डोम समुदाय सीरीज 2: विश्वगुरू के स्वप्न देखने वाले देश में चिता से बची लकड़ी पर पकता है खाना

चिता से बची हुई लकड़ियों से भोजन बनाते डोम समाज के लोग, वाराणसी, उत्तर प्रदेश [फोटो- सत्य प्रकाश भारती, द मूकनायक]
चिता से बची हुई लकड़ियों से भोजन बनाते डोम समाज के लोग, वाराणसी, उत्तर प्रदेश [फोटो- सत्य प्रकाश भारती, द मूकनायक]
Published on

उत्तर प्रदेश। यूपी के वाराणसी में 'डोम' समाज आज के इस आधुनिक भारत मे पुरानी मान्यताओं से बाहर नहीं निकल पा रहा है। इसका मुख्य कारण अशिक्षा और जागरूक की कमी होना माना जा सकता है। आपके मन में यह सवाल जरूर उठ सकता है कि — अन्य समुदाय को छोड़कर यह दलित समाज ही क्यों ऐसा करने पर मजबूर है? जबकि उज्ज्वला जैसी योजनाओं के जरिये घर-घर खाना पकाने के लिए घरेलू गैस सिलेंडर कनेक्शन दिए जा रहे हैं। शिक्षा से दूरी होने के कारण यह समाज आज भी प्राचीन मान्यताओं और लिखित कहानियों के आधार पर ही जिंदगी जीने पर मजबूर है। यह समाज भी अपने आप इन्हीं कुरीतियों में जकड़ा हुआ पाता है। इस एक कारण यह भी है कि, यह समाज आरक्षण का लाभ भी नहीं उठा सका है। यह सब तब है जब वाराणसी, देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है।

यूपी का वाराणसी अपने आप मे कई पौराणिक कथाओं और इतिहास को समेटे हुए है। इनमें एक इतिहास हिन्दू धर्म में सबसे निचले पायदान पर सूचीबद्ध किए गए अनुसूचित जाति के लोगों का भी है। इस समाज के लोग बीते सैकड़ो वर्षों से हिन्दू धर्म के लोगों का मृत्यु के उपरांत उनके दाह-संस्कार का काम करते आ रहे हैं। इस समाज को वाराणसी में "डोम" के नाम से जाना जाता है। द मूकनायक की ग्राउंड पड़ताल में इनके काम को लेकर इन्हें अछूत और अस्पृश्यता का भी सामना करना पड़ रहा है। एक दशक पहले तो इस समाज के लोगों के हाथ से लोग पानी तक पीना पसन्द नहीं करते थे। इसके साथ ही इन्हें कोई पानी भी नहीं पिलाता था।

उज्ज्वला योजना के बावजूद लकड़ी पर खाना बना रहा डोम समाज

पर्यावरण की दृष्टि से लगातार पेड़ों की कटाई को रोकने के साथ ही जनता में जागरूकता और कम समय मे खाना बनाने के लिए उज्ज्वला योजना की शुरुआत की गई। गांव के प्रत्येक घर को इस योजना से जोड़ा गया। लेकिन डोम समाज आज भी चिता से बची लकड़ियों पर खाना बना रहा है।

स्कूल में बच्चों के साथ होता है भेदभाव

इस समाज के बच्चों के साथ शिक्षा में भी भेदभाव किया जाता है। आधुनिक समय में भले ही इसमें कमी आई है, लेकिन जातीय भेदभाव के सबूत आज भी मौजूद हैं। आज भी डोम समाज से आने वाले बच्चे उच्च शिक्षा प्राप्त कर पाने में असक्षम हैं।

आसान नहीं है डोम होना

डोम का काम अंतिम संस्कार की प्रक्रिया को सम्पन्न कराना है। उनका समय सिर्फ लाशों के साथ बीतता है। लाश अपने आप में ही एक नकारात्मक चीज है। ऐसे में इसके साथ दिनभर रहना बेहद मुश्किल है। साथ ही, इन्हें ये सुनिश्चित करना होता है कि लाश का हर एक अंग पूरी तरह जल गया हो। कई बार अधजले अंगों को अपने हाथ से ठीक जगह रख पूरा जलाया जाता है। डोम लोग आग के साथ काम करते हैं। ऐसे में उनके लिए काम करते हुए जलना बहुत आम है।

बेहद पिछड़ा हुआ समाज है "डोम"

डोम समुदाय सामाजिक रूप से बेहद पिछड़ा हुआ है। अनुसूचित जाति में आने के बावजूद ये आरक्षण का कोई लाभ नहीं उठा पाते। डोम समुदाय को समाज में अभी भी अस्पृश्य या अछूत समझा जाता है। ऐसे में अगर इनके बच्चे स्कूल जाते हैं, तो उन्हें बाकी बच्चों से अलग बिठाया जाता है। उनके पानी-पीने, खाना-खाने के अलग बर्तन होते हैं। डोम लोगों को ऐसे सामाजिक भेदभाव का सामना रोज करना पड़ता है। शिक्षा ना मिल पाने की वजह से इनके सामाजिक स्तर में कोई सुधार नहीं हो पा रहा है। हालांकि लोगों में अब कुछ बदलाव आया है।

नशा करना आम बात?

डोम लोगों का शराब और गांजा पीना बेहद आम है। इनका मानना होता है कि बिना नशा किए ये अपना काम नहीं कर सकते। स्थिर दिमाग के साथ लाशों के साथ रहना संभव नहीं है। ऐेसे में यह नशा कर अपने आप को मानसिक अचेतना की स्थिति में रखकर अपना काम करते हैं। जबकि घर की महिलाएं बस घर का काम करती हैं।

इससे यह साफ स्पष्ट होता है कि अगर इस समाज में इस आधुनिकता के दौर में शिक्षा और जागरूकता की अलख सरकारी प्रयासों से जगाई जाए तो इस समाज की दशा और दिशा दोनो बदल सकती है।

द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.

The Mooknayak - आवाज़ आपकी
www.themooknayak.com