कूड़ा बीनने से लेकर गृह मंत्रालय में बी-ग्रेड नौकरी तक का सफर, रमेश ‘भंगी’ के संघर्ष की प्रेरणादायी कहानी…

त्रिलोकपुरी की झुग्गी में
त्रिलोकपुरी की झुग्गी में
Published on

"शिक्षा उस शेरनी का दूध है जो पियेगा वह दहाड़ेगा" इस कथन को दिल्ली के रमेश भंगी ने अपने संघर्षों से सच कर दिखाया है। उन्होंने अपनी जाति के दंश को पीछे छोड़ते हुए शिक्षा के दम पर हर उस मुकाम को हासिल किया है, जिसे लोग पाने के इच्छा रखते हैं। तो चलिए आज आपको रमेश भंगी से मिलते हैं। जिन्होंने बाबा साहब को अपनी प्रेरणा मानते हुए अपने जीवन में हर मुकाम को हासिल किया है। द मूकनायक की टीम ने रमेश भंगी से उनके संघर्ष के बारे में बातचीत की है।

सूअर चराया और पढ़ाई भी की

द मूकनायक के साथ बातचीत में रमेश भंगी बताते हैं, "एक भंगी परिवार में जन्म लेने के बाद भी हमारा जीवन भी वैसा ही था, जैसा अन्य भंगी समुदाय के लोगों का होता है। सूअर चराना, कूड़ा बीनना और गरीबी में जीवनयापन।"

लेकिन उन्होंने इन सारी चीजों को साथ लेते हुए शिक्षा की शुरुआत की। अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए वह कहते हैं कि, बहुत गरीबी थी कर्ज में डूबे थे मेरे पिताजी। कर्ज इतना था कि दिल्ली में आकर नौकरी करने के बाद भी मैं कई सालों तक उस कर्ज को भरता रहा और अब जाकर उससे छुटकारा मिला।

रमेश ने अपने प्राथमिक शिक्षा गांव के स्कूल से ही हासिल की। वह बताते हैं कि, "क्लास छह में पढ़ते हुए मैंने बाबा साहब को पढ़ा। यही से मुझे पढ़ने के प्रेरणा मिली। मैंने छोटी-छोटी बुकलेट में बाबा साहब के बारे में सबकुछ पढ़ा। तब मेरे जीवन में यह ख्याल आया कि अगर बाबा साहब उस समय में इतने कष्टों के बाद भी इतनी शिक्षा हासिल कर सकते हैं तो मैं क्यों नहीं। वहीं से मेरे अंदर पढ़ाई के लिए ललक बढ़ती रही। मैंने गांव से दसवीं पास करने के बाद शहर के एक कॉलेज में एडमिशन लिया। पढ़ाई का सिलसिला चलता रहा।"

बिना रीति-रिवाज के शादी की

इसी दौरान वह बागपत से दिल्ली आ गए। यहां आने के बाद साल 1979 में उनकी शादी हो गई। रमेश बताते हैं कि, शादी को दौरान भी मेरे पास बहुत पैसे नहीं थे। मैं जहां काम करता था। उसी मालिक ने मुझे कुछ पैसे दिए थे। लेकिन घर में इतनी गरीबी और कर्ज था कि मुझे शादी में फालतू पैसे खर्च करने की इच्छा नहीं हुई। इसलिए मैंने सोचा एक बार और कर्ज लेकर लोगों के सामने झूठा दिखावा क्यों।

"हम दिल्ली की झुग्गियों में रहते हैं, कागज बीनते हैं। ऐसे में क्यों करना जिससे हमारे ऊपर और कर्ज बढ़े। इसलिए मैंने अपनी शादी में न तो मेंहदी लगवाई न ही संगीत का कोई कार्यक्रम करने दिया," रमेश ने बताया।

हर इंसान की तरह रमेश भंगी की शादी के बाद भी उनके जीवन में कई तरह के बदलाव आएं। वह बताते हैं कि वह अपनी पत्नी के साथ त्रिलोकपुरी की झुग्गियों में रहते थे। दिन में कागज बीनते थे और रात में पढ़ते थे। यहां तक की कभी-कभी मेरठ की तरफ न्यूजपेपर भी देने जाते थे। लेकिन वहां से अपने घर नहीं जाते थे बल्कि वापस दिल्ली आ जाते थे ताकि समय बचे तो वह पढ़ लें। पढ़ाई और नौकरी का सिलसिला ऐसे ही चलता रहा।

