"समाज में QUEER समुदाय और बहुजन महिलाओं को आगे आने के लिए हमें एक स्पेस बनाना है। हमें समाज में और द मूकनायक, खबर लहरिया, बहन बॉक्स और ग्रेस बानू जैसे लोग चाहिए। हमें खुद ही खड़े होकर अपनी आवाज उठानी पड़ेगी। हमें इन आवाजों को एक प्लेटफॉर्म देना है और ऐसे कॉलम बनाने है जिसमें अलग-अलग क्म्यूनिटी के लोग अपनी आवाज उठा सके। हमें अपनी चुप्पी को तोड़ना है।" – जर्नलिस्ट अंकुर पालीवाल
नई दिल्ली: रविवार, 30 जनवरी को वर्चुअल माध्यम से द मूकनायक द्वारा आयोजित विभिन्न मुद्दों पर ऑनलाइन परिचर्चा के क्रम में द मूकनायक पैनल के सेशन में बेहतरीन वक्ताओं ने प्रतिभाग किया। इस परिचर्चा में सामाजिक मुद्दों और पिछड़े वर्ग के मुद्दों पर बातचीत हुई, जिसमें खबर लहरिया की मुख्य संपादक कविता देवी, ट्रांसजेंडर राइट्स एक्टिविस्ट ग्रेस बानू, पत्रकार भानूप्रिया और पत्रकार अंकुर पालीवाल मौजूद रहे। इनके साथ हमारे मॉडरेटर सुचित्रा और प्रशांत भवरे ने सवाल जवाब किया।
मीडिया में बहुजन महिलाओं और QUEER समुदाय की अस्वीकार्यता क्यों?
खबर लहरिया की मुख्य संपादक कविता देवी ने बताया कि, "ये देश जाति को लेकर बहुत सेंसेटिव है और जहां के लोग जाति जानने के लिए बहुत उत्सुक रहते हैं।"
"आज के समय में भी हम अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। बहुत कम ही ट्रांसजेंडर लोग है जो मीडिया में हैं। यहां पर प्रीवीलेज वाले लोग हैं। हमारे जैसे लोगों के लिए यहां स्पेस नहीं है और सवर्ण लोग इस स्पेस को देना भी नहीं चाहते। यहां पर जातिवाद और जेंडर को लेकर खींचतान जारी है। इसीलिए द मूकनायक और ऐसे ही कई चैनल सामने आए हैं जो स्पेस दे रहे हैं हम जैसे लोगों को और बहुजन महिलाओं को। मेनस्ट्रीम मीडिया ने तो हमें दरकिनार कर दिया है।" –ट्रांसजेंडर राइट्स एक्टिविस्ट ग्रेस बानू ने कहा।
पत्रकार भानूप्रिया ने कहा कि, "हम जब जेंडर बेस्ट इवेंट देखते थे तो हमें लगा कि हर चीज जेंडर्ड हैं। इसलिए हमने बहन बॉक्स शुरु किया। जब चुनाव होते हैं तो हम महिलाओं के और ट्रांसजेंडर के मुद्दे नहीं देखते हैं इसलिए हमारी ये कोशिश है कि हम इन मुद्दों पर भी सरकार को काउंटेबल बना सके। हम जैसे मीडिया चैनल उस गैप को भर रहे हैं जो मेन स्ट्रीम मीडिया और उस समुदाय के बीच में आ गई है। उम्मीद है कि ये गैप जल्दी भर जाए।"
पत्रकार अंकुर पालीवाल ने इस मुद्दे पर अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि QUEER समुदाय को मीडिया में एक्सेप्ट नहीं किया जाता। जब समाज में ही नहीं किया जाता तो मीडिया भी इसी समाज का हिस्सा है।
"मैने मीडिया चैनल्स में जॉब किया है और मैंने ये जाना कि लोग गे, लैस्बियन या QUEER समुदाय को लेकर बात ही नहीं करना चाहते हैं, तब मुझे लगा कि मीडिया हमारे लिए सेफ प्लेस नहीं है। इसको बदलने का उपाय यही है कि मीडिया में जो एडिटर है वो आवाज उठाएं। उन्हें ये बोलना पड़ेगा कि हमें ये चाहिए क्योंकि ये जरुरी है। हमें आगे आना पड़ेगा और कहना पड़ेगा कि QUEER समुदाय की हमें जरुरत है।" अंकुर पालीवाल ने कहा, "ऐसा नहीं हो रहा है इसलिए हमें अब खुद का स्पेस बनाना पड़ रहा है। QUEER समुदाय की आइडेंटिटि का फायदा उठाकर अपनी फिल्म बना रहे हैं। और ये तभी बदलेगा जब हम न्यूजरुम में होंगे। अपने मुद्दों पर हमें खुद बात करनी पड़ेगी इसलिए हमें खुद सामने आना पड़ेगा।"
