लखनऊ.19वीं सदी के आधा समय बीत जाने पर भारत गुलामी की बेड़ियों की जकड़न को तोड़ने की कोशिश कर रहा था। इसी समय भारत में जातिगद भेदभाव की जकड़न का शिकार अस्पृश्य समाज, दोहरी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रहा था। वंचित अस्पृश्यों (अछूतों) ने इसी दोहरी स्वतंत्रता और अपनी सामाजिक स्वायत्तता की लड़ाई में भीमा कोरेगांव की लड़ाई में पेशवाओं के खिलाफ़ मोर्चा खोला था। अवध में 1857 के भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के दौरान अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ़ अपना बिगुल फूंका। गौरतलब है कि अवध में रहने वाले तमाम दलित स्थानीय प्रशासकों, किसानों व स्थानीय सामंतों की सेना में काम करने वाले सैनिकों ने अगले मोर्चे पर आकर इस लड़ाई में हिस्सा में लिया। रायबरेली के बीरा पासी, बाराबंकी के गंगाबक्श रावत राजा जय लाल एवं किसान विद्रोह में मदारी पासी महत्वपूर्ण नाम हैं।
1857 की क्रांति में लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह की सेना में सिपाही दंपति मक्का पासी व ऊदादेवी पासी का बलिदान अवध के स्वतंत्रता संग्राम के विद्रोह में दलितों की भूमिका को रेखांकित करता है। दरअसल ऊदा देवी पासी के पति मक्का पासी लखनऊ के नवाब वाजिद अली शाह की सेना में सिपाही थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने जब उत्तर भारत सहित अवध की तमाम रियासतों की निजी स्वतंत्रता को बाधित कर अपना प्रभाव बढ़ाना चाहा। उसी समय शुरू हुई 1857 की क्रांति की मशाल को अवध के स्थानीय शासकों ने थाम लिया। इसी दौरान नवंबर 1857 में लखनऊ के नवाब की सेना और ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच लखनऊ के चिनहट इलाके में भिड़ंत हुई जिसमें लखनऊ के नवाबों की सेना ने ईस्ट इंडिया कंपनी जिसका नेतृत्व हेनरी लॉरेंस कर रहे थे, को खदेड़ दिया। हालांकि इस लड़ाई में वीरांगना ऊदा देवी पासी के पति शहीद हो गए।
हार से बौखलायी कंपनी की सेना को पता चला कि इस्माइलगंज चिनहट में जिस सेना ने कम्पनी की फौज के छक्के उड़ाए हैं उन्हीं विद्रोहियों का बड़ा तबका लखनऊ के सिकंदराबाग में रुका हुआ है।
16 नवंबर 1857 के दिन सिकंदर बाग में करीब 2000 विद्रोही रुके थे। सैनिक जब निश्चिंत थे तभी कंपनी सेना के कोलिन कैम्पवेल ने कंपनी सेना सहित सिकंदरबाग को चौतरफा घेरकर हमला बोल दिया। इसे नवाब की सेना के हजारों सिपाही समझ नहीं पाए। इस अचानक हमले में सैकड़ों सिपाही मार दिए गए। अपने पति मक्का पासी और सिकंदरबाग में हुए हमले का बदला लेने के लिए साहसी वीरांगना ऊदादेवी जो कि अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम हजरत महल की निजी सेना में थीं। इन्होंने अपनी काबिलियत से बेगम हजरतमहल को विशेष प्रभावित किया था।
इन्होंने कंपनी पर सीधा हमला करने की रणनीति से इतर अपनी सूझबूझ व कौशल का इस्तेमाल किया। अपना भेष बदलकर पुरुष का भेष लिया और सिकंदरबाग में लगे पीपल के पेड़ पर आकर छिप गईं। यहां कंपनी के सैनिक पीपल के पेड़ के नीचे रखे घड़े में पानी पीने जाते थे, उसी पेड़ पर बैठकर ऊदा देवी ने अपने पास मौजूद 36 गोलियों से कूपर और लैम्डसन समेत 36 ईस्ट इंडिया कंपनी के सिपाहियों को मौत के घाट उतार दिया।
ऊदादेवी के पास गोलियां खत्म हो जाने पर वह मारी गईं। मारे जाने के उपरांत पुरुष वेश में रहीं वीरांगना ऊदादेवी को जब नजदीक से जाकर कोलिन कैम्पवेल ने देखा तो उसे ऊदादेवी के महिला होने के बारे में पता चला। इस पर लॉर्ड कैम्पवेल ने वीरांगना की वीरता से प्रभावित होकर वहीं पड़ी ऊदादेवी को सलाम किया।
इस घटना की तत्कालीन अंतरराष्ट्रीय जगत के देशों मे भी चर्चा हुई। लंदन टाइम्स के तात्कालीन संवाददाता विलियम हार्वर्ड रसेल ने सिकंदरबाग मे हुई लड़ाई का वृतांत जब लंदन भेजा। उसमें वीरांगना ऊदादेवी पासी का खास जिक्र करते हुए एक स्त्री द्वारा अंग्रेजी सेना को काफी नुकसान पहुंचाने की ख़बर थी।
हालांकि ऊदादेवी की शहादत को भारतीय समाज, मीडिया, राज्य ने कभी उतना सम्मान नहीं दिया जितना उनको मिलना चाहिए था। कुछ समय पहले उनकी पहचान अननोन विमेन के तौर पर की गयी थी।
16 नवंबर को ऊदादेवी के शहादत दिवस के रूप में मनाया जाता है।
नोट- ये लेख लखनऊ के मनोज पासवान ने द मूकनायक को भेजा है।
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