईस्ट इंडिया के शासन का पतन हुआ, वहीं भारत का शासन महारानी विक्टोरिया के हाथों में आ गया था। महारानी विक्टोरिया के शासन को तत्कालीन बुद्धिजीवियों और साहित्यकारों ने उगते हुये सूर्य के समान देखा था। इसका कारण यह था कि महारानी विक्टोरिया ने यहाँ के बुद्धिजीवियों और सुधारकों को इस बात का वचन दिया था कि विक्टोरिया शासन भारतीय कानून और धर्म में तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगा, जब तक भारतीयों की ओर से पहल नहीं की जाएगी।

इसी शताब्दी के उतरार्ध में 'विधवा विवाह अधिनियम 1856' पारित हो चुका था। इस अधिनियम ने जहां विधवा का जीवन काट रही स्त्रियों के भीतर पुनर्विववाह की आशा का संचार किया। इस सदी के उतरार्द्ध में स्वामी दयानन्द सरस्वती के आंदोलन का उभार हुआ और जगह-जगह आर्य सभाओं की स्थापना हुई। सन 1872 में महारानी विक्टोरिया की ताजपोशी के लिए 'दिल्ली दरबार' का आयोजन हुआ। इस जलसे के अवसर पर देश के राजा-रजवाड़ों के साथ स्वामी दयानंद सरस्वती, भारतेन्दु हरिश्चंद्र, शिवप्रसाद सितारे-हिन्द, मुंशी कन्हैयालाल 'अलखधारी' नवीनचंद्र राय जैसे सरीखे समाज सुधारक और बुद्धिजीवियों को आमंत्रित किया गया था। भारतेन्दु हरिश्चंद्र ने इस दरबार का आँखों देखा हाल 'दिल्ली दरबार दर्पण'(Delhi Assemblege memorandum) शीर्षक से सन् 1877 में पुस्तिका के रुप में मेडिकल हाल प्रेस, बनारस से छपवाया था। इस दरबार में विक्टोरिया शासन की ओर तमाम राजाओं और रजवाड़ों को 'खान बहादुर' और 'राय बहादुर'की उपाधियों से नवाजा गया था।

उन्नीसवीं सदी की इन्ही गतिविधियों के बीच महान विचारक जोतीराव फुले की 'गुलामगिरि' (Slavery) किताब का प्रकाशित होना औपनिवेशिक भारत की एक बड़ी परिघटना थी। सन 1873 में यह किताब पहली बार मराठी भाषा में पूना सिटी प्रेस, छापाखाना से छपी थी। अभी हाल में ही इस किताब का हिन्दी अनुवाद फारवर्ड प्रेस ने प्रकाशित किया है। देखा जाए तो 'गुलामगिरि' के कई हिन्दी अनुवाद आ चुके  हैं पर फारवर्ड प्रेस से प्रकाशित गुलामगिरि का हिन्दी संस्करण बेहद खास और अलग किस्म का है। इस किताब का मूल मराठी से हिन्दी अनुवाद सुपरचित अनुवादक उज्ज्वला म्हात्रे ने किया है। उन्होंने  अपने अनुवाद में गुलामगिरि  की मुखरता और शब्दों की ताप को कम नहीं होने दिया।

गुलामगिरी के इस हिन्दी संस्करण में फुले के विचार उतने ही तीव्र और मुखर दिखते हैं ,जीतने की मूल मराठी वाली गुलामगिरि में है। इस किताब का प्राक्कथन जाने-माने बुद्धिजीवी आयवन कोस्का ने लिखा है। आयवन कोस्का का यह प्राक्कथन लेख औपनिवेशिक भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक और बौद्धिक आंदोलनों की अनुसंधान प्ररक पड़ताल करते हुए फुले की वैचारिक और बौद्धिक निर्मितियों की एक सटीक व्याख्या प्रस्तुत करता हैं। उनका यह प्राक्कथन  फुले  के अध्यताओं के लिए चिंतन के विविध आयाम और सूत्र भी छोड़ता है। महात्मा फुले ने गुलामगिरी भले मराठी भाषा में लिखी थी पर बड़ी दिलचस्प बात यह है कि इसकी भूमिका उन्होंने अँग्रेजी में लिखी थी।

