देवदासी प्रथा: दलित-आदिवासी महिलाएं ही बनती हैं कुप्रथा का आसान शिकार, शिक्षा के अभाव में आर्थिक-सामाजिक स्थिति दयनीय

देवदासी प्रथा: दलित-आदिवासी महिलाएं ही बनती हैं कुप्रथा का आसान शिकार, शिक्षा के अभाव में आर्थिक-सामाजिक स्थिति दयनीय
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नई दिल्ली। देवदासी प्रथा को लेकर यह हमारी तीसरी स्टोरी है, जिसमें आज हम आपको देवदासियों की जाति, उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के बारे में बताने जा रहे हैं। आखिर देवदासी आज 21वीं सदीं में भी ऐसी स्थिति में क्यों रहने को मजबूर हैं। पीपल्स यूनियन फॉर सिविल लिबरेशन के नेशनल सेक्रेटरी और बंगलूरु के सेंट जोसेफ यूनिवर्सिटी के सोशल वर्क के प्रोफेसर वाईजे राजेंद्रा से इस बारे में द मूकनायक की टीम ने बातचीत की है। राजेंद्रा देवदासियों के लिए लगातार काम भी कर रहे हैं। इसलिए वह इनके आर्थिक सामजिक जीवन के बारे में बहुत करीब से जानते हैं।

मदीगा जाति की सबसे ज्यादा देवदासियां

द मूकनायक से बातचीत करते हुए उन्होंने बताया कि देवदासी प्रथा में जाति व्यवस्था का एक अहम रोल है। आधुनिक युग में तो इसका जातिगत चेहरा सबके सामने आ गया है। वह एनएचआरसी की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहते हैं कि यह एक सराहनीय कदम है। लेकिन राज्य सरकार को भेजी गई नोटिस पर आयोग कितना कामयाब हो पाया है, यह देखने वाली बात है।

देवदासियों का जिक्र करते हुए वह बताते हैं कि इसमें लगभग 95 प्रतिशत दलित और 5 प्रतिशत आदिवासी होती हैं। वह बताते हैं कि इनमें शिक्षा का बहुत अभाव रहता है, जिसके कारण आज भी लोग अंधविश्वास में जी रहे हैं।

जातियों का जिक्र करते हुए उन्होंने बताया कि देवदासियां मुख्य रूप से मदीगा, नायका और चल्वादी दलित जातियों की होती हैं। इनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति ठीक नहीं होती है। यह कर्नाटक की उत्तरी हिस्से और महाराष्ट्र के दक्षिणी हिस्से के अलावा दक्षिण के राज्यों में पाई जाती है। इसी समुदाय की महिलाएं ही सबसे ज्यादा देवदासी होती है।

देवदासियों में शिक्षा का अभाव

वह बताते हैं कि इनके पास न तो अपनी जमीन होती है न ही कोई कारोबार। इसलिए यह ज्यादातर मजूदर ही होते हैं। यह देवदासियों के साथ भी होता है। वह बताते है कि लगभग 90 प्रतिशत देवदासियां पढ़ी लिखी नहीं होती है। इसलिए उन्हें काम भी नहीं मिलता है। यहां तक की इनके बच्चे भी कम पढ़े लिखे होते हैं। कुछ पढ़ने-लिखने स्कूल जाते भी हैं तो उच्च शिक्षा तक नहीं पहुंच पाते हैं।

वह बताते हैं कि अशिक्षा का सीधा कनेक्शन आर्थिक तंगी से आता है, देवदासियां पढ़ी-लिखी नहीं होती है। इसलिए या तो वह मजदूरी करती हैं या फिर सेक्स वर्क। जब हमने उनसे पूछा कि क्या सारी देवदासियां देवदासियां सेक्स वर्क करती हैं, इसका जबाव देते उन्होंने कहा कि यह कहना एकदम गलत है कि सभी देवदासियां सेक्स वर्क करके अपना भरण पोषण करती हैं। वह बताते हैं कि लगभग 30 से 40 प्रतिशत देवदासियां ही इस धंधे से जुड़ती हैं। बाकी आज भी खेतों में मजदूरी करती हैं। ताकि अपने जीवन को चला सकें।

बच्चे भी छोड़ देते हैं साथ

वह बताते हैं कि देवदासियों का जीवन अपने परिवार से पूरी तरह से कट जाता है। कई परिवार ऐसे हैं जिन्होंने धार्मिक मान्यताओं के कारण अपनी बेटियों को देवदासी बना दिया। उसके बाद उनसे पूरी तरह से नाता तोड़ दिया। यहां तक की उनकी प्रॉपर्टी का हिस्सा भी नहीं देते हैं। कई बार तो देखने में आता है कि बुढ़ापे में उनके बच्चे भी उन्हें नहीं पूछते हैं,दवह भी छोड़कर चले जाते हैं। ऐसा ज्यादातर लड़के करते हैं।

