उड़ीसा के गंजाम जिले के अस्का ब्लाक के एक गांव में पिछले 4 महीने से लगभग 200 दलित परिवार उच्च जाति के लोगों का जातीय अत्याचार व सामाजिक बहिष्कार सह रहे थे। मोटरसाइकिल डायरीज अभियान के तहत दलित समाज के युवाओं ने पुलिस और प्रशासन की मदद से जनसुनवाई के माध्यम से इस मसले को सुलझाया। बताया गया कि उत्पीड़न इसलिए हो रहा था क्योंकि दलितों ने उच्च जाति के उम्मीदवार का चुनाव में समर्थन नहीं किया।
दरअसल, चुनाव में अनुसूचित जाति की सीट आरक्षित होने के कारण उच्च जाति के लोगों में रोष व्याप्त था। सवर्ण लोगों ने मिलकर दलित समाज के ही एक व्यक्ति को अपना प्रत्याशी बनाकर उतारा। फिर भी उन्हें हार झेलनी पड़ी। उच्च जाति के लोगों द्वारा चुनाव के लिए उतारे गए व्यक्ति को दलित समुदाय का पूर्ण समर्थन नहीं मिलने के कारण रार छिड़ गई। लगभग 200 दलित परिवारों का सामाजिक बहिष्कार कर उन्हें प्रताड़ित करना शुरू कर दिया गया। कभी उन्हें गांव की किराना दुकानों पर महंगा सामान बेंचा गया तो कभी उन्हें मंदिर में प्रवेश की अनुमति नहीं दी गई। बच्चों को प्राइवेट संस्थानों में ट्यूशन पर रोक लगा दी गई। वहीं सार्वजनिक तालाब जाने के रास्ते पर पत्थर और कांच तक बिछा दिया।
दलित समाज के इन परिवारों ने इस सामाजिक बहिष्कार की शिकायत स्थानीय थाने में की, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। यहां तक सरकारी कार्यालय में उनके साथ बदसलूकी की गई। दलित समाज सुधारकों द्वारा मोटरसाइकिल डायरीज अभियान के माध्यम से लगभग 4 महीने से चले आ रहे इस मसले को सुलझाने का प्रयास किया लेकिन बात नहीं बनी। बाद में इस संगठन ने 2 दिसम्बर को पुलिस महानिरीक्षक कार्यालय का घेराव कर दिया। इसके बाद इस मसले को पुलिस महानिरीक्षक ने एक सप्ताह में हल करने का आदेश दिया। लेकिन बात नहीं बनी। दस दिन बाद दोबारा दलित सामाज सुधारकों ने 17 दिसम्बर को बड़ा आंदोलन की चेतावनी दी जिससे पुलिस प्रशासन के हाथ पांव फूल गए। आईजी के आदेश के बाद 24 घन्टे में ही मसला सुलझ सका। मोटरसाइकिल डायरीज के माध्यम से क्षेत्रीय थाने द्वारा कथित तौर पर उच्च जाति और दलितों के बीच समझौता करा दिया गया। जिसके बाद पिछले 4 महीने से उच्च जाति द्वारा दलितों का उत्पीड़न बन्द हुआ।
उड़ीसा में गंजाम जिले के अस्का ब्लॉक में हरीडापदर गांव में मिली जुली आबादी रहती है। इस गांव में लगभग 600 परिवार रहते हैं। इन परिवारों में बाह्मण, यदुवंशी (गौड़) एवं दलित परिवार रहते हैं। गांव में 200 से अधिक दलित परिवार हैं। बीते अप्रैल 2022 में ग्राम पंचायत के चुनाव हुए थे। इस चुनाव में कई स्थानों पर अनारक्षित सीट को बदलकर दलितों के लिए आरक्षित कर दिया गया।
हरिडापदर गांव की पंचायत सीट दलितों के लिए आरक्षित हो गई। पिछले कई सालों से यह सीट अनारक्षित थी। सीट अनारक्षित होने के कारण उच्च जाति के लोगों का दबदबा था। हर बार वह ही चुनाव जीतते थे। सीट दलितों के लिए आरक्षित होने पर दलितों ने अपने समाज का व्यक्ति चुनाव में उतार दिया।
अस्का ब्लॉक के इस गांव की सीट आरक्षित होने के कारण केवल दलित प्रत्याशी ही चुनाव में हिस्सा ले सकता था। क्षेत्रीय लोगों के मुताबिक उच्च जाति के लोगों ने भी अपना दलित प्रत्याशी उतार दिया। लेकिन दलितों ने अपने द्वारा खड़े प्रत्याशी का समर्थन किया।
हरिडापदर गांव के रहने वाले नारायण नहाक (65) बताते हैं, "सवर्ण जाति के प्रत्याशी का समर्थन नहीं करने का कारण उन्होंने हमारे साथ भेदभाव करना शुरू कर दिया। चुनाव में समर्थन नहीं करने के कारण उन लोगों ने हम लोगों के साथ बुरा बर्ताव करना शुरू कर दिया। वह हमें रास्ते से गुजरने नहीं देते थे। जब हम जाते तो हमें लौटा दिया जाता था।"
नारायण नहाक बताते हैं, "चुनाव के बाद हमें काफी तकलीफों का सामना करना पड़ा। हमारे बच्चों को स्कूल नहीं जाने दिया जाता था। कोई बच्चा स्कूल पहुंचता भी था तो उसे अन्य बच्चों से अलग बैठाया जाता था। हमारे बच्चों से बातचीत करने से मना किया जाता था।"
झुमर नहाक हरीडापदर गांव में बचपन से ही रहते हैं। वह पेशे से किसान हैं। झुमर नहाक बताते हैं, "मेरी पूरी जिंदगी बीत गई, लेकिन ऐसा जातीय उत्पीड़न आज तक नहीं देखा। हम जिस तालाब में नहाने जाते थे उस तालाब के रास्ते पर विरोधी पक्ष ने कांच डाल दिये। हमें नहाने के लिए लगभग 3 किमी दूर जाना पड़ता था। पुलिस से शिकायत की, लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई।"
इस मामले को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता मधुसूदन ने भीम राव अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण दिवस पर गांव-गांव जाकर दलितों के अधिकारों के लिए आवाज उठाना शुरू किया। मधुसूदन ने इस मामले की शिकायत आईजी और जिलाधिकारी से की। बकौल मधुसूदन ने कहा, "हमने इस मामले की शिकायत उच्च अधिकारियों से की। जिसके बाद क्षेत्रीय थाने ने सवर्णों और दलितों के बीच समझौता करा दिया। इसके बाद कुछ हद तक सवर्णों ने इस तरह से सार्वजनिक बहिष्कार करना बन्द कर दिया।"
मधुसूदन बताते हैं, "जब हमने गांव के लोगों की आवाज उठाई तब कुछ हद तक मामला सुलझ गया। लेकिन कुछ समय बाद गांव के लोगों ने बताया कि सवर्णों की दुकान पर सामान खरीदने पर वह मूल कीमत से अधिक कीमत पर सामान खरीदने के लिए मजबूर करते थे। हालांकि इस उत्पीड़न के बाद एक दलित व्यक्ति ने गांव में दुकान खोल ली है। अब दलित सवर्ण वर्ग की दुकान पर सामान खरीदने नहीं जाते हैं।
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