उन्होंने आगे कहा, "ऐसा नहीं है कि QUEER समुदाय के लोग मीडिया हाउस में नहीं है। वो हैं लेकिन वहां पर स्टे नहीं कर पाते (ज्यादा समय तक काम नहीं कर पाते)। इसलिए मीडिया हाउस को आगे आकर हमसे मदद मांगनी पड़ेगी। अगर वो हमारे बारे में बात करना चाहते हैं तो मदद के लिए एरोगेंस को छोड़कर हमारे पास आना पड़ेगा।"
प्रशांत भवरे ने कहा, आज के समय में मेनस्ट्रीम मीडिया को तभी शेड्यूल कास्ट या शेड्यूल ट्राइब की याद आती है जब कोई अपराध होता है, कोई क्राइम होता है। मेनस्ट्रीम मीडिया में बहुजन तबके, पिछड़े तबके, मुस्लिम तबके और QUEER समुदाय की सफलताओं को नहीं दिखाया जाता।
भानुप्रिया ने इसके जवाब में कहा कि, "ये सच है। इस कम्यूनिटी को तभी दिखाया जाता है तब कोई अमानवीय क्राइम होते हैं। ये प्रतिनिधित्व की कमी के कारण है। जब तक इस कम्यूनिटी को मीडिया और पॉलिटिक्स में शामिल नहीं किया जाएगा तब तक बदलाव नहीं होगा।"
ग्रेस बानू ने कहा, "मीडिया हाउस में पिछड़े, दलितों और QUEER समुदाय के लोगों की समस्याओं को बताया तो जाता है लेकिन उनसे उनके मुद्दों को नहीं पूछा जाता। हमारे अधिकार और हमारी समस्याओं के बारे में कोई जानता नहीं लेकिन हमसे हमारी समस्याओं के बारे में कोई पूछता भी नहीं।"
"हमारे समाज में हमारे अधिकार की बात नहीं होती शायद इसीलिए LGBT पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी कहीं सेलीब्रेशन नहीं देखा गया। मीडिया हाउस में हमारी कमी के चलते हमारे मुद्दे छूट जाते हैं। इन लोगों के पास पावर है, स्पेस हैं और बोलने के लिए एक आवाज है लेकिन हमारे पास नहीं है। इसलिए हम एक स्पेस बना रहे हैं जिसमें हम अपने मुद्दों को आगे रख सकें।" -ग्रेस बानू ने बताया।
अंकुर पालीवाल ने कहा, हमारे समाज में, हमारे परिवार में सबकी ये सोच है कि QUEER समुदाय के लोगों को सम्मान मिल सकता है। मतलब जब तक पेपर में ये नहीं छपेगा कि ये नेता गे है तब तक ये नहीं मानेंगे की इस कम्यूनिटी के लोगों को सम्मान भी मिलता है। वैसे ही सिनेमा में अगर ऐसी फिल्में बन रही हैं तो ये सही है। कम से कम ऐसी फिल्में लोगों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करती है। जब एक अच्छा राइटर एक दलित या आदिवासी समाज पर फिल्में बनाता है तो वो बेहतर होगी।
"आज के समाज में गे लोगों पर फिल्में या दलितों के मुद्दे पर फिल्म बन रही हैं, ऐसे में कमिया बहुत हैं इन फिल्मों में, लेकिन कम से कम ऐसी फिल्मों की वजह से ये मुद्दे नॉर्मलाइज हो रही है।" अंकुर ने कहा, समाज में QUEER समुदाय और बहुजन महिलाओं को आगे आने के लिए हमें एक स्पेस बनाना है। हमें समाज में और द मूकनायक, खबर लहरिया, बहन बॉक्स और ग्रेस बानू जैसे लोग चाहिए। हमें खुद ही खड़े होकर अपनी आवाज उठानी पड़ेगी। हमें इन आवाजों को एक प्लेटफॉर्म देना है और ऐसे कॉलम बनाने है जिसमें अलग-अलग क्म्यूनिटी के लोग अपनी आवाज उठा सके। हमें अपनी चुप्पी को तोड़ना है। ब्रेक अवर साइलेंस और फाइट फॉर अवरसेल्फ।
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