आयवन कोस्का अपने प्राक्कथन लेख में अँग्रेजी में भूमिका लिखने के पीछे कारणों की गंभीर पड़ताल करते हैं। वह अपने निष्कर्ष में दावा करते हैं कि फुले औपनिवेशिक शासन और भारत के शिक्षित तबके को शूद्रों, अतिशूद्रों और आम जनता की दुश्वारियों की तरफ ध्यान खींचना चाहते थे। आयवन कोस्का ने गुलामगिरी की अँग्रेजी भूमिका लिखने के संबंध में लिखा है कि 'जिस तरह कि शब्दावलियों और उदाहरणों का इसमें प्रयोग किया गया है और जिस तरह से पश्चिमी इतिहास और संस्कृति की घटनाओं और व्यक्तियों का हवाला दिया गया है, उससे ऐसा लगता है कि इसका उद्देश्य अंग्रेजों और शिक्षित भारतीयों को यह बताना था कि आखिरकार आमजनों से जुड़ा एक शिक्षित शूद्र उनके सामने है जो जनता की बात दुनिया के सामने रख सकता है।' गुलामगिरि  के इस हिन्दी संस्करण की एक विशेष ख़ूबी यह भी कि डॉ. राम सूरत ने बड़ी गंभीरता से संदर्भ टिप्पणियाँ लिखी हैं। उनकी संदर्भ  टिप्पणियाँ गुलामगिरी के पाठ को आसान तो बनाती ही हैं साथ में औपनिवेशिक भारत को समझने में हमारे दायरे का विस्तार भी करती हैं।

जोतीराव फुले ने गुलामगिरि किताब संवाद शैली में लिखी थी। इसमें जोतीराव और घोंडिबा के बीच संवाद है। इस किताब की आलोचना के केंद्र में ब्राह्मणवादी निर्मितियों की वह पूरी बौद्धिक सत्ता थी, जिसने शूद्रों और दलितों को सार्वजनिक संपत्ति और मानवीय गरिमा की दावेदारियों से बेदख़ल करने का काम किया था। उन्नीसवीं सदी का यह वही दौर था। जब उच्च श्रेणी के हिन्दू वेद-पुराणों और स्मृतियों को अपने सिरहाने रखकर सोते और झोले में डालकर चलते थे। ऐसे माहौल में फुले ने इस किताब में सबसे पहले ब्राह्मणवादी बौद्धिकता के उस फार्मूले पर सवाल उठाया जिसमें मनुष्यों की उत्पत्ति का उद्गम ब्रम्हा के शरीर को बताया गया था। महात्मा फुले का कहना था कि यदि ब्राह्मणों का जन्म ब्रम्हा के मुख से हुआ होगा, तो वह एक प्रकार का गर्भाशय ही हुआ न यदि गर्भाशय होगा मासिक धर्म भी होगा। तो क्या मनु का कोई लेख है, जो बताता हो कि मासिक धर्म के उन चार दिनों में ब्रह्मा अलग-थलग एकांतवास में बैठते थे! यह एक ऐसा मारक सवाल था जिसका जवाब शायद ही ब्राह्मणवादी बौद्धिकता के पास था। फुले का दावा था कि मनु ने ब्रम्हा के नियमों को क़ानूनी जामा पहनाने में अहम भूमिका निभायी है। जिससे कोई व्यक्ति ब्रह्म की बातों को झुठला न सके। इसलिए मनु ने ब्रह्मा की बातों को ईश्वर तुल्य बताकर शूद्रों को गुलामी की जंजीरों में अजगर की तरह जकड़ लिया।

महात्मा फुले इस किताब में शूद्रों और अछूतों की गुलामी का बुनियादी कारख़ाना ब्राह्मणवादी बौद्धिकता को माना है। गुलामगिरी की भूमिका में फुले ने दावे का साथ लिखा कि ब्राह्मणों की सत्ता क़ायम होने से शूद्रों और अतिशूद्रों को बड़ी यातनाओं में जीवन गुज़ारना पड़ा है। इस किताब में दलील दी गई थी कि ब्राह्मणवादी बौद्धिकता ने शूद्रों और दलितों को न सिर्फ शिक्षा से वंचित किया बल्कि उनकी गरिमा और अस्मिता को भी कुचल डाला। यह शूद्र समाज शिक्षा के अभाव में ब्राह्मणों के दांव पेंच समझने में अक्षम रहा। इसका नतीजा यह हुआ कि उन पर असामाजिक सहिंताएं लाद कर उन्हें पंगु बना डाला गया। 

