बिहार। पटना हाई कोर्ट जातीय जनगणना को लेकर दायर की गई याचिकाओं पर 25 दिन बाद मंगलवार सुनवाई के दौरान बड़ा फैसला सुनाया। कोर्ट ने बिहार में सरकार द्वारा जाति सर्वेक्षण कराने को चुनौती देने वाली सभी याचिकाओं को खारिज कर दिया है। बिहार में जातीय सर्वेक्षण चलता रहेगा। दायर की गई याचिकाओं में जातिगत जनगणना पर रोक लगाने की मांग की गई थी। जातीय गणना को लेकर पटना हाई कोर्ट में राज्य सरकार की तरफ से कहा गया था कि सरकारी योजनाओं का फायदा लेने के लिए सभी अपनी जाति बताने में झिझकते नहीं है।
बिहार राज्य की पटना हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस के विनोद चंद्रन और जस्टिस पार्थसारथी की बेंच ने बीते महीने लगातार 3 जुलाई से 7 जुलाई तक पांच दिनों तक इस मामले में याचिकाकर्ताओं और बिहार सरकार की दलीलें सुनीं थी। हाई कोर्ट ने सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद सुनवाई पूरी करते हुए फैसला सुरक्षित रख लिया था। अब 25 दिन बाद इस मामले में कोर्ट ने फैसला सुनाया है। जातीय जनगणना के खिलाफ दायर याचिकाओं पर चीफ जस्टिस केवी चंद्रन की खंडपीठ ने लगातार पांच दिनों से सुनवाई की। पटना हाई कोर्ट में सुनवाई के अंतिम दिन भी राज्य सरकार की ओर से महाधिवक्ता पीके शाही ने कोर्ट को बताया था कि यह सर्वेक्षण है। इसका मकसद आम नागरिकों के बारे में सामाजिक अध्ययन के लिए आंकड़े जुटाना है। इसका उपयोग आम लोगों के कल्याण और हितों के लिए किया जाएगा।
सरकार ने नगर निकायों एवं पंचायत चुनावों में पिछड़ी जातियों को कोई आरक्षण नहीं देने का हवाला देते हुए कहा कि ओबीसी को 20 प्रतिशत, एससी को 16 फीसदी और एसटी को एक फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है। अभी भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक 50 फीसदी आरक्षण दिया जा सकता है। राज्य सरकार नगर निकाय और पंचायत चुनाव में 13 प्रतिशत और आरक्षण दे सकती है। सरकार ने कोर्ट में तर्क दिया था कि इसलिए भी जातीय गणना जरूरी है।
बिहार सरकार के जाति आधारित सर्वेक्षण को चुनौती देने वाली याचिकाओं को पटना हाई कोर्ट द्वारा खारिज किए जाने पर राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव का कहना है, "हम हाई कोर्ट के फैसले का स्वागत करते हैं। यह सिर्फ एक फैसला नहीं है, बल्कि गरीबों के लिए एक फैसला है। इससे गरीबों के लिए दरवाजे खुलेंगे।' उनके सर्वेक्षण के बाद, उनकी आर्थिक स्थिति का पता चलेगा और उस आधार पर, सरकार उनके लिए योजनाओं का मसौदा तैयार करेगी और इससे विकास के द्वार खुलेंगे। मैं सीएम और तेजस्वी यादव को धन्यवाद देता हूं, उन्होंने कड़ी मेहनत की।"
महाधिवक्ता पीके शाही ने कोर्ट में कहा था कि जाति संबंधी सूचना शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश या नौकरियों के लिए आवेदन या नियुक्ति के समय भी दी जाती है। शाही ने दलील दी कि जातियां समाज का हिस्सा हैं। हर धर्म में अलग-अलग जातियां होती हैं। इस सर्वेक्षण के दौरान किसी भी तरह की कोई जानकारी अनिवार्य रूप से देने के लिए किसी को भी बाध्य नहीं किया जा रहा है। ये स्वैच्छिक सर्वेक्षण वाली जनगणना है जिसका लगभग 80 फीसदी कार्य पूरा हो गया है। उन्होंने कहा कि ऐसा सर्वेक्षण राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में है। सर्वेक्षण से किसी की निजता का उल्लंघन नहीं हो रहा है। पीके शाही ने कोर्ट में कहा कि बहुत सी सूचनाएं पहले से ही सार्वजनिक होती हैं।
नीतीश सरकार ने 18 फरवरी 2019 और फिर 27 फरवरी 2020 को जातीय जनगणना का प्रस्ताव बिहार विधानसभा और विधान परिषद में पास कराया था। हालांकि, केंद्र सरकार इसके विरोध में है। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा दायर कर साफ कर दिया था कि जातिगत जनगणना नहीं कराई जाएगी। वहीं इस मामले में केंद्र का कहना था कि ओबीसी जातियों की गिनती करना लंबा और कठिन काम है। बिहार सरकार ने पिछले साल जातिगत जनगणना कराने का फैसला किया था। इसका काम जनवरी 2023 से शुरू हुआ था। इसे मई तक पूरा किया जाना था।
बिहार सरकार का जातिगत जनगणना कराने के पक्ष में तर्क ये है कि 1951 से एससी और एसटी जातियों का डेटा पब्लिश होता है, लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का डेटा नहीं आता है. इससे ओबीसी की सही आबादी का अनुमान लगाना मुश्किल होता है। 1990 में केंद्र की तब की वीपी सिंह की सरकार ने दूसरा पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिश को लागू किया। इसे मंडल आयोग के नाम से जानते हैं। इसने 1931 की जनगणना के आधार पर देश में ओबीसी की 52% आबादी होने का अनुमान लगाया था।
मंडल आयोग की सिफारिश के आधार पर ही ओबीसी को 27% आरक्षण दिया जाता है। जानकारों का मानना है कि एससी और एसटी को जो आरक्षण मिलता है, उसका आधार उनकी आबादी है, लेकिन ओबीसी के आरक्षण का कोई आधार नहीं है।
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