NCWL द्वारा भारत के 13 राज्यों में किए गए शोध पर आधारित एक नई रिपोर्ट प्रकाशित की गयी है, इस शोध में जाति-आधारित यौन हिंसा के मामलों के पर रिसर्च किया गया है। प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि ज्यादातर मामलों में, दलित महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ यौन हिंसा के अपराधी कथित अगड़ी जातियों के होते हैं।
"जाति-आधारित यौन हिंसा और राज्य दण्ड से मुक्ति" (कास्ट बेस्ड सेक्सुअल वायलेंस एंड स्टेट इम्प्यूनिटी) शीर्षक से प्रकाशित रिपोर्ट में यौन हिंसा से जुड़े 50 मामलों में से 36 अपराधियों की जाति का विवरण दिया गया है, जिसमे आठ अपराधी यादव और ओबीसी समुदायों से थे, चार राजपूत समुदाय से, तीन जाट और मुस्लिम समुदायों से, सिख समुदाय से दो और प्रजापति, मराठा, ब्राह्मण, वनिबा चेट्टियार, वन्नियार, गुप्ता, ठाकुर और गुर्जर जातियों से एक-एक।
62% मामलों में अगड़ी जाति के पुरुषों ने 18 साल से कम उम्र की दलित लड़कियों को निशाना बनाया है
"इस शोध में एक खतरनाक बात यह भी सामने आयी है कि आधे से अधिक मामलों (62%) में अगड़ी जाति समूहों के पुरुषों और लड़कों ने 18 साल से कम उम्र की दलित लड़कियों को निशाना बनाया है", इस शोध में बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, केरल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, तमिलनाडु, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड राज्य शामिल है।
रिपोर्ट में जिन 50 मामलों की जांच की गई है वे 2015 और 2021 के बीच सात वर्षों की अवधि में हुई यौन हिंसा की घटनाओं पर आधारित हैं। इनमें से 32 पिछले तीन वर्षों के हैं।
यौन हिंसा के अधिकतर मामलों में दर्ज नहीं हो पाता है FIR
2020 के उत्तर प्रदेश के हाथरस बलात्कार के बाद हत्या मामले और 2021 की नौ वर्षीय दलित लड़की के दिल्ली छावनी बलात्कार मामले का हवाला देते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि "यौन हिंसा का इस्तेमाल प्रमुख पदों पर रहने वालों द्वारा एक हथियार के रूप में किया जा रहा है।
2020 के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों के अनुसार देश में हर दिन लगभग 10 दलित महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार किया जाता है जबकि रिपोर्ट में ये दावा किया गया है कि आधिकारिक आंकड़ों में केवल उन्हीं मामलों को शामिल किया जाता है जहाँ पीड़िता शिकायत (FIR) दर्ज करवा पाती है जबकि अधिकतर मामलों में एफआईआर ही दर्ज नहीं हो पाता है।
केवल 1% मामलों में ही यौन हिंसा के अपराधियों को मिल पाती है सजा
इस रिपोर्ट में राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान (एनसीडीएचआर) द्वारा 2006 में किए गए दलित महिला स्पीक आउट नामक एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहा गया है कि 500 दलित महिलाओं के साथ उत्पीड़न मामले में केवल तीन में अपराधियों को सजा मिली थी यानी हिंसा के कुल मामलों के 1% से भी कम मामलों में अपराधियों को सजा मिल पाती है।
रिपोर्ट में जिन 50 मामलों का विश्लेषण किया गया है, वास्तव में, यह सुझाव देते हैं कि "जनता, सरकारी अधिकारियों और अदालतों द्वारा जाति-आधारित अत्याचारों की प्रकृति को अब भी अनदेखा किया जा रहा है, जैसा कि पहले था।"
पुलिस बल में आज भी दलित महिला पुलिसकर्मियों की संख्या नगण्य
रिपोर्ट में बताया गया है कि "राष्ट्रीय स्तर पर, औसतन केवल 10% पुलिस बल में महिलाएं हैं, सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में अनुसूचित जाति (एससी) उम्मीदवारों के लिए पुलिस बल में आरक्षित कोटा है। हालांकि, केवल आठ राज्य और केंद्र शासित प्रदेश अपने एससी कांस्टेबल कोटे से मिलते हैं।"
