उत्तर प्रदेश: न सम्मानजनक मेहनताना न सामाजिक सुरक्षा, संघर्षों से भरा है घरेलू कामगार महिलाओं का जीवन

लखनऊ, अकबर नगर कच्ची बस्ती के अपने मकान में खाना बनाती अफरोज। फोटो : अरुण वर्मा
लखनऊ, अकबर नगर कच्ची बस्ती के अपने मकान में खाना बनाती अफरोज। फोटो : अरुण वर्मा
Published on

Report- Arun Verma, Lucknow

घरेलू महिला कामगारों की न्यूनतम मजदूरी व सामाजिक सुरक्षा योजनाओं से जुड़ाव की मांग है। नेशनल सैम्पल सर्वे एनएनएस के 2005 के आंकड़ों के मुताबिक देश में 47 लाख घरेलू कामगार थे, लेकिन अब इनकी संख्या करीब 9 करोड है, जिनमें अधिकांश औरतें हैं।

लखनऊ। "दो घरों में झाड़ू-पोंछा का काम करूती हूं। सुबह 6 बजे से मेरा दिन शुरू हो जाता है। नहा-धोकर पति और बच्चों के लिए नाश्ता, फिर खाना बनाती हूं। साढ़े आठ बजे काम के लिए निकल जाती हूं। जानकीपुरम विस्तार में एक मकान में पहले झाड़ू पोछा करती हूं। बर्तन मांजती हूं। यहां से करीब डेढ़ घंटे बाद दूसरे मकान जाती हूं। वहां पर नाश्ता व इसके बाद खाना बनाती हूं। झाड़ू-पोछा बर्तन खत्म करते-करते ढाई बज जाते हैं। शाम को चार बजे से फिर से घरों में काम शुरू हो जाता है जो रात 9 बजे तक चलता है। पहले घर से 2 हजार रूपए और दूसरे घर से सात जनों का खाना बनाने व झांड़ू, पोछा बर्तन के बाद महज 3 हजार रूपए मिलते है।" भावशून्य चेहरे से 35 वर्षीय विमला देवी द मूकनायक को रोजमर्रा के अपने संघर्षों को बताती है।

वे आगे कहती है कि, पति एक कैटरर्स की दुकान पर हैं। सहालक या सावों में अच्छी कमाई हो जाती है। शेष दिनों में लेबर अड्डे से मजदूरी के लिए जाते हैं। रोज काम नहीं मिलता। मुश्किल से महीने में कभी चार कभी पांच हजार रूपए की कमाई कर पाते हैं। घर का खर्च जैसे-तैसे चलता है। वह बड़ी मायूसी से कहती हैं, "चार बच्चे हैं, लेकिन किसी का अब तक स्कूल में एडमिशन नहीं करा पाई हूं।"

अकबर नगर कच्ची बस्ती में रहने वाली बेवा अफरोज की भी यही कहानी है। 2017 में पति की मौत के बाद से वे घरेलू कामगार के तौर पर काम कर रही हैं। अफरोज द मूकनायक को बताती हैं, "लॉकडाउन से पहले शक्ति नगर कॉलोनी में दो घरों में खाना बनाने व झांड़ू पोंछे का काम करती थी। लॉकडाउन लगा तो मकान मालिकों ने काम पर आने से मना कर दिया। खाने-पीने की दिक्कत होने लगी। एक स्वयंसेवी संस्था ने सूखा राशन उपलब्ध कराया।"

लखनऊ. घरेलू कामगार के रूप में काम करने वाली अफरोज / फोटो : अरुण वर्मा
लखनऊ. घरेलू कामगार के रूप में काम करने वाली अफरोज / फोटो : अरुण वर्मा

अफरोज आगे बताती हैं, "तीसरे लॉकडाउन में मिली छूट के बाद फिर से एक घर में झांड़ू-पोंछा व बर्तन का काम शुरू किया है। यहां से 15 सौ रूपए मिलते हैं। इसके अलावा राज्य सरकार से 5 सौ रूपए प्रतिमाह विधवा पेंशन मिलती है। महीने में दो बार राशन मिलता है। इससे अपना और अपने दो बच्चों का पेट पाल रही हूं।"

"न तो हमें छुट्टी लेने का हक है न ही समय पर वेतन पाने का अधिकार, वेतन बढ़ाने की तो बात ही दूर है। एक काम खत्म नहीं होता दूसरा बता देते हैं। घर जाने का समय होता है तब तक दो काम तैयार हो जाते हैं। घर में कुछ गुम हो जाए तो चोर हम है। हम पर ही इल्जाम आता है।" घरेलू कामगार के रूप में काम करने वाली आशादेवी निराशा भाव से बताती हैं।

