[दलित हिस्ट्री मंथ विशेष] वायकोम सत्याग्रह से लेकर थेनमुडियानूर सत्याग्रह तक: दलितों के शोषण और उत्पीड़न की एक सी कहानी

दलित हिस्ट्री मंथ की सीरीज में पेश है दलितों पर अत्याचार और उनके संघर्षों की एक और ऐतिहासिक कहानी।
वायकोम सत्याग्रह
वायकोम सत्याग्रह
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साल के शुरूआती महीने (जनवरी 2023) की 30 तारीख को तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई जिले के थेनमुडियानूर गांव में 80 साल बाद विशेष धार्मिक अवसर पर दलितों ने श्री मुथलम्मन मंदिर में प्रवेश किया। इसका उच्च जाति के लोगों ने विरोध किया, जिसके चलते मंदिर में प्रवेश करने वाले दलितों की सुरक्षा के लिए 200 से ज्यादा पुलिसकर्मी तैनात किए गए।

थेनमुडियानूर गांव में 1,700 परिवार हैं, जिनमें से 500 दलित हैं और शेष विभिन्न जातियों से हैं। रीति-रिवाजों और परंपराओं के अनुसार, पोंगल त्योहार के बाद इस मंदिर में 12 समुदायों द्वारा अनुष्ठान किए जाते हैं और प्रत्येक को अनुष्ठान करने के लिए एक दिन का समय दिया जाता है। मंदिर में दलितों के प्रवेश करने पर रोक लगा दी जाती है। इसका दलितों ने विरोध किया, जिसके बाद वर्षों से चली आ रही परम्परा खत्म हुई। थेनमुडियानूर गांव के 500 दलितों के संघर्ष ने आज से करीब 100 साल पहले हुए वायकोम सत्याग्रह (1924-25) की यादें ताजा कर दीं। वायकोम सत्याग्रह क्या था, इसको जानने से पहले उस समय दिए गए इस वक्तव्य पर नजर डालते हैं।

“उनका तर्क है कि अछूत यदि मंदिर तक जाने वाली सड़कों से गुजरते हैं तो वे अपवित्र हो जाएंगीं। मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि वायकोम का देवता अथवा ब्राह्मण क्या महज अछूतों की उपस्थिति से अपवित्र हो जाते हैं। यदि वे मानते हैं कि वायकोम का देवता अशुद्ध हो जाएगा, तब वह देवता हो ही नहीं सकता। वह महज एक पत्थर है, जिसे केवल गंदे वस्त्र धोने के लिए उपयोग में लाया जा सकता है।”

यह वक्तव्य पेरियार के नाम से विख्यात, ई. वी. रामास्वामी ने वायकॉम सत्याग्रह के दौरान दिया था। इस वक्तव्य के प्रकाश में दलित हिस्ट्री मंथ के अवसर पर वायकॉम सत्याग्रह को एक बार फिर थेनमुडियानूर सत्याग्रह से जोड़कर पढ़ते और समझते हैं।

तब मंदिर को जाने वाले रास्तों पर चलने की थी मनाही

आधुनिक भारत के इतिहास में जाति-आधारित वैमनस्य और छूआछूत को टक्कर देने में जिन आंदोलनों की बड़ी भूमिका रही, उनमें वायकोम सत्याग्रह (1924-25) पहले नम्बर पर है। कालांतर में अन्य सत्याग्रह या आंदोलन भी हुए जो आज के आधुनिक दौर तक जारी है। वायकोम सत्याग्रह सार्वजनिक मार्गों पर चलने के अधिकार के लिए शुरू अहिंसक आंदोलन था। अनेक उतार-चढाव से भरे, लगभग 3 महीनों तक चलने वाले वायकोम सत्याग्रह की शुरुआत 31 मार्च 1924 को हुई थी।

