कच्छ, गुजरात – 41 वर्षों के लंबे संघर्ष और इंतजार के बाद, गुजरात के दलित समुदाय को आखिरकार अपनी हक की जमीन वापस मिली। स्वतंत्रता दिवस 15 अगस्त को कच्छ जिले के रापर तहसील के बेला और नंदा गांव में 200 एकड़ जमीन दलित समुदाय को सौंप दी गई। इस अवसर पर वहां नीला झंडा और तिरंगा लहराया गया जो इस ऐतिहासिक विजय का प्रतीक है।
पिछले आठ सालों में 'राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच' (RDAM) ने गुजरात में करीब 2500 एकड़ जमीन, जिसकी बाजार कीमत करीब 600 करोड़ रुपये है, जातिवादी ताकतों के कब्जे से छुड़वाकर दलितों को दिलाई है।
गुजरात में दलितों के अधिकारों की लड़ाई में वडगाम के विधायक जिग्नेश मेवाणी सबसे आगे हैं। ऊना घटना के बाद उन्होंने दलित समुदाय को संगठित करने और उन्हें उनके अधिकार दिलाने के लिए एक मुहिम शुरू की। 2016 में ऊना में हुए अत्याचार के बाद, मेवाणी ने मेहसाणा से बनासकांठा जिले के धनेरा तक 'आजादी कूंच' का आयोजन किया, जिसका समापन लावारा गांव के चार दलित परिवारों को 12 एकड़ जमीन पर कब्जा दिलाकर हुआ।
मेवाणी ने द मूकनायक के साथ एक विशेष बातचीत में बताया कि आरडीएएम के भूमि अधिकार आंदोलन का उद्देश्य भूमिहीन दलितों को 5 एकड़ भूमि दिलवाना है। देशभर में करीब 20 हजार एकड़ ऐसी जमीनें हैं जो आदिवासी/दलितों को आबंटित होने के बाद में अवैध कब्जे में है जिसके कारण वंचित समुदाय को अपना अधिकार नहीं मिल सका है.
उन्होंने कहा, "गुजरात के अलावा किसी अन्य प्रदेश में गैर कानूनी कब्जों से जमीन को मुक्त करने का ऐसा प्रयास नहीं हो रहा। हमें केवल जातीय भेदभाव और आरक्षण तक सीमित नहीं रहना चाहिए। आत्मसम्मान की लड़ाई के साथ ही दलित अम्बेडकरवादी आंदोलन को आर्थिक अधिकारों और संसाधनों के समान वितरण पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।"
मेवाणी ने बताया कि वर्तमान में गुजरात को छोड़कर किसी भी अन्य राज्य में दलितों और आदिवासियों या पिछड़े वर्ग के संसाधन विहीन परिवारों के भूमि अधिकार की कोई बात नहीं कर रहा, दलित-अम्बेडकरवादी संगठन केवल आत्मसमान, आरक्षण और नौकरी तक सीमित हो गए हैं जबकि हमारे संविधान में वर्णित समाजवाद के लिए आवश्यक है कि संसाधनों का भी समान रूप से बंटवारा हो. समय आगया है अब economic और materialistic पहलुओ पर फोकस करना होगा.
मेवाणी बताते हैं कि इसी आशय से Land Ceiling Act लागू की गई. 1950 से देशभर में SC/ST के भूमिहीन परिवारों को जमीन आबंटन का काम शुरू लेकिन ये काम अधिकांश जगह कागजों तक सीमित रही. जातिवादी सामंतवादी ताकतों ने आबंटित जमीनों पर अपना कब्जा जमाए रखा है और दलित और वंचित समुदाय के लोग अपने अधिकारों से आज भी वंचित हैं.
गुजरात में दलितों के भूमि अधिकारों के लिए संघर्ष कोई नया नहीं है। देश के अन्य राज्यों की तरह गुजरात में भी हजारों एकड़ जमीन का आवंटन दलितों के लिए हुआ था, लेकिन जातिवादी शक्तियों ने इन जमीनों पर कब्जा जमा रखा था।
मेवाणी ने 2009 से 2012 तक हजारों एकड़ जमीनों के बारे में जानकारिया जुटाई जो आबंटन होने के बाद भी गैर कानूनी रूप से असमाजिक तत्वों के कब्जे में थी. इसपर उनके द्वारा पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन दायर किया गया जो 2012 से 2016 तक चला. उनके प्रयास से हजारों एकड़ भूमि सामंती ताकतों से वापस रेक्लैम की गई जिसका बाजार मूल्य करोड़ों रूपये है. उसके बाद ऊना की घटना ने आन्दोलन का रुख बदला.