इसके अलावा, रिपोर्ट में शामिल किए गए 13 राज्यों में से, "मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की स्थिति सबसे खराब हैं, जहाँ क्रमशः केवल 56% और 59% आरक्षित पदों को भरा गया है। न्यायपालिका के संबंध में, उच्च न्यायालयों में केवल 13% न्यायाधीश महिलाएं हैं, जबकि अधीनस्थ न्यायालयों में केवल 30% न्यायाधीश महिलाएं हैं। आजादी के बाद से, सर्वोच्च न्यायालय में केवल छह दलित न्यायाधीश नियुक्त हुए हैं, जिनमें से केवल एक दलित ने अब तक मुख्य न्यायाधीश का पद संभाला है।"
8.5 फीसद मामलों में दलितों के खिलाफ होने वाले अत्याचार को झूठा बताकर कर पुलिस कर देती है खारिज
एनसीआरबी के आंकड़ों से यह भी पता चलता है कि 2020 में दलितों के खिलाफ अत्याचार के लगभग 8.51% मामलों को पुलिस झूठ बताकर खारिज कर देती है। रिपोर्ट में कहा गया है, हरियाणा और राजस्थान में, दलितों के खिलाफ अत्याचार के 37.2% और 36.9% मामलों को पुलिस ने झूठा करार दिया था। ये आंकड़े बताते हैं कि हरियाणा और राजस्थान में बड़ी संख्या में मामले छूट रहे हैं।"
रिपोर्ट में बताया गया है कि राष्ट्रीय स्तर पर भी, बड़ी संख्या में मामले सुनवाई के लिए लंबित हैं। एनसीआरबी के आंकड़ों के आंकड़ो को हवाला देते हुए बताया गया है कि 2020 के अंत तक बलात्कार के 1,59,660 मामले लंबित थे। दलित महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ बलात्कार के मामले (वर्ष के अंत में अदालतों में लंबित मामले) 96.3% थे।
रिपोर्ट में बताया गया है कि जिन 50 मामलों का अध्ययन किया गया उनमें से 37 मामलों में, पीड़ितों या पीड़ितों के परिवारों को आरोपी, उनके परिवार या समुदाय के अन्य सदस्यों से धमकियां मिलीं और उन पर शिकायत न करने या मामले को वापस लेने या समझौता करने का दबाव डाला गया। दो अन्य मामलों में, जवाब देने वालों ने बताया की उनपर समझौता करने का अप्रत्यक्ष दबाव था।
इसमें बताया गया है कि इन 39 मामलों में से पीड़ित के परिवार ने पुलिस या अदालत के समक्ष अपना बयान बदलने और आपराधिक मामले में सहयोग करना बंद करने पर सहमति व्यक्त की।
देश में महिलाओं की सुरक्षा और सुरक्षा बढ़ाने के उद्देश्य से पहल के कार्यान्वयन के लिए भारत सरकार द्वारा स्थापित निर्भया फंड का जिक्र करते हुए बताया गया है की "जुलाई 2021 तक निर्भया फंड को आवंटित कुल धन का केवल 46.21% खर्च किया गया है।"
31% मामलों में पीड़िता के परिजनों को नहीं मिल पाता है मुआवजा
यौन हिंसा के पीड़ित या उनके परिवार बलात्कार के अपराध के साथ-साथ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण (पीओए) अधिनियम के तहत दर्ज अपराधों के लिए मुआवजे के अधिकार के हकदार हैं। पीड़िता एवं बलात्कार से बचे लोगों को न्यूनतम मुआवजा 5,00,000 रुपये और सामूहिक बलात्कार के पीड़ितों को 8,25,000 रुपये है। इसमें से 50% मेडिकल जांच और पुष्टिकरण मेडिकल रिपोर्ट के बाद, 25% चार्जशीट दाखिल करने के बाद और 25% निचली अदालत द्वारा ट्रायल के समापन पर देय है। हालांकि, रिपोर्ट में कहा गया है की अधिकांश धन का उपयोग अक्सर अभियोजन पक्ष का समर्थन करने के लिए निजी वकीलों को भुगतान करने के लिए और पीड़ित या उसके परिवार के लिए अदालती कार्यवाही में भाग लेने के लिए यात्रा की लागत को कवर करने के लिए किया जाता है। कुछ में उदाहरण के लिए, पैसे का उपयोग पीड़िता के चिकित्सा उपचार के लिए किया गया है।"
रिपोर्ट में बताया गया है कि पीड़िता एवं उनके परिजनों का कानूनी अधिकार होने के बावजूद 31% मामलों में मुआवजा नहीं मिल पाता है।
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