त्रावणकोर रियासत सहित मद्रास प्रेसिडेंसी के अधीन आने वाली कई रियासतों में, छूआछूत के चलते, दलितों और शूद्रों को सार्वजानिक मार्गों पर चलने की आजादी नहीं थी। उसे लेकर जनता में गहरा आक्रोश था। गैर-ब्राह्मणों की मांग को देखते हुए त्रावणकोर सरकार ने 1865 में अध्यादेश के जरिए कानून बनाया था। उसके अनुसार राज्य के सभी नागरिकों को सार्वजनिक स्थानों पर आने-जाने की छूट दी गई थी। व्यवस्था की गई थी कि राज्य की सभी सड़कें, सभी नागरिकों के लिए खुली रहेंगी। कोई भी नागरिक उनपर आ-जा सकेगा। किंतु ब्राह्मण तथा राज परिवार के सदस्य इस आदेश का विरोध करते आ रहे थे। उनकी परवाह न करते हुए 1884 में सरकार की ओर से एक और आदेश जारी किया गया, जिसमें पिछली व्यवस्था का समर्थन किया गया था। उसे अपने धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप बताते हुए विरोध में ब्राह्मणों ने त्रावणकोर उच्च न्यायालय में अपील कर दी। जिसमें मंदिर के आस-पास की कुछ सड़कों पर अछूतों के लिए चलना निषिद्ध कर दिया गया। उस आदेश की अछूतों में तीखी प्रतिक्रिया हुई।

मंदिर में प्रवेश का प्रयास

उसी रियासत के वायकोम नामक कस्बे में महादेव का पुराना मंदिर था। उसमें अछूतों का प्रवेश निषिद्ध था। मंदिर के आस-पास की कुछ सड़कें ब्राह्मणों और राज परिवार के सदस्यों के लिए आरक्षित थीं। अछूत उनपर चल नहीं सकते थे। इस अमानवीय व्यवस्था का विरोध लंबे समय से चला आ रहा था। 1805-06 में इरावा जाति के दो सौ युवाओं ने मंदिर में प्रवेश की नाकाम कोशिश की थी। आंदोलन की भनक मंदिर के प्रशासकों को लग गई। उन्होंने राजा से संपर्क किया। उस समय थिरुनल बलराम वर्मा त्रावणकोर का राजा था। राज्य का प्रबंधन मुख्यतः दीवान वेलु थंपी के हाथों में था। वेलु थंपी क्रूर और सामंती प्रवृति का था। मदद की उम्मीद के साथ पहुंचे मंदिर के संचालकों को उसने सभी आवश्यक कदम उठाने का आश्वासन देकर वापस लौटा दिया।

आंदोलनकारियों की मंदिर के पूर्वी दरवाजे से प्रवेश की योजना थी। उस रास्ते पर चलना अछूतों के लिए निषिद्ध था। थंपी ने उस आंदोलन को असफल करने की पूरी योजना बना ली। मुख्य मंदिर से 150 मीटर दूर एक तालाब था, जिसे “दलवाकुलम” कहा जाता था। परंपरा के अनुसार दलवाकुलम में स्नान करने के बाद ही श्रद्धालु वायकोम मंदिर में दर्शन के लिए जाते थे। वेलु थंपी ने अपने भरोसेमंद नायर जाति के कुंजू कुटृटी पिल्ले और वायकोम पपनावा पिल्ले को आंदोलनकारियों को सबक सिखाने की जिम्मेदारी सौंप दी। उन दोनों ने दर्जन-भर हथियारबंदों को तालाब के पास छिपा दिया। जैसे ही इरावा युवकों ने मंदिर की दिशा में अपना शांतिपूर्ण मार्च शुरू किया, कुंजू कुटृी पिल्ले के सैनिकों ने उनपर धावा बोल दिया। वे निहत्थे आंदोलनकारियों पर टूट पड़े। उस हमले में दर्जनों युवा मारे गए। अनेक घायल हुए। मारे गए इरावा युवाओं की लाशों को तालाब में फेंक दिया गया। केरल के इतिहास में वह घटना “दलवाकुलम हत्याकांड” के नाम से दर्ज है।

