कुछ महिलाएँ एक किनारें बैठ कर बतिया रही थी. दोपहर के लगभग दो बज रहे थे. इनमें कुछ खा कर बैठी थी तो कुछ खाने के लिए जा रही थी. जैसे ही द मूकनायक की टीम पहुँची उनमें से एक महिला थोड़ा सा खुश हो गई.
'अरे आप तो पहले भी आई थी ना, पिछले साल!'
मैंने जी कहा और वो अपने उसी घर में ले गई. पिछले साल भी उसकी सूरत वैसी ही थी जैसी आज है. हाँ साथ में पहले थोड़ी ज़्यादा जगह थी जहां अब किसी ने एक कमरा बना लिया है. वही झोपड़ीनुमा टेंट के बाहर चप्पलें बिखरी हुई, वहीं ईंट का चूल्हा और उसके पास सूखी लकड़ियों का ढेर, वही खाना बनाने के बर्तनों में चूल्हे के धुएँ से हुए काले बर्तन, वही अर्धनग्न बच्चे और वही हालात…! कुछ भी तो नहीं बदला था.
ये मंजर देखकर फिर एक बार अदम गोंडवी की ये चंद लाइन उस समय ज़हन में उतर आई.
आइये महसूस कीजिए ज़िंदगी के ताप को,
मैं चमारों की गली में ले चलूँगा आपको
जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी इक कुएँ में डूब कर
आइये महसूस कीजिए ज़िंदगी के ताप को…
यहाँ बात हो रही है प्रभादेवी की. प्रभादेवी सरभंग जाति से आती हैं, जो दलित जाति की एक उपजाति है. प्रभादेवी अपने नौ बच्चों के साथ बहादुरपुर गाँव में रहती है. बहादुरपुर गाँव पूर्वी चम्पारण ज़िले में आता है. ये वही चम्पारण है जिसे महात्मा गांधी की कर्मभूमि भी कहा जाता है और यहीं से गांधी ने आज़ादी के लिए साल 1917 में पहला आंदोलन यानि नील सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया था.
बहादुरपुर गांव का ये सरभंग टोला था. सरभंग जाति के अलावा यहाँ कुछ घर मुस्लिमों के थे. इनमें से कई और परिवार हैं जो भीख माँगकर अपना गुज़ारा करते हैं. प्रभादेवी भी भीख माँगती हैं, लेकिन प्रभादेवी इन सबसे थोड़ा अलग है. प्रभादेवी ने बताया कि इन नौ बच्चों को पालना मेरे लिए आसान नहीं. उनके पास कोई रोज़गार नहीं हैं.
वे कहती हैं, "मैं और क्या करूँ, बच्चों के पिता तो ना के बराबर हैं. कभी साल में आते भी हैं तो हमें मारते हैं और भाग जाते हैं. नौ-नौ बच्चे हैं किसी तरह माँगकर इनका पालन पोषण कर रही हूं."
देश-दुनिया कोविड-19 जैसी महामारी से जूझ रहे हैं. जब कोई किसी को छूनेभर से भी डर रहा था, घरों से बाहर निकलना भी मुश्किल था, यहाँ तक बाहर निकलने पर पुलिस के डंडे भी पड़ते थे. तब भी प्रभादेवी ने किसी तरह भीख माँगकर गुज़ारा किया. लेकिन अब देश और दुनिया में हालात थोड़े से बेहतर हो गए हैं. कोविड-19 की वैक्सीन ज़्यादातर लोगों को लग गई है, देश में अब बच्चों को वैक्सीन लगनी शुरू हो गई है. स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की सरकारी वेबसाइट पर दिखाया जा रहा है कि कुल टीकाकरण की संख्या 1,83,26,35,673 है. ये आँकड़ा मार्च, 2022 तक का दिखाया गया है.
लेकिन चौंकाने वाली बात ये है कि अरबों के इस नंबर में प्रभादेवी शामिल नहीं हो पाईं.
वे बताती हैं, "कोरोना का टीका नहीं लगा. गाँव में लगाने वाले आए थे लेकिन वो आधार कार्ड माँग रहे थे. मेरे पास है नहीं तो उन्होंने लगाने से मना कर दिया."
भीख माँगकर किसी तरह गुज़ारा करने वाली प्रभादेवी आज भीख माँगने नहीं जा पाई. उनकी एक बेटी की तबियत ख़राब थी जो घर (टेंट) में सो रही थी. प्रभादेवी के हालात इतने ख़राब थे कि उनके पास इलाज के पैसे नहीं थे. बीमारी में वो आसपास से कुछ लोगों से दवा के लिए दस-बीस रूपये उधार लेती हैं तो उसको दवा खिला पाती हैं.