डीटीसी में की नौकरी

कागज बीनने का काम छोड़ 80 के दशक में डीटीसी में उनकी नौकरी लग गई। यहां इन्होंने लगभग 11 साल तक नौकरी की। इस दौरान भी पढ़ाई को लेकर ललक कम नहीं हुई। रमेश बताते हैं कि वह डीटीसी की नौकरी खत्म होने के बाद लाइब्रेरी चले जाते। यही से डिस्टेनस एजुकेशन से एमए भी की। इसके साथ ही केंद्रीय हिंदी संस्थान में ट्रांसलेसन का कोर्स किया और उसका टेस्ट का पास किया। इसी दौरान साल 1989 में ट्रांसलेसन के लिए एसएससी का फॉर्म भरा और 1993 में सरकारी जॉब मिली।

रमेश बताते है कि यह नौकरी मुझे आरक्षण के कारण मिली है अगर आरक्षण नहीं होता तो मुझे नौकरी कभी नहीं पाती। मेरी उम्र भी नौकरी के हिसाब से खत्म होने वाली थी सिर्फ दो महीने ही बाकी थे। आरक्षण की बात करते हुए वह कहते हैं कि अभी तक आरक्षण सही तरीके से लागू भी नहीं हो पाया है। और अगर यह नहीं होता तो हमारे समाज के लोगों को कौन आगे आने देगा। हमारी जाति के नाम पर तो गलियां दी जाती हैं। हमें तुच्छ नजर से देखा जाता है। ऐसे में नौकरी की कल्पना करना तो बेकार है।

शहरी लोगों के दिमाग में बसा है जातिवाद

शहरों और गांव में जातिवाद के अंतर को बताते हुए वह कहते हैं कि, "गांव में लोगों का जातिवाद खुलकर सबके सामने होता है। लेकिन शहरों में ऐसा नहीं है। यहां यह लोगों को दिमाग में भरी हुई है। खासकर नौकरी में।"

एक वाकिये का याद करते हुए वह कहते हैं कि, गृह मंत्रालय में मैं अनुवादक का काम करता था। मेरे साथ सवर्ण साथियों की बातचीत थी। लेकिन वह कभी हमें आगे आते हुए नहीं देख सकते थे। उनके लिए मेरी जाति ही सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण थी। वह इस बात के बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि कैसे एक कागज बीनने वाला शख्स हमारे साथ मंत्रालय में नौकरी कर सकता है। मेरे प्रमोशन को लेकर हमेशा अडंगा लगाया जाता था। वह कहते हैं कि इन सारी चीजों में मेरे हौसले को कभी तोड़ा नहीं। एक अनुवादक के तौर पर मैंने लंबे समय तक नौकरी की और साल 2018 में रिटायर हो गया।

नाम के साथ लगाई अपनी जाति

नौकरी से रिटायर होने के बाद रमेश ने सहित्य की तरफ अपनी रुचि को बढाया और उनके कुछ लेख और कविताएं भी प्रकाशित हुई है । जिसमें देश में फैली जातिवाद का जिक्र किया है। अपने नाम के साथ भंगी लिखे जाने के बारे में वह कहते हैं कि लोग अपनी जाति को छुपाकर सोचते हैं कि वह बच जाएंगे। जबकि ऐसा नहीं है। भारत में किसी भी इंसान की पहचान उसकी जाति के बिना नहीं हो सकती है। रोज-रोज इसे छिपाकर मन में यह खौफ रखना कि किसी को पता चल गया तो क्या होगा के डर को दूर करने के जरुरत है। जिसे हमारी मनोवैज्ञानिक स्थिति ठीक रहें। इसलिए मैंने अपने नाम के पीछे भंगी लगाया है। ताकि लोगों को मेरी जाति के बारे में पता चलें। साथ ही हमारा समाज का भी प्रतिनिधित्व बढ़े।

Video Interview –

द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.

The Mooknayak - आवाज़ आपकी
www.themooknayak.com