बीसवीं सदी के पहले दशक में मलयाली कवि, चिंतक और समाज सुधारक कुमारन आशान ने कोचू कुंजन सन्नार तथा कुंजू पन्निकर के साथ मिलकर अछूतों के सार्वजनिक मार्गों पर चलने के अधिकार की मांग की थी। ये तीनों भी इरावा समुदाय के थे। संबंधित अधिकारियों ने धार्मिक मामला बताकर उनकी मांग को ठुकरा दिया था। 1920-21 में आशान ने मामले को फिर त्रावणकोर की विधायिका में उठाया। इस बार उन्हें थोड़ी कामयाबी मिली। आशान को आश्वासन दिया गया कि प्रतिबंधित मार्गों में से कुछ को अछूतों के लिए खोल दिया जाएगा, परंतु लंबे समय तक वह केवल आश्वासन बना रहा। इसके साथ-साथ सार्वजनिक मार्गों पर चलने की आजादी को लेकर इरावाओं का आंदोलन भी चलता रहा।

नारायण गुरु का योगदान

नारायण गुरु का दक्षिण भारत के समाज सुधारकों में बड़ा नाम हैं। वे इरावा जाति के थे। एक बार वे अपने शिष्यों के साथ गाड़ी में सवार होकर मंदिर के बराबर से गुजर रहे थे। महाकवि और समाज सुधारक आशान सहित दलित-पिछड़ों के अनेक नेता उनके साथ थे। अचानक उच्च जाति के कुछ गुंडे आकर उनकी गाड़ी के आगे खड़े हो गए। उनका नेतृत्व एक ब्राह्मण कर रहा था। उपद्रवियों ने नारायण गुरु की गाड़ी को वहां से हटने के लिए विवश कर दिया।

पेरियार का आगमन

सार्वजनिक मार्गों पर चलने की अछूतों की आजादी को लेकर अगले संघर्ष की शुरुआत टी.के. माधवन की पहल पर हुई थी। पेशे से वकील टी. के. माधवन का संबंध इरावा जाति से था। एक बार उन्हें अपने मुवक्किल के केस के सिलसिले में अदालत में उपस्थित होना था। अदालत महाराजा के परिसर के भीतर था। उस दिन महाराजा का जन्मदिन था। इस कारण सभी रास्तों को अच्छी तरह से सजाया गया था। अदालत जाने के लिए माधवन जब वहां पहुंचे तो ब्राह्मणों ने उन्हें टोक दिया। उनसे बाहर-बाहर चक्कर काटते हुए दूसरे रास्ते से अदालत जाने को कहा गया। घुमाव के बाद कोर्ट का फासला करीब डेढ़ किलोमीटर बढ़ जाता था। अदालत का समय हो चुका था। समय पर उपस्थित न होने के कारण केस माधवन के मुवक्किल के विरुद्ध भी जा सकता था। उन्होंने ब्राह्मणों से रास्ता छोड़ने का अनुरोध किया। मगर ब्राह्मण अड़ गए।

इस घटना ने माधवन सहित सभी गैर ब्राह्मण नेताओं को नाराज कर दिया। “देशाभिमानी” के संपादक और प्रमुख कांग्रेसी नेता जार्ज जोसेफ, “मातृभूमि” के संपादक के. पी. केशवमेनन जैसे दर्जनों नेताओं ने सार्वजनिक मार्गों पर चलने की स्वतंत्रता को लेकर आंदोलन छेड़ने का एलान कर दिया। जार्ज जोसेफ कांग्रेसी नेता थे। आंदोलन छेड़ने से पहले उन्होंने गांधी को भी सूचित करना उचित समझा। 12 मार्च 1924 को प्रस्तावित आंदोलन की सूचना गांधी को भेज दी गई। गांधी ने उन्हें अहिंसक तरीके से आंदोलन की अनुमति दे दी।