जबकि देवदासियों की लड़कियों की जिंदगी भी उनके ही तरह कठिन परिस्थितियों से गुजरती है। शिक्षा का अभाव रहने के कारण उन्हें काम तो मिल नहीं पाता है। दूसरा देवदासी की बेटी होने पर भी कई बार कलंक की दृष्टि से देखा जाता है। हमने इस पर समझ बनाने के लिए प्रोफेसर राजेंद्रा से पूछा कि देवदासियों के बेटियों की शादी कैसी होती है। क्या उनके बच्चों को लोग स्वीकार करते हैैं। इसका जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि हां शादियों तो हो जाती हैं, लेकिन वह टिकती नहीं हैं।

वह बताते हैं कि कई बार रिश्तेदार बिना बताएं शादी कर देते हैं। यह शादी भी अन्य शादियों की तरह ही होती है। लेकिन जैसे ही लड़केवालों को पता चलता है कि वह देवदासी की बेटी है तो लोग शादी तोड़ देते हैं। बहुत कम ही लोग होते हैं जो इनके बच्चों को स्वीकार कर पाते हैं। इसलिए कई बार ऐसा देखने में आता है कि एक देवदासी अपनी बेटी को भी देवदासी बना देती है।

दैनिक भास्कर की देवदासी पर की गई रिपोर्ट में भी इस बात का जिक्र है, जिसमें एक देवदासी ने अपनी बेटी को इसलिए देवी बना दिया क्योंकि उसे लगता था कि उसकी बेटी मानसिक रुप से थोड़ी कमजोर है और कोई उसके साथ नहीं रहेगा इसलिए उसे देवदासी बना दिया।

1500 पेंशन से नहीं हो पाता गुजारा

देवदासियों की आर्थिक स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं कि सरकार द्वारा रजिस्टर देवदासियांे को 1500 रुपए पेंशन मिलती है। इतने में गुजारा करना मुश्किल है। ऐसे में दूसरा काम करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता है। इसलिए ज्यादातर देवदासियों देह व्यापार का रुख कर लेती हैं। चूंकि इसमें कम समय में ठीकठाक पैसे मिल जाते हैं।

वह बताते हैं कि सामाजिक तौर पर तो देवदिसयां अकेली होती ही हैं लेकिन मानसिक रूप् से भी यह अपने आप को अकेला महसूस करती हैं। वह बताते है उनका कोई एक साथी नहीं होता है। देवता के साथ विवाह हो जाने के बाद वह अकेली ही रहती हैं यौन हिंसा का शिकार भी होती हैं। यहां तक की इनके बच्चे भी इन्हें अच्छा नहीं कहते हैं। जिसके कारण इनका जीवन मानसिक तौर पर अकेला और कष्टदायक होता है।

बीमा कार्ड बना पाने में असमर्थ

देवदासियों की शारीरिक स्थिति का जिक्र करते हुए प्रोफेसर बताते हैं कि कई बार बीमार पड़ जाने के बाद यह अपना अच्छे से इलाज भी नहीं करा पाती हैं। प्रधानमंत्री स्वास्थ्य बीमा योजना द्वारा इन्हें स्वास्थ्य लाभ मिलता है। लेकिन यह उन्हीं देवदासियों को मिलता है जिनका रजिस्ट्रेशन हुआ है। वह बताते हैं कि ज्यादातर देवदासियां अशिक्षित हैं। उन्हें यही नहीं पता होता है कि उन्हें किस अधिकारी के पास जाना है। शिक्षा के अभाव के कारण स्वास्थ्य बीमा लाभ नहीं ले पाती हैं और शारीरिक बीमारियों को भी झेलती हैं।

मंदिरों के बाहर अवैध रूप से हो रहा हैं काम

आपको बता दें कि साल 1982 में कर्नाटक और 1988 में आंध्रप्रदेश की सरकार ने इस कुप्रथा को पूरी तरह से बंद कर दिया था, लेकिन आज 40 सालों बाद भी यह देवदासी बनने की प्रक्रिया बदस्तूर जारी है। इस बार हमने प्रोफेसर से पूछा कि राज्य सरकारों ने इसे पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया है। फिर भी आजतक देवदासी प्रथा कैसी जिंदा हैं।

एक लंबी सांस लेते हुए वह कहते हैं कि कानून बनना और समाज में उसको स्वीकार करना दोनों बहुत ही अलग-अलग चीजें हैं। वह बताते हैं कि यह सच है कि कानून बन गया है और मंदिरों में देवदासी बनने की प्रक्रिया बंद हो चुकी है। वह कहते है कि समय के अनुसार हर चीज में कुरीतियां आ जाती हैं। इसकी शुरुआत के दौरान इसे सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है। लोगों की इसमें आस्था थी। लेकिन अब इसमें कुरीतियां है, जिसमें कई गैंग जुड़े हुए हैं।

वह बताते हैं कि अब देवदासी बनाने की प्रक्रिया खुलेआम नहीं होती है न ही मंदिरों में इसकी प्रक्रिया सम्पन्न होती है।

इस गैंग में कुछ देवदासियां और मंदिर के पुजारी शामिल होते हैं। जो लोगों को पहले भगवान के प्रकोप और सुख समृद्धि का प्रलोभन दिखाते हैं। जब कोई तैयार हो जाता है तो मंदिर के बाहर कहीं विशेष जगह पर इसकी प्रक्रिया पूरी की जाती है। वह भी विशेष दिन पर।

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