Opinion : हिन्दू और हिंदुत्व की बहस में भारत का अल्पसंख्यक खुद को कहां खड़ा पाता है?

हिन्दू और हिंदुत्व की बहस में भारत का अल्पसंख्यक खुद को कहां खड़ा पाता है?
हिन्दू और हिंदुत्व की बहस में भारत का अल्पसंख्यक खुद को कहां खड़ा पाता है?
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लेखक- तारिक अनवर चंपारणी

12 दिसंबर, 2021 को राहुल गांधी ने जयपुर की एक रैली में जोरदार भाषण दिया था। उसके बाद ही हिन्दू और हिंदुत्व की बहस फिर से छेड़ दी गयी है। हालांकि यह बहस बहुत ही अकादमिक स्तर की है, जिस बहस का आम जनता के ऊपर बहुत अधिक फ़र्क़ नहीं पड़ता है।

राहुल गांधी ने अपनी भाषण में दो बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदुओं पर चर्चा किया। उन्होंने पहले कहा कि यह हिंदुओं का देश है, हिंदुत्ववादियों का नहीं। फिर आगे उन्होंने कहा कि देश पर हिंदुत्ववादियों का नहीं, हिंदुओं का राज होगा। इसलिए राहुल गांधी के भाषण के आधार पर इस बात का मूल्यांकन किया जाना चाहिये कि इस हिंदुत्व और हिन्दू की बहस में भारत का धार्मिक अल्पसंख्यक विशेष रूप से मुसलमान और ईसाई स्वयं को कहां पर खड़ा पाता है?

हिन्दू और हिंदुत्व की बहस में भारत का अल्पसंख्यक खुद को कहां खड़ा पाता है?
हिन्दू और हिंदुत्व की बहस में भारत का अल्पसंख्यक खुद को कहां खड़ा पाता है?

राहुल गांधी ने हिन्दू और हिंदुत्व में फ़र्क़ बताते हुए हिन्दू को परिभाषित भी किया। हालांकि उनकी यह परिभाषा व्यवहारिक और अकादमिक मापदंडों पर कम और राजनीतिक मापदण्डों पर ज़्यादा सटीक बैठ रहा था। हिन्दू की कोई एक परिभाषा नहीं है। हिन्दू को अलग-अलग लोगों ने अलग-अलग तरह से परिभाषित भी किया है। हिन्दू स्वयं में कोई धर्म नहीं है बल्कि दर्जनों ऐसे धर्मों का समूह है जिसका उदगम भारतीय उपमहाद्वीप में हुआ है।

अनेकों विद्वान सनातन धर्म से निकले अलग-अलग पंथों को मिलाकर भी एकसाथ हिन्दू कहते हैं। यानी एक हिन्दू नास्तिक और आस्तिक दोनों हो सकता है। कई विद्वान इसे विविधताओं वाली संस्कृति भी बोलते हैं। यानी यहां वर्ण व्यवस्था, जाति-व्यवस्था, सती-प्रथा, छुआछूत इत्यादि सभी संस्कृति के नाम पर स्वीकार्य थे। बल्कि जब इनके भीतर से ही इन कुप्रथाओं का विरोध हुआ तब इस विरोध को भी हिन्दू संस्कृति का हिस्सा मान लिया गया। उदाहरण के तौर पर बौद्ध, जैन, चार्वाक, कबीर, रैदास, आजीवक, इत्यादि के विचारों को भी सामुहिक रूप से हिन्दू दर्शन या संस्कृति बोला जाने लगा।

हिन्दू स्वयं में कोई विचारधारा कभी नहीं रहा है। क्योंकि विचारधारा की बुनियाद में तीन चीजों का होना आवश्यक है। पहला, विचारों का होना बहुत जरूरी है। जबकि, भारत में क्षेत्र और भौगोलिक बनावट के अनुसार धर्म, देवी, देवतायें, पूजा-पाठ और उसकी अलग-अलग मान्यताएं थी। यानी कि हिन्दू का कोई परिभाषित विचार या इसके केंद्र में कोई विचार नहीं है। बल्कि अलग-अलग विचारों का एक समूह है जिसे हिन्दू बोला जाता है। यही कारण है कि सनातन से निकले हुए अलग-अलग पंथों को भी हिन्दू संस्कृति के नाम पर स्वीकार लिया जाता है।

दूसरा, विचारों के बाद उसका किर्यान्वयन का काम होता है। चूंकि हिन्दू अपने आप में कोई विचार नहीं है इसलिए उसके किर्यान्वयन के लिए या उसके विचारों को लागू करने के लिए भी अबतक कोई ठोस क़दम नहीं उठाया जा सका था।

तीसरा, विचारधारा के लिए रक्षात्मक तंत्र का होना बहुत जरूरी होता है। जब विचारधारा पर बाहरी हमला होता है तब यह तंत्र सक्रिय होता है। लेकिन हिन्दू के साथ ऐसा नहीं होता है। बल्कि उसके विपरीत वैचारिक हमलों के बाद जो नया पंथ बनता है कुछ समय बाद उसको स्वीकार्यता देकर हिन्दू संस्कृति का हिस्सा मान लिया जाता है।

हिन्दू और हिंदुत्व की बहस में भारत का अल्पसंख्यक खुद को कहां खड़ा पाता है?
हिन्दू और हिंदुत्व की बहस में भारत का अल्पसंख्यक खुद को कहां खड़ा पाता है?