विमला देवी, अफरोज व आशा देवी की तरह प्रत्येक महिला घरेलू कामगार की अमूमन यही कहानी है। दोहरी जिम्मेदारी उठानी वाली इन महिलाओं को अपने काम की एवज में न तो वाजिब मेहनताना मिलता है न ही सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित होती है।

विज्ञान फाण्डेशन के गुरू प्रसाद ने बताया कि लखनऊ, दिल्ली, मुम्बई सहित पूरे देश में कितने घरेलू कामगार हैं। इसका सही अनुमान नहीं लगाया जा सकता है। हालांकि नेशनल सैम्पल सर्वे एनएनएस के 2005 के आंकड़ों के मुताबिक देश में 47 लाख घरेलू कामगार थे, लेकिन कुछ रिपोटर्स के अनुसार अब इनकी संख्या करीब 9 करोड है, जिनमें अधिकांश औरतें हैं।

लखनऊ, महिला कामगार हक अभियान के तहत अकबर नगर में घरेलू कामगार महिलाओं की बैठक। फोटो : अरुण वर्मा
लखनऊ, महिला कामगार हक अभियान के तहत अकबर नगर में घरेलू कामगार महिलाओं की बैठक। फोटो : अरुण वर्मा

प्रसाद बताते है कि, घरेलू कामगारों को लेकर अभी तक कोई सर्वे हुआ ही नहीं है। जो आंकड़े हैं वे अलग-अलग आधार पर हैं। हालांकि केन्द्रीय श्रम मंत्रालय ने गत साल नवम्बर माह से ई-श्रम पोर्टल पर घरेलू कामगारों का पंजीकरण शुरू किया है। एक साल में यह सर्वे पूरा हो जाएगा। इसके बाद घरेलू कामगारों से संबंधित सही-सही आंकड़ें उपलब्ध हो सकेंगे।

अनऑर्गनाइज्ड वर्कर्स सोशल सिक्योरिटी एक्ट 2008 में घरेलू कामगारों का शामिल कर लिया गया है। उसमें जो बातें की गई हैं वे बहुत स्पष्ट नहीं है। इसमें सामाजिक सुरक्षा देने की बात तो कही गई है, लेकिन इसके लिए घरेलू कामगारों के लिए अलग से सोशल सिक्योरिटी बोर्ड बनाए जाने की भी आवश्यकता है।

कानून बनाने की मांग

एक्शनएड संस्था द्वारा संचालित महिला कामगार हक अभियान की प्रोग्राम ऑफिसर मनीषा भाटिया ने बताया कि, सोशल सिक्योरिटी एक्ट असंगठित क्षे़त्र में काम करने वाले कामगारों की सामाजिक सुरक्षा को तय करने के लिए लाया गया था। हालांकि घरेलू कामगारों के लिए अलग से कानून बनाने की मांग लम्बे समय से की जा रही है। कानून बन जाएगा तो काम को मान्यता मिलेगी, वेतन तय हो जाएगा। काम के घंटे तय हो जाएंगे, छुट्टी मिलेगी, मेडिकल की सुविधा मिलेगी, दुर्घटना हो गई तो मुआवजा मिलेगा, इनके लिए अब तक ऐसा कोई कानून नही है।

एक्शनएड व विज्ञान फाण्डेशन काफी लम्बे समय से घरेलू कामगारों के लिए अलग से कानून बनाने की मांग कर रहा है। इसके साथ ही कार्यस्थल पर यौन शोषण के मामलों में पुख्ता कार्रवाई के लिए स्थानीय शिकायत समिति को सक्रिय करने की मांग की जा रही है।

घरेलू कामगार महिलाओं की प्रमुख मांगे:

  • वेतन व काम के घंटे तय हों।
  • चार अवकाश का अधिकार मिले।
  • मेडिकल बेनिफिट मिले।
  • मानवीय व सम्मानजनक व्यवहार।
  • सामाजिक सुरक्षा जैसे पीएफ, ईएसआई से जुड़ाव।
  • शारीरिक चुनौतियों को देखते हुए 50 साल की उम्र के बाद से पेंशन भुगतान।
  • हिंसा, गाली-गलौज व मारपीट होने पर त्वरित कार्रवाई।

द मूकनायक की प्रीमियम और चुनिंदा खबरें अब द मूकनायक के न्यूज़ एप्प पर पढ़ें। Google Play Store से न्यूज़ एप्प इंस्टाल करने के लिए यहां क्लिक करें.

The Mooknayak - आवाज़ आपकी
www.themooknayak.com