प्रभादेवी ने बताया कि आसपास कोई ऐसा स्वास्थ्य केंद्र भी नहीं है जहां बच्ची का इलाज फ़्री में हो सके. वो और उनके बच्चे भीख माँगने नहीं गए तो उनके पास उस दिन खाने के लिए भी कुछ नहीं था. दोपहर के तीन बज चुके थे लेकिन वो और उनके बच्चे उस समय तक भूखे थे.
प्रभादेवी अपने नौ बच्चों के साथ जहां रहती हैं वो ज़मीन भी किसी और की है. वो ज़मीन ख़ाली थी इसलिए वो झोपड़ीनुमा टेंट डालकर अपने बच्चों के साथ वहाँ रहती है. प्लास्टिक का टेंट जो जगह-जगह से फटा हुआ है. जिसमें धूप भी छनकर आ जाती है, तेज़ बारिश में तो शायद ही कोई उसके अंदर सूखा बच पाता हो! इसमें भी लगातार ज़मीन का मालिक बार-बार आकर ज़मीन ख़ाली करने की धमकी देता है. लेकिन प्रभादेवी की दयनीय हालत देखकर कुछ दिन और मौहलत देकर चला जाता है.
प्रभादेवी के पास ना आधार कार्ड है, ना वोटर आई कार्ड, ना राशन कार्ड, ना बैंक अकाउंट. प्रभादेवी और उनके बच्चों के पास ऐसा कोई काग़ज़ नहीं जो ये साबित कर सके कि वो उस गाँव या इस देश की निवासी हैं. इस वजह से उनके बच्चों को स्कूल में भी दाख़िला नहीं मिला. प्रभादेवी ने बताया कि उन्होंने स्कूल में बच्चों को भेजने की कोशिश की थी लेकिन वहाँ भी सब काग़ज़ माँगते हैं जो मेरे पास है नहीं और इनके बिना वो दाख़िला देते नहीं.
प्रभादेवी के पास कोई सरकारी दस्तावेज अभी तक क्यों नहीं है ये जानने के लिए हम उनके वार्ड सदस्य (वार्ड नंबर 13) से लेकर गाँव के मुखिया तक गए.
वार्ड नंबर 13 के सदस्य ज़फीर मियाँ ने बताया कि प्रभादेवी इसी गाँव की बेटी है.
ज़फीर मियाँ ने ये भी बताया कि प्रभादेवी के ताल्लुक़ ससुराल में भी किसी से नहीं है. पति भी कभी आते हैं तो पीकर आते हैं और प्रभा और उनके बच्चों को मारने लगते हैं.
इसके बाद हम मुखिया के घर की और बढ़े जो पड़ोसी गाँव में रहते थे. जहां वो तो नहीं मिले लेकिन उनके परिवार के सदस्य ने बताया की वो बाज़ार में मिल जायेंगे.
गाँव के मुखिया का नाम सरबलाल साह है, जो एक दुकान में बैठे थे. उन्होंने बताया कि प्रभादेवी को वो जानते हैं जो 15 दिन पहले ही उनके पास आई थी.
साह कहते हैं, "वो मेरे पास काग़ज़ बनवाने की मदद माँगने आई थी. मैंने उन्हें कहा कि आप अपना आवासीय प्रमाणपत्र बनवाइए फिर इसके बाद आपका वोटर आई कार्ड भी बन जायेगा और उसी से आधार कार्ड भी बन जायेगा."
लेकिन प्रभादेवी के पास अपना घर और ज़मीन कुछ भी नहीं है, जो उन्होंने द मूकनायक को भी बताया था. ऐसे में सरबलाल साह से पूछा गया कि बिना घर और ज़मीन के आवासीय प्रमाण पत्र बनना कैसे संभव है?
वे बताते हैं कि मुझे जहां तक पता है उनके पास उनका ख़ुद का घर है. लेकिन अगर नहीं है तो ऐसे में ये BDO ही बता पायेंगे कि कैसे क्या किया जा सकता है.
BDO यानि Block Development Officer, जो एक प्रखंड के होते हैं और उनके अंतर्गत कई गांव आते हैं. बहादुरपुर गांव घोड़ासहन प्रखंड के अंतर्गत आता है और यहां के BDO का नाम बिंदु कुमार है. हमने BDO बिंदु कुमार से बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने मिलने का समय तो दिया लेकिन मिले नहीं. कई फ़ोन करने के बाद उन्होंने अपना फ़ोन ही बंद कर लिया. इसलिए इस मामले पर उनसे बात नहीं हो पाई.
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