जब भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार या फैलाव शुरू हुआ तो उसमें भी अल्लाह यानी ईश्वर का कॉन्सेप्ट निहित था। उस समय भारत के जितने भी पंथ और धर्म थे उनमें से लगभग सभी में ईश्वर(अल्लाह) का कॉन्सेप्ट निहित था इसलिए धार्मिक स्तर पर इन धर्मों का इस्लाम के साथ कोई खास टकराव नहीं था। साथ-साथ इस्लामिक स्कॉलर या मुस्लिम शासक कभी भी दूसरे धर्म में सुधारवादी आंदोलन नहीं चलाते थे। बल्कि इस्लाम के विचारों को पेश करते थे।

उदाहरण के तौर पर जब धर्म के नाम पर शूद्रों के साथ अत्याचार या शोषण हो रहा था तब मुस्लिम शासकों ने उनके धर्म में सुधारवादी आंदोलन नहीं चलाया बल्कि उसके विकल्प में इस्लाम की शिक्षाओं को पेश किया। इसलिए ही भारत में बड़ी संख्या में दलितों ने भी इस्लाम को स्वीकार किया। दूसरें धर्मों के आंतरिक मामलों में दखल करने की इजाज़त इस्लाम में नहीं है।

समस्या तब खड़ा हुआ जब उदारवाद की विचारधारा के साथ यूरोप दुनिया भर में अपनी कॉलोनी बनाने के क्रम में भारत आया। शुरुआत में तो भारतीयों को यह समझ ही नहीं आया कि चल क्या रहा है? लिबरलिज्म ने पूरी दुनिया के धर्मों में कमिया निकालकर उस धर्म विशेष को हीन साबित करने का प्रयास किया। इस क्रम में भारत के भी जितने छोटे-बड़े धर्म थे सभी में कमियां निकालकर धर्म के मानने वालों में हीन भावना डाल दिया। यह वह समय था जब पहली बार भारत के लोगों को धार्मिक पहचान को लेकर ख़तरा महसूस हुआ। इसलिए आप देखेंगे कि जिस समय यूरोप के लोग भारत में उपनिवेश स्थापित करने आये उसके बाद ही ब्रह्म समाज, आर्य समाज, भक्ति आंदोलन, आत्मीय सभा, रामकृष्ण मिशन, सत्यशोधक समाज इत्यादि का उभार हुआ।

चूंकि भारत एक आध्यात्मिक देश के साथ-साथ दर्जनों धर्मों एवं पंथों का उद्गम स्थल भी रहा है। इसलिए लिबरलिज्म के फ़ैलाव के दौरान धर्म में हुए छेड़छाड़ के कारण यहां के धार्मिक एवं आध्यात्मिक लोगों के भीतर घबराहट बढ़ी और धर्म के रक्षा के नाम पर लोगों को एकजुट करना शुरू किया। जैसा कि ऊपर में बताया कि हिन्दू कोई धर्म या विचारधारा ही नहीं था इसलिए एक विचारधारा गढ़ने का प्रयास शुरू हुआ जिसे 'हिंदुत्व' का नाम दिया गया। इस विचारधारा में 'राम' को केंद्रीय भूमिका में रखकर हिंदुओं का सामूहिक चेहरा बनाया गया। विचार के नाम पर गीता को केंद्रीय भूमिका में रखा गया। आध्यात्मिक केंद्र के रूप में अयोध्या को सामने लाया गया। इनसब चीजों को स्थापित करने के लिए सत्ता की जरूरत होती है। इसलिए भावनाओं को जगाने के लिए "जो हिन्दू हित की बात करेगा वही हिंदुस्तान पर राज करेगा" जैसे नारे दिये गये।

हिंदुत्ववाद की बात करने वाले कभी भी यह नहीं कहते है कि भारत हिन्दुत्ववादियों का देश है। वह यह भी नहीं कहते है कि भारत पर हिंदुत्ववादियों का राज रहेगा। बल्कि वह लोग भी कहते है कि भारत हिंदुओं का देश है और इसपर हिंदुओं का राज स्थापित करना है। राहुल गांधी भी जयपुर के भाषण में वही बात बोल रहे है जो हिंदुत्ववादी या संघी विचारधारा के लोग बोलते है।

