क्यों है मध्यप्रदेश में शिक्षा पर मुठ्ठी भर लोगों का एकाधिकार?

मध्य प्रदेश में शिक्षा का स्तर/ फोटो: पुष्पराज केवट
मध्य प्रदेश में शिक्षा का स्तर/ फोटो: पुष्पराज केवट
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"शिक्षा वह शेरनी का दूध है जो जितना पिएगा वह उतना ही दहाड़ेगा" –डॉ. भीमराव अंबेडकर

रिपोर्ट- पुष्पराज केवट

मध्य प्रदेश/सतना। मनुष्य के व्यक्ति के सर्वांगीण विकास का सबसे जरूरी पोषक तत्व शिक्षा ही है। बिना शिक्षित समाज के विकास की कल्पना करना असंभव है। अशिक्षा समाज के विकास को रोकने का कार्य करती है।

मध्य प्रदेश प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के मामले में इतना पिछड़ चुका है कि मध्य प्रदेश सरकार की बीते 15 वर्षों की शिक्षा नीति पर नजर डालें तो साफ-साफ दिखता है की शिवराज सिंह चौहान मामा जी की सरकार ने शिक्षा को व्यवसाय में तब्दील कर दिया है। सरकारी स्कूलों की तुलना में निजी स्कूलों की एक सुनामी सी आ गई है जहां व्यक्ति अपनी हैसियत के हिसाब से बच्चों को पढ़ाते हैं। जिसके पास पैसा है वही अच्छी शिक्षा ग्रहण कर पाता है। यह बहुत ही सोचनीय विषय है की क्या वजह हो सकती है जिससे सरकारी विद्यालयों से लगातार आम जनमानस की दूरियां बढ़ती जा रही हैं। गरीब बच्चों के माता-पिता जो खासकर, एससी-एसटी और ओबीसी वर्ग के हैं वह आर्थिक रूप से इतने सशक्त नहीं है कि अपने बच्चों को निजी स्कूलों में शिक्षा दिला सके।

मध्यप्रदेश में शिक्षा का स्तर/ फोटो: पुष्पराज केवट
मध्यप्रदेश में शिक्षा का स्तर/ फोटो: पुष्पराज केवट

एससी-एसटी  और पिछड़े वर्ग के बच्चों को स्कूल से बाहर का रास्ता दिखाने में शिवराज सरकार (भाजपा सरकार) का एक गुप्त षड्यंत्र

आज मध्य प्रदेश के प्राइमरी और माध्यमिक सरकारी स्कूलों की असलियत यह है कि, सरकार जितना विज्ञापन में अरबों रुपए खर्च कर देती है अगर शिक्षा सुधारने में खर्च करती तो हालात इतने नहीं बिगड़ते।

जबसे शिवराज सिंह चौहान मध्य प्रदेश की कमान संभाले हैं तभी से उन्होंने शिक्षा पर ऐसा कुठाराघात किया है की एक गरीब तबके के बच्चे का आगे निकल पाना मुश्किल हो गया है। शिवराज सरकार ने सबसे पहले पांचवी और आठवीं जिला बोर्ड इकाइयों को तोड़ा जिससे सरकारी स्कूलों की शिक्षा गुणवत्ता इतनी बिगड़ गई कि आज के समय में पांचवी और आठवीं तक के बच्चों को किताब पढ़ पाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। इतना ही नहीं यहां बच्चे 1 से लेकर 9 तक अंक बमुश्किल से पहचान पाते हैं। सच्चाई यह है कि प्राइमरी शिक्षा पूरी होने से पहले ही गरीब वर्ग के बच्चे विद्यालय छोड़ देते हैं।

सरकारी स्कूलों की यह हालत है कि कोई भी व्यक्ति अपने बच्चे को वहां भेजने से डरता है, लेकिन गरीब तबके का व्यक्ति आर्थिक रूप से सशक्त ना होने के कारण मजबूर है। इससे पता चलता है कि सरकार ने शिक्षा को आम जनता की पहुंच से दूर कर दिया है, जो कुछ मुट्ठी भर लोगों तक सीमित हो गई है।

सरकार इतने पर भी नहीं रुकी। पांचवी आठवीं के बाद सरकार ने अब कक्षा दसवीं को भी जो मध्य प्रदेश बोर्ड में आती है, उसकी भी तोड़ कर रख दिया है। मतलब उन्होंने एक अभियान चलाया "रुक जाना नहीं" जिसके तहत उसमें भी बच्चों को जबरदस्ती पास करना पड़ता है। साक्षरता दर दिखाने के चक्कर में सरकार ने 1 से लेकर आठवीं तक के बच्चों को शिक्षकों द्वारा जबरजस्ती पास करने का आदेश दिया गया है, ठीक वही हाल कक्षा दसवीं में भी कर दिया गया है जो शिक्षा की रीढ़ की हड्डी मानी जाती है।

शिवराज सरकार ने एक अभियान चलाया था; "स्कूल चले हम" "सब पढ़े सब बढ़े।" लेकिन आज के दौर में इस अभियान का कथन बदल कर हो गया हैं कि, जिसके पास पैसा है वहीं पढ़ें वहीं बढ़े..

गरीब तबके के बच्चों तक डिजिटल शिक्षा की पहुंच न के बराबर

इसके अलावा, लाकडाउन में सरकार द्वारा डिजिटल शिक्षा अचानक बिना सोचे समझे स्कूल के ऊपर थोप दिया गया, जिसमें गरीब तबके के बच्चों की हालत यह हो गई है कि वे डिजिटल शिक्षा के बारे में कुछ जानते ही नहीं हैं, और उनके पास डिजिटल शिक्षा साधन का भारी अभाव भी है।

नतीजा यह है कि मध्यप्रदेश के सरकारी स्कूल में पढ़ने वाले एससी एसटी और ओबीसी के बच्चों का भविष्य सरकार ने कचरे के ढेर में डाल दिया है।

अनुमानित रूप से, एससी, एसटी और ओबीसी के हर साल 3 लाख बच्चे स्कूल छोड़ने पर मजबूर हो जाते हैं और लाखों प्राइमरी स्कूल बंद होने की कगार पर हैं। इसका जिम्मेदार कौन है? अब सवाल यह है कि सरकार पढ़ाना नहीं चाहती है या बच्चे पढ़ना नहीं चाहते!

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