गांधी की अनुमति के बाद नेताओं ने 31 मार्च 1924 को आंदोलन का बिगुल फूंक दिया। लेकिन विरोधी भी कम सक्रिय न थे। उन्होंने राजा को भड़काना शुरू कर दिया। नतीजा यह हुआ कि आंदोलन शुरू होने के कुछ ही दिनों के बाद, उससे जुड़े सभी प्रमुख नेताओं को हिरासत में ले लिया गया। गिरफ्तार नेताओं में जार्ज जोसेफ, टी. के. माधवन तथा केशव मेनन भी शामिल थे। बड़े नेताओं के गिरफ्तार होने के बाद आंदोलनकारियों को एहसास हो चुका था कि बगैर कुशल नेतृत्व के आंदोलन को सफलतापूर्वक आगे बढ़ाना मुश्किल होगा। उन्होंने निकटवर्ती मद्रास प्रेसीडेंसी के कांग्रेसी नेताओं से सहयोग की अपील की। परंतु कांग्रेस का नेतृत्व मुख्यतः ब्राह्मणों के हाथों में था, जिनकी उस आंदोलन में कोई रुचि न थी।

उसी दौरान जार्ज जोसेफ और केशव मेनन ने पेरियार नाम के एक व्यक्ति को व्यक्तिगत पत्र लिखा। उन दिनों पेरियार तमिलनाडु कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। पत्र में आंदोलन की आवश्यकता के बारे में बताते हुए, पेरियार से उसे संभालने का अनुरोध किया गया था। लिखा था कि यदि वे देर करते हैं तो एक आवश्यक आंदोलन असमय ही दम तोड़ लेगा।

पेरियार उस समय तक नास्तिक होने का संकल्प ले चुके थे। परंतु यहां मामला केवल धर्म तक सीमित नहीं था। उससे सार्वजनिक मार्गों पर चलने की आजादी भी जुड़ी थी। उसका संबंध नागरिक स्वतंत्रता से था। पेरियार वर्षों से शूद्रों और पंचमों के अधिकारों के लिए संघर्ष करते आ रहे थे। “वायकोम आंदोलन” का मकसद भी वही था। सो बगैर समय गंवाए उन्होंने वायकोम पहुंचने का निर्णय ले लिया। 13 अप्रैल को वे वायकोम पहुंचे। उनके पहुंचते ही आंदोलनकारियों में जान आ गई। पेरियार ने वहां भाषण दिया था।

वायकोम सत्याग्रह
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देखते ही देखते लोग सत्याग्रह में भागीदारी के लिए उमड़ पड़े। पंडालों में जगह कम पड़ने लगी। पेरियार के भाषण ने ब्राह्मणों और उनके नेताओं को बुरी तरह हिला दिया था। सरकार स्वयं सकते में थी। नतीजा यह हुआ कि आंदोलन में उतरने के छठे दिन ही उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। एक महीने की सजा सुनाई गई। सजा पूरी होने पर अरिविक्कुटु जेल से रिहा होते ही उन्हें वारंट थमा दिया गया। उसमें तत्काल त्रावणकोर राज्य छोड़ने का आदेश था। पेरियार ने किसी की परवाह न की। आंदोलन के अंजाम तक पहुंचने तक उन्होंने वहीं डटे रहने का निर्णय लिया।

आंदोलनकारियों को दुनिया-भर से समर्थन मिल रहा था। लोग खुले मन से सत्याग्रह का हिस्सा बन रहे थे। आंदोलनरत दलितों को सिख, ईसाई सहित अन्य धर्मावलंबियों का सहयोग भी मिल रहा था। सत्याग्रहियों के भोजन की व्यवस्था का काम दो सौ से अधिक सिख स्वयंसेवक कर रहे थे। गांधी स्वयं उस मामले में रुचि ले रहे थे। किंतु वे इसे हिंदुओं का आंतरिक मामला मानते हुए, अन्य धर्मावलंबियों के हस्तक्षेप के विरुद्ध थे। “यंग इंडिया” में लेख लिखकर उन्होंने गैर-हिंदुओं को वहां से हट जाने का आग्रह किया था।