अब सवाल यह है कि संघ किस हिन्दू की बात करता है और राहुल गांधी किस हिन्दू की बात कर रहे हैं? हिन्दू और हिन्दुत्वाद के इतने महीन और अकादमिक फ़र्क़ को भीड़ में बैठी लाखों जनता नहीं समझती है। बल्कि भीड़ में बैठी जनता एक ही विचार के साथ घर लौटती है कि यह देश केवल हिंदुओं का है और इसपर शासन भी केवल हिंदुओं का होगा।

वह जनता यह भी समझती है कि मुसलमान, ईसाई, यहूदी इत्यादि हिन्दू नहीं है। राहुल गांधी जब भाषण दे रहे थे तब यह भूल रहे थे कि उनकी पार्टी के लोग ही बाबरी मस्जिद की जगह राम मंदिर बनने पर बाबरी मस्जिद का ताला खोलने की क्रेडिट ले रहे थे। वह यह भी भूल गये थे कि उनकी पार्टी के लोग राम मंदिर के लिए लाखों का चन्दा इकट्ठा कर रहे थे, उनकी पार्टी के लोग टीवी डिबेट में बैठकर राम मंदिर बनने की जश्न मना रहे थे। बाबरी मस्जिद को 'शहीद' करना और उसपर राम मंदिर का निर्माण करना तो हिंदुत्व एजेंडा का हिस्सा था। फिर इस बात का स्पष्टीकरण भी राहुल गांधी को उसी भाषण में देना चाहिए था।

क्या देश का आम हिन्दू बाबरी मस्जिद के टूटने और राम मंदिर के निर्माण पर ख़ुश नहीं हुआ? क्या भारत का आम हिन्दू इस बात पर खुश नहीं होता है कि भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाये और भारत पर केवल हिंदुओं का राज रहे?

दरअसल कांग्रेस वैचारिक शून्यता के दौर से गुज़र रही है। विचारधारा के नाम पर कांग्रेस के पास अपना कुछ जमा-पूंजी बची नहीं है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद वाली नस्ल ने कांग्रेस के राष्ट्रवाद को पकड़े रखा। अगली नस्ल ने समाजवाद के विचारों के सहारे कांग्रेस को थामें रखा।

अभी वर्तमान की जो नस्ल है उसको स्वतंत्रता आंदोलन से बहुत मतलब नहीं है। यह सब अतीत की घटना बन चुकी है। कांग्रेस जिस लिबरल सेक्युलर विचारधारा के साथ आगे बढ़ी थी, उस विचारधारा को बहुसंख्यक हिन्दू समाज ने नकार दिया है। क्योंकि उन्हें ऐसा लग रहा है कि यह सेक्युलर-लिबरल विचारधारा उन्हें हिन्दू बनाये रखने में मुश्किल खड़ी कर रही है। आरएसएस ने कांग्रेस को चारों तरफ़ से ऐसे घेर लिया है, जहां पर कांग्रेस के लिए बहुत द्वंद वाली स्थिति है। वरना जिस कांग्रेस पार्टी को देश की आज़ादी दिलाने और संविधान बनाने का श्रेय दिया जाता है उस कांग्रेस के सबसे बड़े नेता को लाखों की भीड़ में "हिंदुओं का देश है" और "हिंदुओं का राज" होगा जैसे भाषण नहीं देने पड़ते।

दरअसल कांग्रेस भी हिंदुत्व की तरफ़ बढ़ने का मन बना चुकी है। उसे पता है कि बिना हिंदुत्व की बात किये सत्ता तक नहीं पहुंचा जा सकता है। यह बेचैनी केवल कांग्रेस के भीतर नहीं है बल्कि देश की सभी छोटी-बड़ी दलों के भीतर है। केजरीवाल भी दिल्ली में अपना चुनाव-प्रचार हनुमान मंदिर से शुरू करते है। साथ ही साथ राममंदिर दर्शन के लिए विशेष यात्रा की शुरुआत करते है। राम मंदिर भूमि घोटाला को मुद्दा बनाकर यूपी की राजनीति में एंट्री मारने की कोशिश किए।

मामला अब केवल चुनाव जीतने एवं हारने तक सीमित नहीं रह गया है। बल्कि मामला इससे भी बहुत आगे निकल चुका है। सभी पार्टियां हिंदुत्व का अलग-अलग फ्लेवर लेकर मैदान में उतरेगी जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यकों विशेष रूप से मुसलमानों और ईसाइयों का राजनीतिक स्पेस सिकुड़ता चला जायेगा।

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