औपनिवेशिक भारत में महात्मा फुले शूद्रों की शिक्षा का सवाल बड़ी शिद्द्त के साथ उठाते हैं। वह बड़ी निर्भीकता से विक्टोरिया सत्ता की शूद्र शिक्षा के मसले पर आलोचना करते हैं। फुले की दलील थी कि कि शिक्षा विभाग पर लाखों का ख़र्च होने के बाद भी शूद्रों और अछूतों को शिक्षा के लाभ से वंचित रखा जा रहा है। वह विक्टोरिया सरकार को बताते हैं कि, शूद्र और दलित शिक्षा के लाभ से इसलिए वंचित हैं क्योंकि अंग्रेज़ अफसरों ने शिक्षा विभाग उच्च श्रेणी के हिंदुओं के हाथों में सौंप दिया है। यह उच्च श्रेणी के हिन्दू अपनी मनोवृति में शूद्रों और दलितों की शिक्षा के प्रबल विरोधी होते हैं। फुले, अपने चिंतन में विक्टोरिया सरकार से माँग करते हैं कि शूद्र शिक्षा के विरोधियों की पाठय-पुस्तकों को इनाम देने के बजाय उन्हें प्रतिबंधित किया जाए। इस बात की मुझे जानकारी नहीं है कि औपनिवेशिक सरकार की ओर से किस मराठी पाठ्य-पुस्तक को इनाम दिया गया पर उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में सरकार की ओर से हिन्दी-पाठयक्रम की अनेक पुस्तकों को इनाम दिया गया। पंडित रामप्रकाश तिवारी को 'सुता प्रबोध'(1871) नामक पाठ्यक्रम की पुस्तक को गवर्नमेंट की ओर से सौ रूपये का पुरस्कार दिया गया था। इसी तरह से पंडित गौरी दत्त को 'देवरानी जिठानी'(1870) किताब के लिए सरकार की ओर से सौ रुपये का इनाम दिया गया था।

औपनिवेशिक शासन द्वारा शूद्रों की उपेक्षा से फुले काफ़ी चिंतित थे। उन्होंने बड़ी तल्ख भाषा में सरकार से कहा कि यदि सरकार शूद्र विरोधी पुस्तकों पर प्रतिबंध नहीं लगा सकती है तो उसे शिक्षा विभाग पर ताला लगा देना चाहिए। इससे शूद्र कम से कम कर के बोझ से मुक्त हो जाएंगे। महात्मा फुले का तर्क था कि शिक्षा विभाग में उच्च श्रेणी के नौकरियों वाले लोगों को सरकार प्रति माह वेतन के तौर पर छह सौ रुपए देती। यह रकम शूद्रों से कर के रूप में वसूली जाती है। यह बात एकदम सही है कि शिक्षा विभाग में उच्च श्रेणी के जो हिन्दू अधिकारी थे, उन्हें तनख़ाह के रूप में मोटी रकम मिलती थी। प्रमाण के तौर पर औपनिवेशिक भारत के प्रसिद्ध लेखक शिव प्रसाद 'सितारे-हिन्द' को सन 1856 में शिक्षा-विभाग में बनारस डिवीजन के जाइंट इस्पेक्टर पद पर पाँच सौ रूपये मासिक तनख़ाह पर नियुक्त किया गया था। जब इन्हें  शिक्षा विभाग में प्रधान इस्पेक्टर बनाया गया तो इनकी तनख़ाह एक हजार रुपया मासिक कर दी गयी थी।  महात्मा फुले विक्टोरिया शासन की कार्यपद्धति पर भी सवाल उठाते हैं। वह इस बात से भलीभांति परचित थे कि सन 1872 के दिल्ली दरबार में विक्टोरिया शासन ने उच्च श्रेणी के बुद्धिजीवियों और सुधारकों को जिस तरह से हाथों-हाथ लिया और उन्हें 'राय बहादुर' और खानबहादुर की उपाधियाँ तक दे डाली। फुले ने विक्टोरिया सत्ता को आगाह करते हुए लिखा कि सरकार को उच्च श्रेणी के लेखकों और सुधारकों पर अधिक भरोसा न करे। 

हम देखते हैं कि, उन्नीसवीं सदी में, उत्तरार्द्ध में प्रकाशित गुलामगिरी किताब ब्राह्मणवादी निर्मितियों की सिर्फ तीखी आलोचना ही नहीं करती है बल्कि ब्राह्मणवादी कारख़ाने के विरुद्ध एक मारक विमर्श की ज़मीन भी तैयार करती है। फुले की यह किताब ब्राह्मणवादी निर्मितियों का खुखार चेहरा उघाड़कर रख देती है। महात्मा फुले जहां एक ओर अपनी बौद्धिकता से शूद्रों और दलितों की मुक्ति का घोषणा पत्र तैयार कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर शूद्रों और दलितों की सार्वजनिक संपत्ति और शैक्षिक परिसर में दावेदारी का सवाल भी पेश कर रहे। उन्नीसवीं सदी में फुले शूद्र और दलित बौद्धिकता की नुमाइंदगी करते नज़र आते हैं, यह नुमाइंदगी उस दौर में होती है, जब ब्राह्मणवादी शक्तियों ने शूद्रों के पढ़ने लिखने पर पहरा लगा रखा था।

समीक्षित पुस्तक : गुलामगिरी

लेखक : जोतीराव फुले

अनुवादक : उज्ज्वला म्हात्रे

प्रकाशक : फारवर्ड प्रेस, नई दिल्ली

मूल्य : 400 रुपए (सजिल्द)

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