गांधी, पेरियार को भी वायकोम सत्याग्रह से दूर रखना चाहते थे। कांग्रेस गांधी के प्रभाव में थी, किंतु पेरियार का निर्णय अटल था। वे स्वयं को गांधी और कांग्रेस की छाया से बाहर लाने के लिए तैयार कर चुके थे। आंदोलन तेजी से आगे बढ़ने लगा। जेल से रिहा होने के बावजूद पेरियार का जोश और समर्थन पहले जैसा ही था। न ही उनके भाषणों में किसी तरह का परिवर्तन आया था। यह एक तरह से सत्ता को चुनौती जैसा था। उत्तेजक भाषणों और वायकोम छोड़ने के सरकारी आदेश का पालन न करने के कारण, इस बार उन्हें छह महीने की सजा सुनाई गई।

अंततः गांधी को भी वायकोम सत्याग्रहियों के समर्थन में आना पड़ा। यंग इंडिया में उन्होंने लिखा,

“यदि ब्राह्मणों ने अछूतों को सड़कों पर चलने की आजादी नहीं दी तो यह आंदोलन दिनों-दिन उग्र होता जाएगा। अभी तक सड़कों पर चलने की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे आंदोलनकारी आगे मंदिर प्रवेश की स्वतंत्रता की मांग भी करने लगेंगे।”

इधर, आंदोलन के दौरान जब पेरियार को गिरफ्तार कर लिया गया तो उसकी बागडोर उनकी पत्नी नागम्मल और बहन ने संभाल ली। दूसरी बार जब वे जेल में थे तो त्रावणकोर के राजा की मृत्यु हो गई। राज्य की सत्ता महारानी के हाथों में आ गई। राजा की आकस्मिक मौत से डरी रानी किसी भी तरह वायकोम आंदोलन को समाप्त देखना चाहती थीं। उनके आदेश पर पेरियार को सजा पूरी होने से दो महीने पहले ही रिहा कर दिया गया। रानी के आदेश पर दीवान ने गांधी से संपर्क किया। गांधी मद्रास पहुंचे। पेरियार और उनकी बातचीत हुई। अंततः एक फैसले के तहत सरकार ने दलितों को सड़कों पर चलने की स्वतंत्रता बहाल कर दी। वायकोम सत्याग्रह ने दर्शा दिया कि हर बड़ा परिवर्तन संघर्ष की कोख से जन्म लेता है। खासकर अधिकारों की लड़ाई, वह तो बिना संघर्ष और एकजुटता के संभव ही नहीं है।

वायकोम सत्याग्रह दीर्घकालिक संघर्ष का एक महत्वपूर्ण पड़ाव

प्रो. दिलीप मंडल लिखते है कि सवाल उठता है कि क्या वायकोम सत्याग्रह ने अपने सारे लक्ष्य पूरे कर लिए? इसका जवाब हां और न दोनों हो सकता है. इस तरह के देश भर में चले सैकड़ों आंदोलनों की वजह से मंदिर प्रवेश में होने वाली छुआछूत काफी हद तक कम या खत्म हो चुकी है. आज शायद ही कोई प्रमुख मंदिर मिलेगा, जहां जाति के आधार पर किसी हिंदू को सीधे तौर पर प्रवेश न करने दिया जाता हो, बेशक गर्भगृह में प्रवेश पर कई जगह पाबंदी लागू हो. लेकिन वायकोम आंदोलन का विराट लक्ष्य अगर समाज में समता लाना और खासकर अवसरों की समानता सुनिश्चित करना था, तो वह लक्ष्य अभी अधूरा है.

इस संदर्भ में मेरा सुझाव है कि हिंदुओं की वंचित और शोषित जातियों को अब मंदिर प्रवेश का आंदोलन बंद कर देना चाहिए. बल्कि इसकी जगह उनका ध्यान सत्ता और संपत्ति के उन स्रोतों की तरफ जाना चाहिए, जहां वे या तो गायब हैं या बेहद कम संख्या में हैं.