ऊना में पुलिस द्वारा चार दलित युवकों की पिटाई का वीडियो वायरल हुआ था, जिसने लोगों में आक्रोश पैदा कर दिया था। 11 जुलाई, 2017 को ऊना पुलिस चौकी के सामने चार दलित युवकों को कथित तौर पर गाय की खाल उतारने के आरोप में नंगा करके, कार से बांधकर सार्वजनिक रूप से घंटों पीटा गया।
राज्य के अलग-अलग हिस्सों में अलग-अलग घटनाएं होने के कारण दलित समुदाय में गुस्सा बढ़ रहा था। कुछ उदाहरण हैं... राजुला में एक दलित व्यक्ति और उसकी गैर-दलित पत्नी की हत्या कर दी गई, जबकि दूसरे गांव में एक दलित लड़के को जिंदा जला दिया गया - यह ऊना की घटना थी जिसने दलितों को भारत में इतिहास में पहली बार सार्वजनिक रूप से विरोध करने के लिए मजबूर किया।
ऊना घटना के बाद मेवाणी ने दलित समुदाय को संगठित करने और उन्हें उनके अधिकार दिलाने के लिए एक मुहिम शुरू की। मेवाणी ने मेहसाणा से बनासकांठा जिले के धनेरा तक 'आजादी कूंच' का आयोजन किया, जिसका समापन लावारा गांव के चार दलित परिवारों को 12 एकड़ जमीन पर कब्जा दिलाकर हुआ। बहुत कम बजट में शुरू की गई ऊना दलित अत्याचार समिति ने यात्रा समाप्त होने के बाद राष्ट्रीय दलित अधिकार मंच (आरडीएएम) का रूप ले लिया।
मेवाणी और उनके सहयोगियों ने अदालती लड़ाई के जरिए दलितों के लिए न्याय की मांग की है। ऊना की घटना ने उनके आंदोलन को नया मोड़ दिया, और अब आरडीएएम भूमि स्वामित्व जैसे भौतिक मुद्दों पर भी ध्यान केंद्रित कर रहा है। उनका मानना है कि भूमि का स्वामित्व जाति की स्थिति का प्रमुख संकेतक है, और दलितों की समानता का सबसे सीधा रास्ता उस भूमि की मांग करना है जो उनके अधिकार में होनी चाहिए।
अत्याचारों से आगे बढ़ते हुए, अब आरडीएएम अपनी मांगों की सूची में भूमि स्वामित्व जैसे भौतिक मुद्दों को भी शामिल कर रहा है। यदि भूमि का स्वामित्व जाति की स्थिति का एक प्रमुख संकेत है, तो दलितों की समानता का सबसे सीधा रास्ता उस भूमि की मांग करना है जो उनके अधिकार में है। मांग है कि प्रत्येक भूमिहीन दलित को 5 एकड़ भूमि मिले।
जिग्नेश मेवाणी के नेतृत्व में आरडीएएम उन दलितों के मामलों पर भी सक्रिय रूप से काम कर रहा है, जिन्हें कागजों पर जमीन आवंटित की गई है, लेकिन अभी तक उन्हें जमीन का भौतिक कब्ज़ा नहीं दिया गया है। 2017 तक मेवाणी और आरडीएएम के प्रयासों ने फल देना शुरू कर दिया। जिग्नेश मेवाणी ने दिसंबर 2017 में विधानसभा चुनाव लड़ा और वडगाम निर्वाचन क्षेत्र के विधायक बन गए, जबकि आरडीएएम टीम ने अपना भूमि अधिकार आंदोलन जारी रखा।
यह अहमदाबाद जिले के सरोधा गांव में 115 दलित परिवारों को 220 बीघा जमीन सौंपने के लिए भूमि मानचित्रण प्रक्रिया शुरू करने के लिए गुजरात सरकार पर दबाव बनाने में सफल रहा है।
मेवाणी ने बताया गुजरात के अन्य हिस्सों में भूमि स्वामित्व अभियान चलाकर और विभिन्न दलित उप-जातियों को एक शक्तिशाली राजनीतिक ताकत में एकजुट करने और हाशिए पर पड़े समूहों के लिए एक साझा मंच बनाने की दिशा में प्रयास जारी है।
इसके अलावा, रापर और सुरेंद्रनगर के लिए भी इसी तरह के प्रयास शुरू किए गए हैं। अभियान को अमरेली, भावनगर, सुरेंद्रनगर, अहमदाबाद, मेहसाणा, कच्छ आदि जिलों में खासा समर्थन और सफलता प्राप्त हुई है.
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