वायकोम समेत तमाम मंदिर प्रवेश आंदोलनों की एक बड़ी समस्या ये रही कि इन आंदोलनों ने खुद को मंदिर जाने और पूजा पाठ करने की मांग तक खुद को सीमित रखा. तमिलनाडु को छोड़कर कहीं भी इन आंदोलनों ने सभी जातियों से पुजारी बनाने या मंदिर के संचालन में हिस्सेदारी लेने की मांग नहीं की. 1924-25 में तो इस मांग के बारे में शायद सोचा भी नहीं जा रहा होगा. हिस्सेदारी का सवाल तब मंदिर प्रवेश तक ही सीमित था.

अब अगर मंदिर प्रवेश की कोई मांग होती है तो उसमें मंदिर कमेटियों और ट्रस्ट आदि में हिस्सेदारी और पुजारी बनने के अधिकार की मांग को जोड़ देना चाहिए. वरना ये दान-दक्षिणा देने के अधिकार तक सीमित रह जाएगा. ऐसा भी नहीं है कि मंदिरों में भेदभाव पूरी तरह खत्म हो गया है. खासकर पुजारी बनने के सवाल पर हिंदू समाज अब भी पुरानी लीक से हटने के लिए तैयार नहीं है. सबरीमाला मंदिर में पुजारी नियुक्ति के विवाद में ये बात फिर से सामने आई है.

तमिलनाडु सरकार ने इस दिशा में क्रांतिकारी काम किया है. वहां जिन मंदिरों के संचालन में सरकार की भूमिका है ऐसे मंदिरों में सभी जातियों और यहां तक कि महिलाओं को भी पुजारी यानी अर्चक बनाने का काम शुरू हो गया है. इसके लिए बाकायदा पठन-पाठन और परीक्षा लेने का प्रावधान किया गया है. इससे मंदिर लोकतांत्रिक बनेंगे. इस कदम का शुरुआत में विरोध हुआ, पर अब सभी दल और पक्ष इसका समर्थन कर चुके हैं.

मंदिरों को लेकर मसले खत्म नहीं हुए हैं, लेकिन मेरा तर्क है कि वंचित जातियों को अब धर्म सत्ता के अलावा अर्थ सत्ता और ज्ञान सत्ता के केंद्रों में विविधता के लिए प्रयास तेज करने चाहिए ताकि ये संस्थाएं भी लोकतांत्रिक बन सकें.

ये सही है कि धर्म की मानव जीवन में प्रमुख भूमिका है. ज्यादातर लोगों के लिए ये जरूरी चीज है. लेकिन ये अकेला क्षेत्र नहीं है, जहां वंचित जातियों की उपस्थिति चाहिए. कॉरपोर्ट, कला-संस्कृति-फिल्म, उच्च न्यायपालिका जैसे क्षेत्रों में अब तक डायवर्सिटी की मांग ठोस रूप में सामने नहीं आई है. ये सत्ता के नए मंदिर हैं, जहां प्रवेश करने की सख्त जरूरत है.

संदर्भ-

  • फारवर्ड प्रेस-(वायकोम सत्याग्रह रू जातिवाद और छूआछूत के खिलाफ स्वतंःस्फूर्त अहिंसक मुक्ति-संग्राम ओमप्रकाश कश्यप मार्च 31, 2020)

  • ई. एस. विश्वनाथन, दि पोलिटिकल कैरियर ऑफ ई.वी. रामासामी नायकर, पृष्ठ-46

  • द प्रिंट (मंदिर-प्रवेश का आंदोलन बहुत हुआ, अब ज्ञान-संस्कृति, न्याय और संपत्ति के मंदिरों में प्रवेश करने की जरूरत-प्रो दिलीप मंडल, 1 अप्रेल 2023)

  • स्टडी 91 (वॉयकाम सत्याग्रह गांधीजी ने केरल में क्यों प्रारम्भ किया)

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